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केरल सुसाइड केस: भारतीय घरों में महिलाओं को क्या मार रहा है? 

दुनियाभर में 15-39 साल के बीच की जितनी औरतों की मौत सुसाइड से होती है, उनमें से 40% भारतीय हैं

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यह 2017 का मामला है. मेरठ में पांच साल की एक बच्ची ने अपनी मां के मौत की जांच के लिए आईजी दफ्तर को अपना पिगी बैंक ऑफर किया था. उसकी मां की मौत सुसाइड (Suicide) से हुई थी. पिता पर दहेज उत्पीड़न का आरोप था. इस घटना के बाद पुलिस वालों का दिल पसीज गया था. बच्ची ने आईजी से कहा था कि सब कहते हैं कि पैसे के बिना कुछ नहीं होता. डेक्कन क्रॉनिकल अखबार ने इसे भ्रष्टाचार के चेहरे पर एक तमाचा बताया था.

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लेकिन ये वीभत्स था. केरल की 24 साल की विस्मया नायर के सुसाइड की ही तरह. दहेज और घरेलू हिंसा हाउसवाइव्स (जिसे ग्लोरिफाई करने के लिए लोग होम मेकर कह दिया करते हैं) की मौत का बड़ा कारण होता है. सुसाइड पर लान्सेट पब्लिक हेल्थ स्टडी कह चुकी है कि दुनिया भर में 15-39 साल के बीच की जितनी औरतों की मौत सुसाइड से होती है, उनमें से 40% भारतीय हैं, और उनमें से ज्यादातर शादीशुदा होती हैं.

आंकड़े सवाल खड़े करते हैं

ये आंकड़े डराने वाले हैं और सवाल उठाने वाले भी. भारत में 2018 में दिहाड़ी मजदूरों के सुसाइड नंबर्स सबसे ज्यादा हैं. इसके बाद हाउसवाइव्स के आंकड़े आते हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट कहती है कि सुसाइड से 17.1% मौतें हाउसवाइव्स की होती हैं. ये हालिया आंकड़े हैं. 2018 में 22,937 हाउसवाइव्स की मौत सुसाइड से हुई जोकि सुसाइड से मरने वाले किसानों की संख्या से दोगुना है. मकसद आत्महत्या के आंकड़ों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करना नहीं, इस सवाल से उलझना है कि क्या हाउसवाइव्स की जिंदगी और मौत का सवाल एक समाज के रूप में हमारे लिए बेमानी होता जा रहा है.

इस पर भी एक्सपर्ट्स का कहना है कि सुसाइड्स से औरतों की मौतें अंडररिपोर्टेड हैं. महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले विमोचना जैसे एनजीओ की डोना फर्नांडीस ने एक रिपोर्ट में कहा था कि महिलाओं के सुसाइड्स के कम से कम 50% मामले दहेज से संबंधित हो सकते हैं. उन सबको रिपोर्ट नहीं किया जाता, क्योंकि लड़कियों के माता-पिता खुद दहेज देते हैं और दहेज देना भी एक अपराध ही है.

कई बार दहेज के कारण होने वाली मौतों की रिपोर्ट सुसाइड के तौर पर नहीं, दुर्घटना से मौतों के तौर पर दर्ज कराई जाती हैं. जैसे जलना, बाथरूम में फिसलकर गिर जाना. 2016 में सेंटर फॉर इन्कवायरी इनटू हेल्थ एंड एलाइड थीम्स और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ ने एक स्टडी की थी- बस्टिंग द किचन एक्सिडेंट मिथ: केस ऑफ बर्न इंजरीज इन इंडिया. इसमें 22 मामलों का विश्लेषण किया गया था. इनमें से 19 मामलों में औरतें घरेलू हिंसा की शिकार थीं.
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सुप्रीम कोर्ट को क्यों याद दिलाना पड़ा था कि बहू आपके परिवार का हिस्सा है

विस्मया सिर्फ एक गृहिणी नहीं थी. वह मेडिकल स्टूडेंट थी. उसकी मौत से एहसास होता है कि उसके जो सामने था, उसके आवरण को चीरकर आगे झांक पाने का साहस उसमें नहीं बचा था. ऐसा अनगिनत औरतों के साथ होता है. सुसाइड से मौतों पर लान्सेट का पेपर लिखने वाली रेखा दंधोना ने कहा था कि इस आयु वर्ग की औरतों पर शादीशुदा जिंदगी का दबाव बहुत होता है. हार्वर्ड टीएच चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के ग्लोबल हेल्थ एंड पॉपुलेशन विभाग के प्रोफेसर डॉ. विक्रम पटेल ने एक इंटव्यू में कहा था कि शादियों में सामाजिक भूमिकाओं से जुड़ी अपेक्षाओं में बदलाव हो रहा है.

ससुरालियों का कम पढ़ा लिखा होना, और बहुओं का बेहतर शिक्षित होना- तनाव बढ़ा रहा है. शादीशुदा लड़कियों पर ससुरालियों का दबाव क्या होता है, इसे 2017 में सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी से समझा जा सकता है. विस्मया जैसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पति को सात साल जेल की सजा सुनाई थी और कहा था कि बहुओं को परिवार के सदस्यों की तरह समझिए, हाउसमेड्स की तरह नहीं. यूं हाउसमेड्स, यानी घरेलू कामगारों के साथ भी हमारा व्यवहार हिंसक नहीं होना चाहिए.

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औरतें ज्यादा डिप्रेशन की शिकार

2018 के एनसीआरबी डेटा के हिसाब से भारत में हर दिन दहेज के कारण करीब 20 मौतें, दहेज के 35 मामले और पत्नी से क्रूरता के 283 मामले दर्ज होते हैं. यूं भी हमारे समाज में पुरुषों की आवाज जरूरत से ज्यादा सुनी जाती है, और औरतों की आवाज अनसुनी की जाती है. मार-पिटाई में हर्ज भी क्या है?

ऑक्सफैम इंडिया के 2018 के सर्वे में 33% लोगों ने यह माना था कि अगर औरत घर परिवार की देखभाल ठीक से न करे, तो उस पर हाथ उठाना कोई गलत बात नहीं है. जबरदस्ती शादी, बच्चे पैदा न कर पाना, घरेलू हिंसा, पति की बेवफाई, दहेज की मांग, काम या पढ़ाई न कर पाना, इस सबके चलते औरतें जबरदस्त तनाव में आ जाती हैं, और कई बार अपनी जान ले लेती हैं.

लान्सेट साइकैट्री की रिपोर्ट कहती है कि भारत में पुरुषों से ज्यादा औरतें डिप्रेशन और एन्जाइटी डिसऑर्डर की शिकार हैं और उनके मुकाबले डिप्रेशन के साथ जिंदगी जाने वाली औरतें सुसाइड से मौत का रास्ता ज्यादा अपनाती हैं.

वैसे सुसाइड से मौत का कारण सिर्फ सामाजिक ही नहीं होता. बेंगलुरू स्थित द माइंड रिसर्च फाउंडेशन की साइकोलॉजिस्ट देबदत्त मित्रा ने एक पेपर में इसे बायोलॉजिकल भी बताया था. यंग औरतों में प्रीमेंस्ट्रुअल डायस्फोरिक डिसऑर्डर या पोस्टपार्टम डिप्रेशन बहुत सामान्य है. पुरुषों में प्रोजेस्ट्रॉन स्ट्रेस लेवल को बढ़ने से रोकता है, पर औरतों के साथ ऐसा नहीं होता. फिर हमारे यहां डिप्रेशन को समस्या माना ही नहीं जाता, इसलिए औरतें प्रोफेशनल हेल्प भी नहीं लेना चाहतीं.

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शादी नाम की संस्था की नींव में ही गैर बराबरी मौजूद है

फिर भी शादीशुदा जिंदगी के तनाव का अक्सर औरतों को ही शिकार होना पड़ता है. जैसा विस्मया के साथ हुआ. पिता ने 100 सोवरिन गोल्ड दहेज में दिया. सोवरिन मतलब सोने का सिक्का जोकि करीब 8 ग्राम का होता है. आप सोने के 10 ग्राम के दाम से अंदाजा लगा सकते हैं कि कुल कितना खर्चा हुआ होगा. करीब 40 लाख रुपए. उस पर 11 लाख की कार. फिर एक एकड़ से ज्यादा की जमीन. करोड़ के आस-पास का तो दहेज ही हुआ. फिर भी विस्मया की तकलीफ बढ़ती गई. दहेज से तकलीफ कम भी कैसे होती?

यही वजह है कि अब लोग शादी की वैधता पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं. ब्रिटिश नॉवेलिस्ट मार्गेट हंट ने शादियां को ‘प्रॉपर्टी, व्यवसाय, दौलत, मवेशियों और औरतों को दूसरों को सौपने का जरिया’ बताया था. फिर मैरिज, अ हिस्ट्री जैसी किताब लिखने वाली अमेरिकी इतिहासकार स्टेफिनी कून्ट्ज ने इसी बात को आगे बढ़ाया और अपनी किताब में लिखा कि दौलतमंद लोगों के लिए शादियां राजनैतिक सत्ता हासिल करने का भी जरिया बनीं.

कई बार शांति संधियां भी शादियों के जरिए की गईं. हेट्रोसेक्सुअल शादियों में आदमियों को औरत के साथ आने वाली नकदी और जमीन का फायदा होता था, और औरतों को आर्थिक सुरक्षा मिलती थी- चूंकि उन्हें परंपरागत रूप से घर के बाहर काम करने की इजाजत नहीं थी. कून्ट्ज का कहना है कि लोग शादी करें, इसकी वजह प्यार तो बहुत कम ही रहा है. शादी का मतलब लेनदेन ही था. और फिर घर के भीतर श्रम का सख्त विभाजन.

भारत के ज्यादातर हिस्सों में मौजूदा सच्चाई इससे बहुत अलग नहीं है. औरतें पिता के घरों से पति के घरों में ट्रांसफर कर दी जाती हैं. इसीलिए प्रॉपर्टी की तरह मानी जाती हैं. तो शादी का मकसद तो लेनदेन से आगे बढ़कर प्यार तक पहुंच गया है, लेकिन जेंडर रोल्स में अब भी बदलाव नहीं हुए हैं. यहां तक कि उनकी नींव अब भी पितृसत्ता में जमी हुई हैं.

जिन शादियों को हम फेमिनिस्ट कह सकते हैं, उनमें भी मेंटल लेबर का जिम्मा औरतों का ही होता है.

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न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी ने फेमिनिस्ट हेट्रोसेक्सुअल मैरिज पर एक स्टडी की. इस स्टडी के अनुसार, कपल्स कई तरह से दर्शाते हैं कि उनकी शादी बराबरी पर आधारित है. वे जेंडर के आधार पर अन्याय का विरोध करते हैं. अपना लास्ट नेम बरकरार रखते हैं. वित्तीय फैसले खुद लेते हैं. लेकिन बच्चों की देखभाल और हाउसवर्क का जिम्मा फिर भी औरतों का ही होता है. इमोशनल इंवॉल्वमेंट भी औरतों का ज्यादा होता है. इससे परिवार में श्रम का परंपरागत विभाजन बना रहता है. यानी आप कितने भी स्त्रीवादी हों, कथनी और करनी में फर्क होता ही है.

शादियों में सच्ची समानता संभव भी नहीं है. ताकत का असमान बंटवारा वहां मौजूद रहता ही है. विस्मया के मामले में यह और बदसूरत बन गया था. औरतों के साथ हिंसा, क्रूरता भले ही रोजमर्रापन में शामिल हो जाएं, इतनी इंसानियत तो होनी ही चाहिए कि हम इसे सामान्य मानने से इनकार करते रहें. अगर विस्मया के साथ पुलिस पहले भी खड़ी होती, उसके साथ इंसाफ की प्रक्रिया शुरू करती तो वह बच सकती थी. चूंकि इंसानियत के बचे रहने की उम्मीद कानून के सक्रिय रहने पर निर्भर करती है. पर क्या देश में इंसाफ की प्रक्रिया के रहनुमाओं और इंसानियत के बीच जो विसंगति है, वह दूर होगी?

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