तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो
कैफी आजमी...मुस्कुराहट के पीछे का गम, चमक के पीछे का अंधेरा और महिलाओं के लिए नए सवेरे की तलाश करने में अपनी जिंदगी गुजारने वाले शायर. एक ऐसी शख्सियत जिसकी कलम में जमाने के रुख को मोड़ने की ताकत थी. जिसने हिंदी सिनेमा की दुनिया में उर्दू शायरी के चलन को बढ़ाया. कैफी आजमी (Kaifi Azmi) ने देश के अन्नदाताओं और पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को भी अपनी शायरी का हिस्सा बनाया.
उर्दू शायर और गीतकार कैफी आजमी का पूरा नाम सय्यद अतहर हुसैन रिजवी था. उनकी पैदाइश 14 जनवरी 1919 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के मिजवां में हुई.
शायर और हिंदी प्रोफेसर दीपक रूहानी कहते हैं कि कैफी आजमी औरत को महज इश्क और मुहब्बत के लिए गढ़ी गयी मूरत नहीं समझते, बल्कि उन्होंने अपने अश'आर से औरतों का हौंसला भी बढ़ाया.
वो औरत के परम्परागत शायराना किरदार में एक नया पहलू पैदा करते हैं और उसमें एक आग भरने का काम करते हैं. कभी उसके परम्परागत रूप से प्यार करते हैं तो कभी चाहते हैं कि वो एकदम आधुनिक रूप और रंग में उनके सामने खड़ी नजर आये.
कैफी आजमी अपने इस गांव में लड़कियों के लिए कैफी आजमी गर्ल्स इंटर कॉलेज एंड कंप्यूटर ट्रेंनिंग सेंटर (Kaifi Azmi Girls Inter College and Computer Training Centre) नाम का एक कॉलेज बनवाया, जो आज वहां की लड़कियों के लिए तालीम का एक मरकज है. जब यह कॉलेज बना, उस वक्त आज़मगढ़ में कंप्यूटर एजुकेशन से संबंधित यह पहला सेंटर था.
11 साल की उम्र में लिखी पहली गजल
कैफी आजमी ने अपनी पहली गजल सिर्फ 11 साल की उम्र में लिखी थी. कैफी साहब लिखते हैं...
इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े
हंसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े
जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी पी के गर्म अश्क
यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े
किसानों की रहनुमाई करती है कैफी आजमी की नज्म
मौजूदा वक्त में हिंदुस्तान के अन्नदाताओं के सामने क्या हालात हैं, किसी से छिपा नहीं है. किसानों को तरह-तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, आए दिन क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन और विरोध प्रदर्शन देखने को मिलता है. कैफी आजमी ने अपने वक्त में किसानों पर भी लिखा, जो लाइनें आज भी किसानों की रहनुमाई करती हैं.
चीर के साल में दो बार ज़मीं का सीना
दफ़्न हो जाता हूं
गुदगुदाते हैं जो सूरज के सुनहरे नाख़ुन
फिर निकल आता हूं
अब निकलता हूं तो इतना कि बटोरे जो कोई दामन में
दामन फट जाए
घर के जिस कोने में ले जा के कोई रख दे मुझे
भूख वहां से हट जाए
हिंदी सिनेमा को दी नई पहचान
कैफी साहब ने हिंदी सिनेमा के लिए भी खूब लिखा. उन्होंने 1952 में शाहिद लतीफ द्वारा निर्देशित फिल्म 'बुजदिल' के लिए पहला गाना लिखा.
इसके बाद उन्होंने शमा, कागज के फूल, शोला और शबनम, अनुपमा, आखिरी खत, हकीकत, नौनिहाल, हंसते जख्म, अर्थ और हीर-रांझा जैसी फिल्मों के लिए काम किया.
कैफी आजमी ने चेतन आनंद की फिल्म 'हीर रांझा' की पटकथा लिखी और इसके सभी चरित्रों के संवादों को उन्होंने पूरी तरह से कविता में लिखा. इस फिल्म ने उन्हें हिंदी सिनेमा में नई पहचान दिलाई.
कैफी साहब ने फिल्म 'नौनिहाल' के लिए जो गीत लिखे, जिसको गाते वक्त रफी साहब रो पड़ते थे.
जब लाल बहादुर शास्त्री ने कैफी साहब को लगाया गले
लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री थे और भारत-पाकिस्तान के बीच जंग चल रही थी. उस वक्त कैफी आजमी ने 'फर्ज' नाम की एक नज्म लिखी.
रिश्ते सौ, जज्बे भी सौ, चेहरे भी सौ होते हैं,
फर्ज सौ चेहरों में शक्ल अपनी ही पहचानता है,
वही महबूब, वही दोस्त, वही एक अजीज,
दिल जिसे इश्क और इदराक अमल मानता है
यानी जंग अगर हो ही रही है तो उससे डरना या उससे दूर खड़े रहना कोई विकल्प नहीं है. जन्नत या जहन्नुम का फैसला कोई और करेगा, हमें तो अपना फर्ज निभाना है.
मुंबई के आजाद मैदान में एक जलसे के दौरान जब कैफी ने यह कविता सुनाई तो लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हें गले लगाते हुए कहा कि आप मजदूरों के नहीं, पूरे हिंदुस्तान के शायर हो.
शोर यूं ही न परिंदों ने मचाया होगा
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा
पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था
जिस्म जल जाएंगे जब सर पे न साया होगा
जब-जब यह देश सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा होगा, कैफी आजमी के कलाम लोगों को याद आते ही रहेंगे.
होंठों को सी कर देखिये पछताइएगा आप
हंगामें जाग उठते हैं अक्सर घुटन के बाद
काफी मशहूर है कैफी आजमी की नज्म 'औरत'
कैफी आजमी ने जेंडर इक्वालिटी को केंद्र में रखकर एक नज्म लिखी, जिसका उन्वान है 'औरत'. कैफी साहब लिखते हैं.
तोड़कर रस्म का बुत बन्दे-क़दामत से निकल,
ज़ोफ़े-इशरत से निकल वहमे-नज़ाकत से निकल,
नफ़्स के खींचे हुए हल्क़ाए-अज़मत से निकल,
क़ैद बन जाय मोहब्बत तो मोहब्बत से निकल,
राह का ख़ार ही क्या, गुल भी कुचलना है तुझे,
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे.
उजाले की चाहत में अंधेरों से लड़ते हुए 10 मई 2022 को कैफी आजमी ने दुनिया को अलविदा कह दिया. वो आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके कलाम हमें उनकी याद दिलाते ही हैं. 'हकीकत' फिल्म के एक गाने के जरिए कैफी साहब ने हमें एक जिम्मेदारी दी है.
कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों
खींच दो अपने खूँ से ज़मीं पर लकीर
इस तरफ़ आने पाये न रावण कोई
तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे
छूने पाये न सीता का दामन कोई
राम भी तुम तुम्हीं लक्ष्मण साथियों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों
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