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दहेज हत्या: शादी बचाने के लिए, अपनी बेटी की बलि न चढ़ाएं

बेटी को दहेज के लिए किया जा रहा परेशान तो उसके माता-पिता क्या करें?

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केरल में 24 साल की विस्मया नायर अपने ससुराल में मृत अवस्था में पाई गईं. ये आत्महत्या है या मर्डर है, इसकी जांच पुलिस कर रही है. लेकिन कुछ बातों से ये तो साफ है कि ससुराल में विस्मया के साथ हिंसा हो रही थी. फिलहाल विस्मया के पति किरण कुमार को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. विस्मया की शादी किरण कुमार से मई 2020 में हुई थी. किरण कुमार असिस्टेन्ट मोटर व्हीकल इंस्पेक्टर है. विस्मया के परिवार का कहना है कि उनकी बेटी को दहेज के लिए प्रताड़ित किया जा रहा था.

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केरल भारत का सबसे शिक्षित प्रदेश है. विस्मया खुद बी.ए.एम.एस की स्टूडेंट थी. एक शिक्षित प्रदेश में इस तरह की घटना ने बड़े सवाल खडे किए हैं. घटना से कुछ समय पहले ही विक्टिम ने अपने शरीर पर लगे चोट के निशानों वाली तस्वीरें अपने रिश्तेदार को भेजी थी. इससे पहले भी घरेलू हिंसा की कई घटनाएं विस्मया के साथ हो चुकी थीं, जिसके कारण विक्टिम अपने मायके में रह रही थी.

'विस्मया आत्महत्या नहीं कर सकती'

विस्मया के भाई का कहना है कि- “मेरी बहन स्कूल में एनसीसी में जूनियर अंडर ऑफिसर थी. वह एक डॉक्टर बनने के लिए पढ़ रही थी. वह आत्महत्या नहीं कर सकती.”

आईजी हर्षिता अटालुरी ने एक टीवी चैनल से बातचीत में कहा कि- “यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि युवा लड़कियां जरूरत पड़ने पर स्टैंड लेने या मदद मांगने में सक्षम नहीं हैं. घरेलू हिंसा से पीड़ित 90% लोग जो हमारे पास आते हैं, वे मामला दर्ज नहीं करना चाहते हैं. वे सिर्फ हमलावरों को चेतावनी देना चाहते हैं. युवा लड़कियों को पता होना चाहिए, जब उन पर हमला किया गया है, तो रेखा पार कर दी गई है. अपने आप का, अपने शरीर का सम्मान करें”. यहां अटालूरी की बात बहुत महत्वपूर्ण है.

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घरेलू हिंसा पर कानून

मुख्य रूप से दो कानून ऐसे हैं जो खास तौर पर ऐसे ही मामलों के लिए बनाए गए हैं. इन कानूनों की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि भारतीय दंड संहिता की धाराओं को इन मामलों से निपटने में सक्षम नहीं माना गया. इसमें पहला कानून है घरेलू हिंसा अधिनियम 2005. इसके तहत घरेलू हिंसा की व्यापक परिभाषा निर्धारित की गई है और महिलाओं को संरक्षण प्रदान किया गया है. शारीरिक, यौन, मौखिक या मनोवैज्ञानिक तथा आर्थिक (दहेज) उत्पीड़न इस कानून के दायरे में हैं. इसके तहत पीड़ित पक्ष को मुआवजा दिए जाने का प्रावधान है. पीड़िता को ये अधिकार है कि वह चाहे तो पति के घर में बने रह सकती है.

दहेज निरोधक कानून की भी घरेलू हिंसा रोकने में प्रमुख भूमिका हो सकती है. यह कानून स्पष्ट रूप से दहेज संबंधी मामलों के लिए बनाया गया है. दहेज मांगने वाले को इस कानून के तहत कम से कम छह महीने की सजा का प्रावधान है. जबकि दहेज लेने या देने के लिए पांच साल की सजा है.
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लड़की और उसके परिवार की भूमिका

सवाल ये है कि दहेज के कारण या ससुराल में अन्य किसी कारण से प्रताड़ित की जा रही लड़कियों के परिवार क्या भूमिका निभा सकते हैं? ये तो तय मान लीजिए कि किसी भी लड़की के साथ एक के बाद एक घटनाएं होती है, जो कि किसी बड़ी घटना में बदलती है. ऐसा होने की बहुत कम गुंजाइश है कि पहली बार ही लड़की के साथ ससुराल में हिंसा हुई हो या एक बार ही दहेज की मांग हुई हो, और पूरा न होने पर सीधा लड़की को मार दिया गया हो.

जाहिर है कि कई घटनाओं के बाद ही ऐसी किसी बड़ी घटना को अंजाम देने तक कोई पति या ससुराल पक्ष पहुंचता होगा. यानी जो चेन बनती है, एक के बाद, दूसरी हिंसा की घटना की, अगर उस चेन को तोड़ा जा सकता हो तो, लड़की की जान बचाई जा सकती है.
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'लड़कियां ऐसी घटनाओं को छुपाएं ना'

इसके लिए जरूरी है कि लड़कियां ससुराल में हो रही ऐसी घटनाओं को परिवार से ना छुपाये. कई बार लड़कियां सोचती है कि पति के साथ झगड़े या मारपीट की बात मायके वालों को बताकर, उन्हें भी परेशान क्यों करूं. कई मामलों में ये देखा गया कि मायके वालों को जब अपनी बेटी के साथ हो रही हिंसा का तब पता चलता है, जब बात बहुत बिगड़ चुकी होती है. अक्सर दोनों परिवारों के बीच (ससुराल और मायके) के झगड़े के डर से भी लड़कियां पति या ससुराल का टॉर्चर लंबे समय तक सहती रहती है.

जैसा हर्षिता अटालूरी का कहना है कि ये बेहद जरूरी है कि लड़कियां एक रेखा खींचे, एक लिमिट तय करें कि इससे ज्यादा नहीं सहना है. जैसे किसी दिन अगर वर्बल वायलेंस से चीजें, फिजिकल वायलेंस पर चली जाए तो ये लड़कियों को उससे आगे पति के साथ या ससुराल में नहीं रहना चाहिए, और अगर जरूरत लगे तो कानूनी कार्यवाही की ओर जाए.

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'अपनी बेटी को बलि न चढ़ाएं'

अब बात आती है परिवार की. लड़की के परिवार वाले अक्सर देर से जान पाते हैं कि ससुराल पक्ष या पति क्या हिंसा कर रहे हैं. लेकिन जब भी पता चलता है कि उनकी बेटी को प्रताड़ित किया जा रहा है तो परिवार को खुलकर स्टैंड लेने की जरूरत है. बेटी को ससुराल न भेजकर, जरूरत अनुसार कानूनी कार्यवाही का सहारा लिया जाना चाहिए. कई मामलों में देखा गया है कि हिंसा की घटना के बाद, आपस में लड़के लड़की के परिवार वाले बातें करते हैं और बातचीत के आश्वासन के बाद, लड़की ससुराल भेज दी जाती है. और कुछ समय बाद, वही हिंसा की घटनाएं रिपीट होने लगती हैं. इस स्टेज पर परिवार को ये समझना ये जरूरी है कि शादी बचाने के लिए, वे अपनी बेटी को बलि न चढ़ाएं. अगर मर्डर की आशंका नहीं भी है, तो भी बेटी को ऐसे ससुराल में क्यों भेजा जाएं जहां उसके साथ बार-बार हिंसा हो रही है.

चूंकि भारत में आज भी अरेंज्ड मैरिज ही ज्यादा होती हैं, इसलिए शादी में परिवार की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. लड़कियां इंडिपेंड ये डिसीजन ले सकें कि वो ससुराल नहीं जाएंगी, ऐसा बहुत ही कम होता है. लड़की के परिवार को हर हाल में ये समझना होगा कि शादी के लिए किसी भी लड़की का जीवन का दांव पर नहीं लगाया जा सकता. ये समझिए कि शादी की अहमियत ओवर ऑल इस तरह से समझनी चाहिए कि अच्छे से चले तो ठीक, वरना ये लड़की पक्ष की ओर से भी, कभी भी तोड़ी जा सकती है.

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यहां ये बात इसलिए बतानी जरूरी है कि भारतीय कोर्ट्स में ज्यादातर तलाक के मामले पति की ओर से फाइल किये जाते है. यानी जिस समाज में पुरुष वायलेंस भी करता है और आगे बढ़कर तलाक भी फाइल करता है, उस देश में लड़कियों के परिवारों को इतना तो तैयार होना पड़ेगा कि अगर लड़की को ससुराल में तंग किया जा रहा है तो वे तलाक की ओर बढ़ सकें.

मतलब साफ है कि शादी को सात जन्मों का बंधन न समझें. बेटियों को ये समझाया जाना चाहिए कि उसकी विदाई, जीवन भर की विदाई नहीं है. शादी में किसी भी तरह की समस्या हो, मायका उसका अपना घर है जहां वो कभी भी आकर, कितने भी समय के लिए रह सकती है. शादी करने से वो पराई नहीं हो गई है.

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समाज की भूमिका

रिश्तेदार, पड़ोसी हो या गांवों की पंचायतें, अक्सर देखा गया है कि लोग मिल-बैठकर बात को सुलझाने की कोशिश करते हैं. कानूनी कार्यवाही के रास्ते आगे बढ़ने की सलाह खासतौर से इन पक्षों की तरफ से नहीं दी जाती है. कानूनी रास्ता काफी मुश्किलों भरा और खर्चीला भी होता है. इस चक्कर में बार-बार हिंसा होने के बाद भी लड़की पर ये दबाव बनाया जाता है कि एक बार और ट्राय करे ससुराल में जाकर रहने की कोशिश करे. और फिर इस तरह घटनाओं की वो चेन बनती चली जाती है जिसको ऊपर तोड़ने की बात कही गई है.

इसलिए ये जरूरी है कि समाज, परिवार ये बात समझे कि शादी से ज्यादा अहमियत लड़कियों की है.

(लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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