वाराणसी के महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय के एक रिसर्च स्कॉलर और एडहॉक पर रखे गये प्राध्यापक मिथिलेश गौतम ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट किया था. "महिलाओं के नौ दिन के नवरात्र व्रत से अच्छा है कि वह नौ दिन संविधान और हिंदू कोड बिल पढ़ ले. उनका जीवन गुलामी और भय से मुक्त हो जाएगा. जय भीम". इस पोस्ट को आपत्तिजनक बताते हुए विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने नारेबाजी करते हुए हंगामा किया. छात्रों के रुख को देखते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन ने अतिथि शिक्षक मिथिलेश गौतम को बर्खास्त कर दिया. साथ ही विश्वविद्यालय परिसर में प्रवेश करने पर भी रोक लगा दी. मिथिलेश गौतम से क्विंट हिंदी ने खास बातचीत की.
आपने जो पोस्ट लिखा, जिससे सारा बवाल हुआ क्या इसके पहले भी कभी महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में ऐसा बवाल हुआ था आपके पोस्ट या बयान को लेकर?
मेरे पोस्ट को लेकर कभी कोई ऐसा बवाल नहीं हुआ लेकिन लोगों में नाराजगी रहती थी. जो लोग भी आधुनिक बातें करते हैं, विकासवादी बातें करते हैं या फिर संवैधानिक बातें करते हैं- इन चीजों को लेकर पहले भी लोगों में थोड़ा बहुत रोष रहता था. उनका मानना था आपके कहने से कोई चीज नहीं सुधर जाएगी. इन सब को लेकर पहले भी मेरे खिलाफ शिकायत हुई थी. यही नहीं मेरे साथी जो इंटेलेक्चुअल बात करते हैं उनके खिलाफ शिकायत भी की थी और मारा भी था. लेकिन अभी तक उन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई है.
अतिथि शिक्षक सुशील कुमार गौतम पर दो साल पहले हमला हुआ था. पिछले साल यही लड़का (छात्र नेता) गणेश राय ने प्रोफेसर कृपा शंकर जायसवाल का कॉलर पकड़ा था और मारा भी था. इसके वीडियो साक्ष्य भी थे लेकिन फिर भी प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं करता. वही लड़का (गणेश राय) फिर चुनाव लड़ता है और मेरे खिलाफ प्रकरण का षड्यंत्रकर्ता भी है.
आपको किस तरीके से पता चला छात्रों के आक्रोश के बारे में?
जैसा कि हमने 28 सितंबर को दो लाइन का पोस्ट लिखा और यह सब (विरोध करने वाले छात्र) मेरे पोस्ट पर ना लिखकर मेरे पोस्ट का स्क्रीनशॉट लिए और अपनी फेसबुक वाल पर जाकर अपने अपने पोस्टों पर उल्टा सीधा लिखना, गाली गलौज करना शुरू किए. पोस्ट के माध्यम से हमें धमकी दी और गाली गलौज की. फिर अपने ही पोस्ट पर गणेश राय (छात्र नेता) लिखता है कि उसके संगठन के साथी 10 बजे कैंपस पहुंचे. फिर अगले दिन कुछ 8-10 छात्र लामबंद होते हैं और वह विश्वविद्यालय पहुंचते हैं. उसी दिन तकरीबन 150 से 200 छात्र बीए बीएससी की परीक्षा में मूल्यांकन की गड़बड़ियों को लेकर विरोध में पहुंचे थे.
गणेश राय और उसके साथियों ने उनके प्रदर्शन को हाईजैक करते हुए उस भीड़ का नेतृत्व करने लगते हैं. यह लोग मेरे विभाग में जाते हैं वहां पर मुझे गाली देना, मारने की धमकी देना मेरे विभागाधक्ष को भी उल्टा सीधा बोलते हैं और फिर मेरा सस्पेंशन ऑर्डर निकालने की मांग की.
जो आपके साथ हुआ. कुछ ऐसा ही प्रोफेसर रविकांत चंदन के साथ लखनऊ यूनिवर्सिटी में हुआ. विश्वविद्यालय अभिव्यक्ति की आजादी का एक बड़ा केंद्र है. ऐसे में क्या आपको लगता है कि यह सब घटनाएं किसी खास पृष्ठभूमि वाले शिक्षकों के साथ ज्यादा हो रही है या फिर आम तौर पर शैक्षणिक संस्थानों में असहिष्णुता बढ़ती जा रही है?
आपकी दोनों बातें सही हो सकती हैं. इनका उद्देश्य हो सकता है कि सही और गलत की शिक्षा ना दी जाए. उनको पुरानी परंपराओं में बांध कर रखना है और जो ऐसी शिक्षा देता है उन को रोकना है, उनके खिलाफ प्रोटेस्ट करना है, और इन्हें काम नहीं करना देना है. क्योंकि वह जानते हैं कि जिस दिन जनता शिक्षित हो जाएगी तो फिर वह अपने अधिकारों के लिए उठ कर खड़ी होगी.
आपने मेरे पोस्ट में देखा होगा कि मैंने महिलाओं के संवैधानिक हक और हिंदू कोड बिल की बात की है ना कि मैंने महिलाओं के खिलाफ कुछ बोला है. दूसरी बात यह है कि देश की एकता और अखंडता के नाम पर एक माहौल तैयार किया जा रहा है. पहले हिंदू बनाम मुस्लिम होता है. जहां हिंदू-मुस्लिम चैप्टर खत्म होता है वहां पर हिंदू की जितनी जातियां हैं उनको आपस में लड़ा कर अपना काम निकालना और वर्चस्व स्थापित करना है. वर्चस्व कैसा रहेगा, वही वाला जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वाला जैसा मनुस्मृति में है. ऊंच-नीच का भाव बना रहे और बराबरी, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की बात ना हो.
दलित शिक्षकों के उत्पीड़न के कई मामले आए हैं. आपको क्या लगता है कि यह सब छुटपुट घटनाएं हैं या फिर संगठित तरीके से किसी एक वर्ग की बात को दबाने की कोशिश है?
इसमें दोनों बातें हैं. हर यूनिवर्सिटी में आपको कुछ ऐसे लोग मिल जाएंगे जो धर्म और जाति के वर्चस्व की बात करते हुए मिलेंगे. इनके आपस में तार जुड़े रहते हैं. जैसे कि एक जाति के लोग अपने जाति के दूसरे साथियों के साथ रिश्तेदारी या भाईचारे के माध्यम से जुड़े रहते हैं.
यूरोपीय देशों के मुकाबले भारत अभी भी 200 साल पीछे चल रहा है. यूरोप में "डार्क ऐज" पांचवी शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक था जो अब खत्म हो चुका है. लेकिन भारत में अभी भी यह विद्यमान है. इसका क्या कारण है? भारत अभी भी विकासशील देश वाली श्रेणी में शामिल है. कहीं धर्म और जाति ग्रस्त व्यवस्था इसका एक बड़ा कारण तो नहीं है?
आपके फेसबुक पोस्ट से जुड़ा एक सवाल है कि अगर देश की के सारी महिलाएं अपने संवैधानिक हक को लेकर जागरूक हो जाती हैं तो इसे सबसे ज्यादा दिक्कत किसको होगी?
इससे ज्यादा दिक्कत उन लोगों की होगी जो तथाकथित समाज खुद को समाज का अगुआ यानी मनुवादी सोच को होगी क्योंकि वह चाहते हैं कि महिलाएं हमेशा दोहरे दर्जे की या फिर उन्हें वस्तु की तरह मानते हैं. आपने देखा होगा कि भारत में पहले तमाम बुराइयां थी जो बाद में धीरे-धीरे समाप्त हुई. इसमें कुछ अभी भी विद्यमान गई. जैसे कि दहेज प्रथा. कहने के लिए रक्षाबंधन भी एक बहुत अच्छा त्यौहार है लेकिन अभी भी कोई लड़की शादी के बाद अपने पैतृक संपत्ति में हक मांगे उसी घर में सबसे ज्यादा विद्रोह हो जाएगा.
भले ही उसे अधिकार मिला हुआ है की पैतृक संपत्ति में लड़के और लड़की का समान अधिकार होगा. अगर ऐसा पूरी तरीके से लागू हो जाए तो भाई-बहन में वैसी ही दूरियां आ जाएंगी जैसा कि एक मनुवादी सोच वाले ब्राह्मण और दलित के बीच आ जाती है.
आपने इसका उदाहरण भी देखा होगा कि पैतृक संपत्ति में जब लड़कियों ने अपना हक मांगा है तो यह मामले अब कोर्ट कचहरी तक पहुंच गए हैं.
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