पैदाइश चांदी की चम्मच मुंह में लेकर हो और होश संभालने के दिनों में हुक्म की तामील करवाने का माहौल दिखा हो तो अक्सर क्रांति-व्रांति जैसी चीजें सूझती नहीं. लेकिन जैसे तमाम नियम आम लोगों पर ही लागू होते हैं, ये भी वैसे ही है. जोश मलीहाबादी आम नहीं थे. इसलिए नियमों के दायरे में नहीं बंधे थे. उन्होंने आजादी के लिए परचम लहराने वालों में अपना नाम लिखवाया. परचम, स्याही से बुना. काली, नीली स्याही जो कागज से जेहन तक का सफर तय करती तो लाल खून में उबाल आ जाता. अंग्रेजों के खिलाफ, कुछ और नारे फिजा में गूंजते. मुट्ठियां कुछ और कसतीं. रगें कुछ और फड़कतीं.
सामंती, शायर, बगावती, इंकलाबी...वो सब कुछ था
जोश या कहें शबीर हसन खां का जन्म हुआ 5 दिसम्बर, 1898 को. जगह मलीहाबाद. जागीरदार घराना था. संपन्न. साहित्य विरसे में चला आया. परदादा एक दीवान और कुछ और किताबें छोड़कर गए. दादा और पिता भी शायरी कर लेते थे. पढ़ाई के पहले सबक घर पर ही सीखे. उर्दू-फारसी भी. फिर अंग्रेजी तालीम के लिए लखनऊ के ही सीतापुर और जुबिली स्कूल गए. उसके बाद आगरा के सेंट पीटर्स कॉलेज और अलीगढ़ भी पहुंचे. लेकिन तालीम अधूरी ही रही. घर के सामंती माहौल का असर कुछ यूं पड़ा कि कम उम्र में, दूसरों को छड़ी जमाने से पहले ज्यादा सोचा नहीं जाता था.
प्रकाश पंडित अपनी किताब, जोश मलीहाबादी और उनकी शायरी में लिखते हैं, " सामंती वातावरण में पला हुआ रईसजादा जिसे नई शिक्षा से पूरी तरह लाभान्वित होने का बहुत कम अवसर मिला और जिसके स्वभाव में शुरू ही से उद्दण्डता थी, अत्यन्त भावुक और हठी बन गया. युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते उनके मुताबिक वो बड़ी सख्ती से रोजे-नमाज के पाबंद हो चुके थे. नमाज के समय सुगन्धित धूप जलाते और कमरा बंद कर लेते थे. दाढ़ी रख ली और चारपाई पर लेटना और मांस खाना छोड़ दिया था और भावुकता इस सीमा पर पहुंच चुकी थी कि बात-बात पर उनके आंसू निकल आते थे. और फिर वो हुआ जो ऐसे दौर में अचानक होता है.”
जोश की आत्मकथा यादों की बारात के हवाले से:
"मेरी नमाजें तर्क हो गईं. दाढ़ी मुंढ़ गई, आंसू निकलना बंद हो गए और अब मैं इस मंजिल पर आ गया जहां हर पुराना एतिकाद (भरोसा) और हर पुरानी रवायत पर एतराज करने को जी चाहता है"
पिता को ये रास न आया. जोश लिखते हैं,
मेरे पिता ने बड़ी नर्मी से मुझे समझाया, फिर धमकाया, मगर मुझ पर कोई असर न हुआ. मेरी बगावत बढ़ती ही चली गई. नतीजा यह हुआ कि मेरे बाप ने वसीयतनामा लिखकर मेरे पास भेज दिया कि अगर अब भी मैं अपनी जिद पर कायम रहूंगा तो सिर्फ 100 रुपये माहवार वजीफे के अलावा कुल जायदाद से महरूम कर दिया जाऊंगा लेकिन मुझ पर इसका कोई असर न हुआ.
प्रकाश पंडित के मुताबिक, कई बार जोश ने सिर्फ बगावत के लिए बगावत की. खुद को सबसे ऊपर मानकर...
23-24 की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते जोश, उमर खय्याम और हाफिज की शायरी को करीब से परख रहे थे. दोनों ऐसे शायर जिनकी शायरी भी विद्रोही किस्म की थी. इन बगावती तेवरों को हथियार बनाकर जोश ने ऐसे शेर कहने शुरू किए जो अपने वक्त में अंग्रेजों से लड़ने का जरिया बन गए. आम आदमी के नारे बन गए. आजादी के तराने बन गए. जोश मलीहाबादी, शायर-ए-इंकिलाब कहलाने लगे.
भाषाई शुद्धता के लिए सनक
कौन सा शब्द किस तरह बोला जाए, कब बोला जाए और क्यों...इस सब को लेकर जोश पागलों की हद तक जा सकते थे. इस मामले में उन्होंने देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक को नहीं बख्शा. वो हर किसी को, कभी भी, कहीं भी टोक देते थे. गलत उच्चारण और इस्तेमाल, दोनों उन्हें बेतरह नागवार गुजरते.
कहते हैं जब नेहरू को उन्होंने अपनी एक किताब दी तो जवाब में नेहरू ने उन्हें कहा “मैं आपका मशकूर(जिसका शुक्रिया अदा किया जाए) हूं.” उन्होंने नेहरू को ठीक किया और कहा “आपको कहना चाहिए, मैं आपका शाकिर(शुक्रगुजार) हूं”
...और जोश पाकिस्तान चले गए
आजादी के बाद 1948 में जोश को आजकल के उर्दू संस्करण का संपादक बनाया गया. वो तत्कालीन सरकार से नजदीक भी थे. लेकिन फिर पता नहीं अचानक क्या हुआ, वो पाकिस्तान चले गए. नेहरू की समझाइश के बावजदू. मौलाना आजाद की ताकीद के बावजूद. कुछ लोग ऐसा उनकी इस सोच को भी मानते हैं कि उन्हें बराबर लगता कि उर्दू साहित्य के लिए मौके भारत से ज्यादा पाकिस्तान में होंगे. पाकिस्तान जाने के बाद भी वो तीन बार भारत आए. साल 1982 में इस्लामाबाद में ही जोश ने आखिरी सांस ली.
जोश को जमाना एक ऐसे शायर के तौर पर याद रखेगा जिसकी कलम अपने वक्त के जरूरी हिस्सों और जरूरी मुद्दों पर खूब चली और क्या खूब चली.
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(नोटः यह स्टोरी पहली बार 5 दिसंबर 2017 को पब्लिश हुई थी. आज जोश मलीहाबादी की पुण्यतिथि पर इसे पाठकों के लिए दोबारा पब्लिश किया जा रहा है.)
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