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पंजाब: बीजेपी-अकाली दल की क्यों नहीं बनी बात? रवनीत बिट्टू की एंट्री से कमल होगा मजबूत?

Punjab Politics: अकाली दल और बीजेपी के बीच ऐसा क्या हुआ कि गठबंधन फिर से नहीं हो सका?

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भारतीय जनता पार्टी (BJP) अपने सबसे पुराने और सबसे लंबे समय की सहयोगियों में से एक, शिरोमणि अकाली दल (SAD) के साथ अपने गठबंधन को पुनर्जीवित नहीं कर रही है. इसका आधिकारिक ऐलान हो गया है. यह फैसला सरप्राइज करता है क्योंकि बीजेपी ने जनता दल (यूनाइटेड) और तेलुगु देशम पार्टी जैसे अलग हो चुके सहयोगियों को NDA में शामिल करने के लिए सब कुछ किया.

तीन आपस में जुड़े घटनाक्रम इस आधिकारिक फैसले को स्पष्ट करते हैं.

26 मार्च को पंजाब बीजेपी प्रमुख सुनील कुमार जाखड़ ने एक्स पर एक वीडियो जारी कर कहा, "बीजेपी पंजाब में अपने दम पर लोकसभा चुनाव लड़ने जा रही है. हमने पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं और आम लोगों से सलाह के बाद यह फैसला लिया है."

उसी दिन लुधियाना से कांग्रेस सांसद रवनीत सिंह बिट्टू बीजेपी में शामिल हो गए. वह बीजेपी के टिकट पर लुधियाना से चुनाव लड़ेंगे. यह वह सीट है जिस पर अकाली दल बीजेपी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन के हिस्से के रूप में चुनाव लड़ता था.

एक दिन बाद, 27 मार्च को, अकाली दल प्रमुख सुखबीर सिंह बादल ने एक सार्वजनिक बैठक में कहा कि चुनाव ऐसी लड़ाई है जिसके एक तरफ "(सिख) पंथ और पंजाब है जबकि दूसरी तरफ सभी पंजाब विरोधी पार्टियां हैं जो दिल्ली से चल रही हैं". जिससे इससे साफ है कि बीजेपी के साथ गठबंधन का अब कोई सवाल ही नहीं है.

ऐसे में सवाल है कि

  • अकाली दल और बीजेपी के बीच ऐसा क्या हुआ कि बात नहीं बनी?

  • रवनीत बिट्टू का बीजेपी में जाना कितना अहम?

  • पंजाब में बीजेपी और अकाली दल के लिए आगे की राह कैसी है?

इस आर्टिकल में हम इन्हीं तीन सवालों के जवाब देने की कोशिश करेंगे.

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अकाली दल और बीजेपी के बीच ऐसा क्या हुआ कि बात नहीं बनी?

इसके तीन पहलू हैं.

सीट-बंटवारा: परंपरागत रूप से, अकाली दल और बीजेपी के बीच चुनाव से पहले के गठबंधन में सीट शेयरिंग फार्मूला यही रहा है कि शिरोमणि अकाली दल पंजाब की 13 लोकसभा सीटों में से 10 पर चुनाव लड़ता है, जबकि बीजेपी तीन सीटों पर चुनाव लड़ती है: गुरदासपुर, होशियारपुर और अमृतसर. ये 3 ऐसी सीटें भी हैं जहां ऊंची जाति के हिंदू वोटरों की संख्या तुलनात्मक रूप से अधिक है.

इस बार बीजेपी पांच सीटों पर चुनाव लड़ने पर जोर दे रही थी. ऊपर बताए तीन सीटों के अलावा, पार्टी ने पटियाला के साथ लुधियाना या आनंदपुर साहिब में से कोई एक सीट मांगी थी.

सूत्रों का कहना है कि अकाली दल तीन पारंपरिक सीटों के अलावा बीजेपी को एक अतिरिक्त सीट देने को तैयार था. हालांकि, पांचवीं सीट दोनों पार्टियों के बीच डील-ब्रेकर बन गई और कोई भी पक्ष पीछे हटने को तैयार नहीं हुआ.

रियायतें: अकाली दल को बीजेपी के साथ गठबंधन की स्थिति में सिख मतदाताओं से विरोध का डर था. ऐसे में शिरोमणि अकाली दल नरेंद्र मोदी सरकार से कुछ ठोस रियायतें मांग रहा था, जैसे सिख राजनीतिक कैदियों की रिहाई पर कुछ सकारात्मक पहल. हालांकि, माना जा रहा है कि बीजेपी इस मुद्दे पर अनिच्छुक थी.

वोट ट्रांसफर को लेकर चिंताएं: दोनों पार्टियों को चिंता थी कि एक-दूसरे को वोटों का प्रभावी ट्रांसफर मुश्किल हो सकता है क्योंकि पंजाब में जमीनी स्थिति पहले की तुलना में अधिक ध्रुवीकृत है, हालांकि अभी भी हिंदी भाषी राज्यों की तुलना में कम है. उदाहरण के लिए, बीजेपी को लगा कि अकाली दल की सीटों पर हिंदू मतदाता AAP या कांग्रेस की ओर जा सकते हैं, जबकि अकालियों को बीजेपी सीटों पर सिख मतदाताओं के बारे में भी ऐसा ही लगा. दरअसल, बीजेपी को अब उम्मीद होगी कि अकाली दल लुधियाना, होशियारपुर, गुरसासपुर और अमृतसर जैसी सीटों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराए, जिससे बीजेपी विरोधी ग्रामीण वोट बंट जाए.

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रवनीत बिट्टू का बीजेपी में आना कितना अहम?

रवनीत सिंह बिट्टू कांग्रेस से तीन बार सांसद रह चुके हैं. उन्होंने 2009 का लोकसभा चुनाव आनंदपुर साहिब से जीता और 2014 और 2019 में उन्होंने लुधियाना से जीत हासिल की.

वह पूर्व सीएम बेअंत सिंह के पोते हैं, जो पंजाब की राजनीति में विवादों में रहे. 1992 से 1995 तक उनका कार्यकाल कुछ सबसे खराब मानवाधिकारों के हनन, एनकाउंटर में हत्याओं, जबरन गायब होने और पुलिस अत्याचारों से जुड़ा था. इससे उन्हें कई सिखों के बीच 'बेअंत बुचर' उपनाम मिला.

वहीं दूसरी ओर, बेअंत सिंह पंजाबी हिंदुओं के बीच एक गौरवशाली व्यक्ति हैं, जिनमें से कई लोग कहते हैं कि उन्होंने "पंजाब को खालिस्तान उग्रवाद से बचाया".

Punjab Politics: अकाली दल और बीजेपी के बीच ऐसा क्या हुआ कि गठबंधन फिर से नहीं हो सका?

रवनीत सिंह बिट्टू ने सुरक्षा संबंधी मुद्दों पर सख्त रुख अपनाकर अपने परिवार के राजनीतिक दृष्टिकोण को आगे बढ़ाया है.

बिट्टू लुधियाना शहर के हिंदू व्यापारियों के बीच लोकप्रिय हैं और इससे बीजेपी को वोट मजबूत करने में मदद मिलेगी. अगर बिट्टू कांग्रेस में बने रहते, तो वह बीजेपी को उस वोट को अपने पाले में मजबूत करने से रोकते.

हालांकि, सिख मतदाताओं के बीच, विशेष रूप से लुधियाना के गिल, दाखा और जगराओं जैसे अर्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में, बिट्टू लगभग पूरी तरह से कांग्रेस के वफादार वोट बैंक पर निर्भर थे.

अब बीजेपी उम्मीदवार के रूप में, उनके तीन ग्रामीण क्षेत्रों में खराब प्रदर्शन करने की संभावना है क्योंकि पार्टी को अभी भी गांवों में बहुत नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता है, खासकर कृषि कानूनों के बाद.

लुधियाना सीट पर कड़ा मुकाबला होगा. बिट्टू ने 2014 में सिर्फ दो परसेंट वोट और 2019 में सात परसेंट से जीत हासिल की थी.

अगर बीजेपी को बैंस बंधुओं के नेतृत्व वाली लोक इंसाफ पार्टी (LIP) का समर्थन भी मिल जाए, फिर भी यह जीत की गारंटी देने के लिए पर्याप्त नहीं होगा, खासकर पिछले कुछ वर्षों में LIP के कमजोर होने के कारण. बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि AAP और कांग्रेस इस सीट पर किसे मैदान में उतारते हैं और क्या अकाली दल अपने दाखा विधायक मनप्रीत अयाली को मैदान में उतारता है, जिनका ग्रामीण इलाकों में मजबूत आधार है.

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पंजाब में बीजेपी और अकाली दल के लिए आगे की राह कैसी है?

बीजेपी

लुधियाना में नतीजे चाहे जो कुछ भी हो, बिट्टू के आने से पंजाब में बीजेपी की मूलभूत समस्या - सिख मतदाताओं के बीच अविश्वास और दलित मतदाताओं के बीच आकर्षण की कमी - का समाधान नहीं मिलता है.

दरअसल, बिट्टू की एंट्री से बीजेपी और सिखों के बीच दूरियां और भी बढ़ने की संभावना है.

लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए समस्या यह है कि पंजाब में एक भी लोकसभा सीट ऐसी नहीं है जिसे वह पूरी तरह से हिंदू एकजुटता के आधार पर जीत सके.

बीजेपी के लिए एक और खतरा है. पंजाब हिंदी पट्टी की तरह ध्रुवीकृत राज्य नहीं है. त्रिकोणीय मुकाबले में किसी भी पार्टी के लिए किसी एक समुदाय के 50 फीसदी से ज्यादा वोटों को एकजुट करना मुश्किल होता है.

इसलिए, बीजेपी अन्य राज्यों में जिस तरह की हिंदू वोटों को एकजुट कर लेती है, उसे पंजाब में हासिल करना मुश्किल हो सकता है. वास्तव में, जिन सीटों पर बीजेपी ऐसी विकल्प लगती है जिसके जीतने की संभावना एकदम नहीं है, वहां हिंदू मतदाता उम्मीदवार के आधार पर AAP या कांग्रेस की ओर जा सकते हैं.

शिरोमणि अकाली दल

यह अकाली दल और सुखबीर बादल के लिए बनने या बिगड़ने वाला चुनाव होगा. पार्टी के संरक्षक प्रकाश सिंह बादल की मृत्यु के बाद यह पहला चुनाव है जो पार्टी लड़ रही है और 25 वर्षों में बीजेपी संग गठबंधन के बिना पहला लोकसभा चुनाव है.

सुखदेव ढींढसा और उनसे अलग हुए गुट को पार्टी में वापस लाकर सुखबीर बादल अकाली गुटों को एकजुट करने में कामयाब रहे हैं. पार्टी मुख्य रूप से सभी ग्रामीण सिख बहुल सीटों पर ध्यान केंद्रित कर सकती है.

पूरी संभावना है कि सुखबीर बादल और हरसिमरत कौर अपनी सीटों फिरोजपुर और बठिंडा से चुनाव लड़ेंगे जबकि बिक्रम सिंह मजीठिया के खडूर साहिब से चुनाव लड़ने की संभावना है. ये चुनाव में अकाली दल की हॉट सीटें हैं.

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