फरवरी में पेश होने वाला भारत का केंद्रीय बजट (Union Budget) अधिकांश आर्थिक और राजनीतिक टिप्पणीकारों के लिए खास निगरानी वाला दिन बन गया है. यह ऐसा दौर होता है जब सरकार या तो पिछले साल के वित्तीय अंकगणित की कुछ 'गलतियों' को ठीक करने की कोशिश कर रही होती है, या फिर वोट जुगाड़ने के लिए चुनावी राज्यों की जनता को 'लुभावने सपने' दिखाने का काम करती है. इन दोनों ही मामलों में 'क्या वादा किया गया है' और 'क्या दिया गया है' के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर हाेता है.
उदाहरण के लिए, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पिछले साल जब सरकार-सक्षम पूंजीगत व्यय में वृद्धि के जरिए 'एनिमल स्प्रिरिट्स' को पुनर्जीवित करने और सभी क्षेत्रों में आर्थिक सुधार सुनिश्चित करने की आशा के साथ बजट पेश किया गया तब उसमें किकस्टार्ट (घरेलू) निजी निवेश के लिए सरकार की दीर्घकालिक योजना के लिए एक आशावादी 'प्रो-ग्रोथ' विजन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया था.
मोदी सरकार की वित्तीय प्राथमिकताओं में कहां कमी रह जाती है?
साल-दर-साल के वृद्धि दर के रुझानों पर सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के हालिया आंकड़ों के मुताबिक 2021 में मैन्यूफैक्चरिंग और खनन गतिविधियों में कुछ सकारात्मक प्रदर्शन देखने को मिला है. लेकिन व्यापक तस्वीर अभी भी धुंधली दिखाई दे रही है. विशेष रूप से कृषि, औद्योगिक उत्पादन और सेवाओं के क्षेत्र में. और अब, COVID-19 संक्रमण की तीसरी लहर के साथ, इन सभी क्षेत्रों के प्रदर्शन पर आने वाली तिमाहियों में और अधिक प्रतिकूल असर पड़ने की संभावना है.
आगे की बात करें तो साल-दर-साल ग्रोथ यानी विकास के मूल्यांकन पर ध्यान केंद्रित करना भी महत्वपूर्ण है.
हालांकि, जहां देश की भयावह बेरोजगारी-अल्परोजगार समस्या और चुनौतियों की बात आती है, वहां हाल के केंद्रीय बजटों के आधार पर मोदी सरकार की वित्तीय प्राथमिकताओं में चूक या कमी को लगातार देखा जा सकता है.
यह उन क्षेत्रों में कम सामाजिक खर्च के संकट में भी फंस गया है, जो निम्न-मध्यम वर्ग के श्रमिकों के लिए एक ठोस सुरक्षा जाल बनाने में मदद कर सकता है. कमजोर तबके के ऐसे लोगों के हाथों में अधिक पैसा देने की आवश्यकता है जो महामारी से सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं.
इसके अलावा, भारत को व्यापक आर्थिक परिदृश्य को 'बड़ी' पूंजी और छोटे उद्यमों के बीच गंभीर रूप से असमान बचत-निवेश संबंधों के कारण कम खपत की मांग के liquidity trap या keynesian trap का सामना करना पड़ता है, जो महामारी के दौरान बढ़ गया था.
दुर्भाग्य से, बजट भाषण इन मुद्दों खासकर बेरोजगारी को स्वीकार करने में भी विफल रहे हैं.
सही मूल्यांकन करना
हमें सही मूल्यांकन की भी अवश्यकता है. महेश व्यास ने हाल ही में बताया कि "बेरोजगारी दर भारत का सबसे महत्वपूर्ण श्रम बाजार संकेतक नहीं है. बेरोजगारी दर दिसंबर 2021 में 7.9 प्रतिशत थी. इसका मतलब यह नहीं है कि बचे हुए 92.1 फीसदी लोगों के पास रोजगार या काम था. वहीं इसका मलतब यह भी नहीं है कि सभी कामकाजी उम्र के 92.1 प्रतिशत लोग कार्यरत थे. व्यास यहां पर सही हैं.
भारत के असंबद्ध श्रम बाजार ढांचे के साथ कई कठिनाइयों में से एक यह है कि अधिकांश व्यक्ति वेतन या मुनाफे के लिए काम करने की स्पष्ट इच्छा प्रदर्शित नहीं करते हैं. नतीजतन, समस्या की व्याख्या और शोध में पारंपरिक मैट्रिक्स कम उपयोगी होते हैं.
रोजगार-जनसंख्या अनुपात, जो कुल कामकाजी उम्र की आबादी में नियोजित लोगों के अनुपात को मापता है, वह एक अधिक सहायक संकेतक बन जाता है.
विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 2020 में महामारी से पहले भारत का रोजगार-जनसंख्या अनुपात 43% था जोकि वैश्विक दर (55%) से कम था. बांग्लादेश में इम्प्लॉयमेंट रेट यानी कि रोजगार दर 53% है वहीं चीन में यह लगभग 63% है. जबकि सीएमआईई के अनुमान के अनुसार, भारत की रोजगार-जनसंख्या दर 38% से कम है.
लंबे समय से है गुणवत्तापूर्ण नौकरी का संकट
यह दर्शाता है कि जहां एक ओर भारत में लेबर फोर्स यानी श्रम बल में प्रवेश करने वाली कामकाजी उम्र की आबादी हर साल बढ़ती जा रही है, वहीं दूसरी ओर इस वर्ग की आबादी में 'अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियों' का संकट लंबे समय से बना हुआ है. Covid-19 महामारी के दौरान भी श्रम बल की ओर जाने की दर काफी तेज रही है.
इसके साथ ही इसी समय 2021 की दूसरी छमाही में कुछ आर्थिक गतिविधियों के पुनरुद्धार के बावजूद, मनरेगा कार्य की मांग ग्रामीण भारत में उच्च बनी हुई है. बता दें कि मनरेगा को सुरक्षा जाल के एक बैकअप विकल्प के रूप में देखा जाता है. लेकिन मनरेगा के अपर्याप्त बजट के कारण राज्यों के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में उन लोगों को पर्याप्त रोजगार प्रदान करना मुश्किल हो रहा है, जिनके पास रोजगार के बहुत कम या कोई अन्य विकल्प नहीं है.
जब आवंटन व्यय की बात आती है तब वित्त मंत्री और मोदी सरकार को अपनी प्राथमिकताओं को ठीक करने की आवश्यकता होगी. नतीजतन, आगामी बजट का फोकस दो बातों पर होना चाहिए :
पहला यह कि सभी क्षेत्रों में प्रोत्साहन के माध्यम से अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियां पैदा करने के लिए हमारी राजकोषीय नीति की डिजाइन पर ध्यान केंद्रित करते हुए नीति निर्माण करें और ये योजना या नीति तीन से पांच वर्षीय हो.
दूसरी बात यह है कि, ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के लिए बढ़े हुए खर्च का समर्थन करके अच्छी तरह से वित्तपोषित नौकरी-आधारित सामाजिक सुरक्षा जाल बुनना और ग्रामीण-शहरी दोनों क्षेत्रों में रोजगार की तलाश में संघर्ष कर रहे व्यक्तियों को अस्थायी सहायता प्रदान करने के लिए शहरों में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना का शहरी संस्करण तैयार करना.
'जाे बदलाव हम चाहते हैं' उसका भुगतान कैसे किया जाएगा?
मजबूत टैक्स कलेक्शन के कारण इस साल के लिए टैक्स-जीडीपी अनुपात (tax-GDP ratio) बेहतर दिख रहा रहा है. भले ही विनिवेश लक्ष्य प्राप्त न हुए हों. लेकिन फिर भी आशावादी टैक्स-जीडीपी अनुपात के कारण केंद्र सरकार अपनी 'पुनर्वितरण क्षमता' (‘redistributive capabilities’) में सुधार के लिए प्रोत्साहित होगी.
वित्त मंत्री के पास इस तरह के प्रस्ताव होंगे :
पुनर्वितरण और राजकोषीय खर्च क्षमता बढ़ाने के लिए अति-समृद्ध उपभोक्ता वर्ग पर 'कोविड उपभोग कर' (‘COVID consumption tax’) लगाने पर विचार;
रोजगार सृजन के लिए उच्च टैक्स-जीडीपी वसूली से प्राप्त आय के साथ इन अतिरिक्त संसाधनों का उपयोग करें (शहरी-आधारित रोजगार गारंटी योजना के रूप में एक स्वचालित स्टेबलाइजर रोजगार सृजन योजना बनाएं).
कृषि, पोषण और स्वास्थ्य संबंधी सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के लिए बजट (पैसों) में वृद्धि करना.
एक टैक्स अत्यधिक अमीरों के लिए
अमीरों के लिए 'COVID कंजम्शन टैक्स' (‘COVID consumption tax or cess’) के विचार पर पहले ही चर्चा की जा चुकी है. अगर जरूरी हो, तो उच्च आय वर्ग (शीर्ष 5% से 10%) के लिए consumption tax को पहले '‘COVID consumption tax' के रूप में पेश किया जा सकता है.
यह कैसे कार्य करेगा?
'consumption tax' (या एक उपकर) 'खपत' (कंजप्शन) पर लगाया गया कर है. यह भुगतान करने की क्षमता के किसी अन्य उपाय, जैसे 'आय' के बजाय 'उपभोग' या खपत (कंजप्शन) पर लगाया जाने वाला कर है.
जैसा कि पहले इस बात का उल्लेख किया गया है कि, भारत में विभिन्न प्रकार की असमानताओं की पहचान और विश्लेषण करने के लिए उपभोग-आधारित सर्वे (यहां तक कि घरेलू स्तर पर भी) और उनके भीतर पाए जाने वाले रुझानों के आंकड़ों को एक प्रमुख विधि के रूप में देखा जाता है. इस प्रकार यह नीति निर्माताओं को 'उपभोग कर' पर विचार करने के लिए एक अच्छा आधार प्रदान कर सकता है, जो धीरे-धीरे उच्च उपभोक्ता-उत्पादकों से आय अर्जित करता है.
खपत या कंजप्शन को मापना आसान है
वास्तव में 'खपत' या उपभोग (कंजप्शन) को 'आय' की तुलना में मापना भी कहीं अधिक आसान है. और बचत और निवेश (इंवेस्टमेंट) को प्रोत्साहित करने से प्राप्त गतिशील दक्षता बहुत अधिक हो सकती है. जिन देशों में उपभोग-आधारित डेटा (consumption-based data) और इसके स्रोत कमजोर होते हैं उन देशों में अक्सर इस तरह की प्रणाली लागू करने में चरण दर चरण कठिनाईयां देखने को मिलती हैं.
अगर हम भारत की बात करें तो यहां तुलनात्मक रूप से अधिक मजबूत खपत-आधारित घरेलू डेटा (consumption-based household data) है जो ट्रांजिशनल लागत को कम करता है. शुरुआत के लिए एक श्रेणीबद्ध कार्यान्वयन चक्र में, कोई कम से कम मौजूदा आय करों (income taxes) के साथ-साथ एक मार्जिनल कंजप्शन या स्पेंडिंग टैक्स (मार्जिनल खपत या व्यय कर) लगाने पर विचार कर सकता है, जिसे समय के साथ समाप्त किया जा सकता है.
व्यापक रूप से तीन से पांच साल के एजेंडे के माध्यम से अपनी मैक्रो-वित्तीय, आर्थिक कार्य योजना में 'स्पष्टता' स्थापित करने की सरकार की क्षमता, भारत की नौकरियों की समस्या को दूर करने में आगामी केंद्रीय बजट के महत्व को निर्धारित करेगी और यह एजेंडा अपनी दृष्टि और रणनीति में सुसंगत होना चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि भारत की आर्थिक सुधार न केवल शीर्ष 10% की भलाई पर केंद्रित है, बल्कि यह अपनी प्रकृति में अधिक समावेशी, न्यायसंगत और टिकाऊ भी है.
(लेखक ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के इकोनॉमिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वे वर्तमान में कार्लटन यूनिवर्सिटी के इकोनॉमिक डिपार्टमेंट में विजिटिंग प्रोफेसर हैं. वे @Deepanshu_1810 से ट्वीट से करते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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