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सच्चिदानंद हीरानंद वात्‍स्‍यायन अज्ञेय: कलम वाले हाथों ने क्यों उठाई थी बंदूक?

अज्ञेय जब किसी भी देश में जाते तो वहां भारतीय संस्कृति, तहजीब, भाषा, भारतीय साहित्य और हिंदी का खूब गुणगान करते थे.

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एक ऐसा साहित्यकार जिसे प्रकृति से बेहद मोहब्बत थी लेकिन देश की खातिर अपने स्वभाव से बिल्कुल इतर जाकर बम बनाया, भेष भी बदला और एक ऐसा भी वक्त आया कि जेल की रोटी भी खानी पड़ी. उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर में 7 मार्च 1911 को एक बालक का जन्म हुआ, जिसको प्यार से 'सच्चा' कहा जाता था और आगे चलकर वो हिंदी के कवि और लेखक 'अज्ञेय' के रूप में पहचाने गए. उनका पूरा नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय (Sachchidananda Hirananda Vatsyayan) था.

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कहा जाता है कि अज्ञेय छोटी उम्र में ही गंभीर सवालों में उलझ जाते थे. एक दिन पिता ने टोका कि बड़े होकर सोचना ये सब...तो उन्होंने जवाब दिया "क्यों न अभी सोचकर बड़ा हुआ जाए!"

अज्ञेय ने घर पर ही हिन्दी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं की तालीम हासिल की. उनका बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में गुजरा. बी.एस सी. करके अंग्रेजी में एम.ए. करते समय चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह के बुलावे पर दिल्ली आए और क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़कर बम बनाते हुए पकड़े गये. इसके बाद वो वहां से फरार भी हो गए और अमृतसर जाकर एक मस्जिद में मुल्ला की तरह रहते हुए गिरफ्तार किए गए. केस की सुनवाई के दौरान जज ने कहा कि मुझे अफसोस होता है इस आदमी को सजा देते हुए. ऐसी वाक प्रतिभा मैंने आजतक नहीं देखी, जिसका बयान पीस आफ लिट्रेचर है, महान पीस आफ लिट्रेचर!

'अज्ञेय' नाम कैसे पड़ा?

अज्ञेय जी ने कई कहानियां जेल में लिखीं और जैनेन्द्र कुमार तक पहुंचवाईं और जैनेन्द्र कुमार ने प्रेमचन्द तक पहुंचाई. जब इन्हें छपवाने की बात आई तो नाम गुप्त रखने के लिए 'अज्ञेय' के नाम से रचनाएं प्रकाशित करा दीं और सच्चिदानंद हीरानंद इस प्रकार 'अज्ञेय' हो गए.

कलम उठाने वाले हाथों में बंदूक

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कलम उठाने वाले हाथों ने बंदूक उठाई, किताबों के पन्ने खोलने वाली उंगलियों ने कारतूसों के खोखे भी खोले, सेना में कप्तान के पद पर रहते हुए अज्ञेय ने अपना योगदान दिया. शायद यही वजह है कि उन्होंने जापान पर हुए परमाणु हमले में राख होती जिंदगियों का इतनी सजीवता से अपनी कविता में बयां किया है...

एक दिन सहसा

सूरज निकला

अरे क्षितिज पर नहीं,

नगर के चौक

धूप बरसी

पर अंतरिक्ष से नहीं,

फटी मिट्टी से.

छायाएँ मानव-जन की

दिशाहीन

सब ओर पड़ीं-वह सूरज

नहीं उगा था वह पूरब में, वह

बरसा सहसा

बीचों-बीच नगर के

काल-सूर्य के रथ के

पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर

बिखर गए हों

दसों दिशा में.

कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!

केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की

दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी.

फिर?

छायाएँ मानव-जन की

नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर

मानव ही सब भाप हो गए.

छायाएँ तो अभी लिखी हैं

झुलसे हुए पत्‍थरों पर

उजरी सड़कों की गच पर.

मानव का रचा हुया सूरज

मानव को भाप बनाकर सोख गया.

पत्‍थर पर लिखी हुई यह

जली हुई छाया

मानव की साखी है.

अज्ञेय जी ने आकाशवाणी में भी नौकरी की, युनेस्को से भी उन्हें बुलावा आया. सैनिक और विशाल भारत नामक पत्रिकाओं का संपादन किया.

इलाहाबाद से 'प्रतीक' नामक पत्रिका निकाली, देश-विदेश की यात्राएं कीं. उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम किया.

अज्ञेय जी जब किसी भी देश में जाते तो वहां भारतीय संस्कृति, तहजीब, भाषा, भारतीय साहित्य और हिंदी का खूब गुणगान करते थे.

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अपशब्द के लिए अंग्रेज को पीटा

भारत और भारतीयता की बेअदबी उन्हें बिल्कुल बर्दाश्त नहीं थी. जब अज्ञेय कैलिफोर्निया में पढ़ाते थे, तो एक अंग्रेज़ लड़के को सिर्फ इसलिए पीटा था कि वो एक भारतीय लड़की को अपशब्द कह रहा था.

दिनमान साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स, अंग्रेजी पत्र वाक् और एवरीमैंस जैसी प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया.

हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इन्द्रधनुष रौंदे हुये ये, आंगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं, महावृक्ष के नीचे, नदी की बांक पर छाया, शेखर एक जीवनी जैसी उनकी कई रचनाएं मशहूर हैं.

1964 में 'आंगन के पार द्वार' पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ और 1978 में 'कितनी नावों में कितनी बार' पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार. सन 1983 में उन्हें स्वर्ण मान सम्मान से नवाजा गया जो हर साल में विश्व के किसी एक कवि को दिया जाता है.

अज्ञेय जी तन्हाई से मोहब्बत करते थे, अकेले बैठे हुए अक्सर कुदरत के तमाम पहलुओं से बातें किया करते थे. वो समंदर से बात करते हुए लिखते हैं...

यों मत छोड़ दो मुझे, सागर,

कहीं मुझे तोड़ दो, सागर,

कहीं मुझे तोड़ दो!

मेरी दीठ को और मेरे हिये को,

मेरी वासना को और मेरे मन को,

मेरे कर्म को और मेरे मर्म को,

मेरे चाहे को और मेरे जिये को

मुझ को और मुझ को और मुझ को

कहीं मुझ से जोड़ दो!

यों मत छोड़ दो मुझे, सागर,

यों मत छोड़ दो।

अज्ञेय जी इसी तरह सांप से बात करते हुए लिखते हैं...

सांप!

तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना

भी तुम्हें नहीं आया.

एक बात पूछूं (उत्तर दोगे?)

तब कैसे सीखा डंसना

विष कहां पाया?

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अज्ञेय जी स्वाभिमानी होने के साथ-साथ बड़े ही निडर थे, परेशानियां उन्हें कभी हरा न सकीं, वो लिखते हैं...

मैं कब कहता हूं जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,

मैं कब कहता हूं जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने?

कांटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,

मैं कब कहता हूं वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

मैं कब कहता हूं मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?

मैं कब कहता हूं प्यार करूं तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?

मैं कब कहता हूं विजय करूं मेरा ऊंचा प्रासाद बने ?

या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?

नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?

मैं प्रस्तुत हूं चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-

फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-

क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आंसू की माला है ?

वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-

वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-

मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !

मैं कहता हूं, मैं बढ़ता हूं, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूं

कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूं

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने

इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !

भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-

तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

अज्ञेय जी को वनों से बड़ा प्रेम था और खासकर के चीड़ और देवदार के जंगलों से, उनके लेखन का ज्यादातर वक्त वनों से ही होकर गुजरा है और उसकी छाप उनकी कलमकारी में साफ देखने को मिलती है.
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मैंने कहा पेड़ तुम इतने बड़े हो,

इतने कड़े हो,

न जाने कितने वर्षों से आंधी -पानी में सिर ऊंचा किए अपनी जगह खड़े हो,

सूरज उगता डूबता है, चांद भरता छीजता है ,

ऋतुएं बदलती हैं, मेघ उमड़ता सीझता है,

और तुम सब सहते हुए, संतुलित शांत धीर रहते हुए,

विनम्र हरियाली से भरे पर भीतर ठेठ कठेठ खड़े हो!

बता दें कि अज्ञेय जी की उंगलियां कलम के साथ कैमरे की भी शौकीन थी. वो फोटोग्राफी भी किया करते थे. उनके हाथ कलम के साथ-साथ पेंटिंग ब्रश पकड़ने के भी आदी थे.

4 अप्रैल 1987 को हिंदी के पहले विश्वयात्री अज्ञेय जी की सांसों के साथ एक मजबूत कलम भी रुक गयी, लेकिन वो क्रांतिकारी, प्रकृति प्रेमी, सच्चे लेखक और मार्गदर्शक के रूप हमारे आज भी मौजूद हैं और हमेशा रहेंगे.

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