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राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद आडवाणी को भारत रत्न- आप क्रोनोलॉजी समझिए

क्या आडवाणी को भारत रत्न से सम्मानित करना विभाजनकारी विचारधारा को बढ़ावा देने का प्रतीक है?

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भारतीय जनता पार्टी (BJP) के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी (Lal Krishna Advani) को भारत रत्न (Bharat Ratna) देने का फैसला सिर्फ सियासी तौर पर अहम नहीं है, बल्कि देश के वैचारिक परिदृश्य पर भी इसका गहरा असर पड़ने वाला है.

अयोध्या के राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के महज कुछ हफ्ते बाद ही, इस घोषणा का समय ऐसा है कि उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. आडवाणी न सिर्फ बीजेपी के, बल्कि राम मंदिर के शिल्पी हैं, और उनकी यह भूमिका उन राजनैतिक अंतर्धारा का अहम हिस्सा है.

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बेशक, बीजेपी की यह घोषणा हिंदुत्व के अपने ब्रांड को आगे बढ़ाने की प्रतिबद्धता की तरफ इशारा करती है. वह 2024 के आम चुनावों तक राम मंदिर के मुद्दे को खींचना चाहती है. चुनावों में यह मुद्दा एकदम हावी रहने वाला है. हां, यह बीजेपी के लिए एक सांकेतिक जीत का प्रतीक है, लेकिन हमें यह सवाल करने के लिए मजबूर करता है कि क्या यह सब समावेश और बहुलवाद के उन सिद्धांतों के अनुरूप है जो हमारे विविधतापूर्ण देश की खासियत है.

जनता को सोचना चाहिए: क्या आडवाणी को भारत रत्न से सम्मानित करना विभाजनकारी विचारधारा को बढ़ावा देने का प्रतीक है?

इस अहम क्षण में भारत रत्न केवल किसी शख्स की काबिलियत का प्रतीक नहीं, उससे कहीं अधिक बन जाता है; यह एक राष्ट्र के रूप में हमारे सामूहिक मूल्यों और आकांक्षाओं का प्रतिबिंब बन जाता है. नागरिकों के रूप में, हमें अपने नेताओं से जवाबदेही की मांग करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारे सर्वोच्च सम्मान विविधता में एकता की भावना को दर्शाएं. यही भारत को परिभाषित करता है. जब आडवाणी को भारत रत्न से सम्मानित किया जा रहा है, उस समय हमें अपने अतीत पर चिंतन करना चाहिए. साथ ही समावेश, सहिष्णुता और पारस्परिक सम्मान के स्तंभों पर भविष्य के निर्माण की पहल करनी चाहिए.

बीजेपी और हिंदुत्व की संरचना में आडवाणी की भूमिका

भारत के राजनीतिक फलक पर आडवाणी एक टाइटन की तरह हैं. मौजूदा बीजेपी पर उनका साया बहुत लंबा है. उन्हें "आधुनिक बीजेपी का वास्तुकार" कहा जाता है. उनके रणनीतिक कौशल और अटूट समर्पण ने पार्टी को पहचान दी और आगे का रास्ता साफ किया. आडवाणी "आज की बीजेपी के जनक" हैं, लेकिन वह सिर्फ इतना भर नहीं हैं. उन्होंने पार्टी को एक दक्षिणपंथी ताकत से अजेय राजनैतिक शक्ति में बदलने का काम किया है.

बीजेपी के साथ आडवाणी का सफर, उनकी दूरदृष्टि और कूटनीति का सबूत है. उन्होंने पार्टी में हिंदुत्व की अवधारणा पिरोई और उसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जोड़ा जो भारत के बड़े समूह को अपना सा लगा.
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1990 की रथयात्रा से लेकर, जिसने जनता को उत्साहित किया और हिंदुत्व को मुख्यधारा में पहुंचाया, राम मंदिर आंदोलन में उनकी भूमिका तक, आडवाणी ने बड़ी कुशलता से धार्मिक पहचान को राष्ट्रीय गौरव के साथ जोड़ा. उनकी विरासत बीजेपी के उदय के साथ अटूट रूप से जुड़ी हुई है, जो उन दूरदर्शी नजरिये का सबूत है. इसने सांस्कृतिक प्रतीकवाद का इस्तेमाल किया और हिंदुत्व को राजनैतिक आवाज दी. भारत की सियासत की तमाम जटिलताओं को सुलझाने में बीजेपी का मार्गदर्शन किया आडवाणी के नेतृत्व और विचारधारा ने. इस तरह वह ऐसे धुरंधर साबित हुए जिसने पार्टी की किस्मत चमका दी.

इस तरह आडवाणी को भारत रत्न देकर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम मंदिर आंदोलन के संस्थापक को श्रद्धांजलि दे रहे हैं. बीजेपी इस अफसाने को आम चुनावों के मोड़ तक पहुंचाकर ही छोड़ेगी.

क्यों आडवाणी की विरासत भारत की बहुलता पर साये जैसी है?

लाल कृष्ण आडवाणी का नाम खुशनुमा नहीं, बल्कि उस विभाजनकारी राजनीति की याद दिलाता है जिसने दशकों से भारत को कलंकित किया है.

सत्ता में उनका उदय हिंदू धर्म के उद्भव को दर्शाता है, एक ऐसी विचारधारा जिसने धार्मिक दुश्मनी को बढ़ावा दिया है और सामाजिक ताने-बाने को तार-तार किया है. राम मंदिर आंदोलन के शिल्पी के रूप में आडवाणी ने धार्मिक उन्माद की लहर फैलाई. ऐसा ध्रुवीकरण किया कि "हम" "उनसे" लड़ पड़े.

उनके राजनीतिक ब्रांड ने आस्था को हथियार बनाया और हरेक चीज पर हिंदू धर्म को वरीयता दी. उनकी अगुवाई में राम मंदिर अभियान ने कलह के बीज बोए जो आज अंकुरित हो रहे हैं. आडवाणी की विरासत धर्म के राजनीतिकरण के खतरों के बारे में एक चेतावनी जैसी है. उनके शब्दों के जाल ने डर और संदेह पैदा किया, जिसने समुदायों को सत्ता के खेल का मोहरा बना दिया.

हमें असहज सत्य को मानना होगा: आडवाणी की विरासत नफरत और विभाजन की राजनीति से गहराई से जुड़ी हुई है. जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो हमें अतीत से सीखना चाहिए और ऐसे भविष्य की तरफ बढ़ना चाहिए जहां सबकी इज्जत हो, और सबको साथ लेकर चला जाए. सिर्फ तभी हम उन जख्मों को भर सकते हैं जो आडवाणी की विरासत की देन हैं, और हम एक बार फिर एकजुट देश बन सकते हैं.

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RSS के लिए ट्रॉफी

आडवाणी के लिए भारत रत्न सिर्फ एक पुरस्कार नहीं है, यह एक भगवा तमगा है जो उन्हें आरएसएस से जोड़ता है. कठपुतली नचाने वाला उनकी विरासत की डोर खींच रहा है. किसी एक व्यक्ति का जश्न मनाना भूल जाइए, यह विचारधारा का राज्याभिषेक है. आखिर में यह इनाम हिंदुत्व की जयघोष करेगा. हिंदुत्व ही वह ताकत है जिसने आडवाणी के हर कदम को ताकत दी थी.

इसीलिए मोदी का फैसला सिर्फ राजनीतिक गणित नहीं है; यह आरएसएस की वेदी पर एक आहुति की तरह है, वैचारिक इनक्यूबेटर जिसने राजनीति के उनके अपने ब्रांड को पाला पोसा है.

आडवाणी को यह तमगा इसलिए नहीं मिल रहा क्योंकि वह सालों तक सत्ता में रहे, यह उस भगवा रथ का प्रचार है जिसे खींचने का काम आडवाणी ने किया था. उसकी हर तिल्ली से यही शब्द गूंजते थे "जय हिंदुत्व". यानी भारत की आत्मा पर आरएसएस की बढ़ती छाया के लिए एक डरावनी श्रद्धांजलि है.

यह किसी एक शख्स की बात नहीं है; यह एक ऐसी विचारधारा की बात है जिसने देश का सबसे चमकदार नकाब पहना हुआ है. जब देश आडवाणी की सराहना करता है, तो वह अनजाने में उस हाथ की भी सराहना करता है जिसने उन्हें गढ़ा है. यह सिर्फ एक इनाम नहीं है; यह वह हिंदुत्व है जो राष्ट्रीय सम्मान के उच्च शिखर पर आसीन हो चुका है. लेकिन तालियों के बीच जरा गौर से सुनिए. क्या आपको भगवा सपनों के अंततः सच होने की धीमी लेकिन बढ़ती हुई गूंज सुनाई नहीं देती? या क्या यह एक राष्ट्र की बेचैनी है जो अनजाने में विभाजनकारी विचारधारा को अपना रहा है?

भारत रत्न भले ही एक ही किसी शख्स की शोभा बढ़ाता हो, लेकिन इसका असर उस शख्स से परे जाता है. यह एक महत्वपूर्ण मोड़ है, इतिहास में अंकित एक ऐसा क्षण जहां विचारधारा ने व्यक्तिगत काबिलियत को धकिया कर अपना कब्जा जमा लिया है. जब गूंज फीकी पड़ने लगे तो सवाल लाजमी है: क्या हमने सिर्फ एक शख्स या एक सोच को ताज पहनाया?

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2024 के चुनाव की भूमिका

बीजेपी ने एक ताना-बाना बुना है. रामलला की पवित्र प्रतिष्ठा से लेकर राम मंदिर आंदोलन के मुख्य शिल्पी लाल कृष्ण आडवाणी के लिए भारत रत्न की घोषणा तक. यह राजनीतिक सिंफनी खूबसूरती से कोरियोग्राफ की गई है जोकि आने वाले आम चुनावों की तैयारी है.

गूंज साफ बताती है: बीजेपी की रणनीतिक चाल जीत के ऐलान जैसी है. 2024 की चुनावी जंग हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विशाल उपलब्धियों के आधार पर तैयार की जाएगी.

जहां रामलला को अपना स्थायी निवास मिला, उस प्राण प्रतिष्ठा की आध्यात्मिक पवित्रता से लेकर आडवाणी को भारत रत्न देने तक, पार्टी ने राजनीतिक प्रतीकवाद के साथ धार्मिक उत्साह को कलात्मक रूप से जोड़ा है.

यह क्रोनोलॉजी कोई इत्तेफाक नहीं है, बल्कि सोची-समझी योजना के तहत ऐसा किया गया है. यह मतदाताओं को बताता है कि आने वाले चुनावों पर हिंदुत्व की विचारधारा, राष्ट्रवाद की भावना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपलब्धियां हावी रहेंगी.

राम मंदिर आंदोलन के पुरोधा आडवाणी को सम्मान देने के पीछे यह जताना भी है कि पार्टी अपने वैचारिक खूंटे से बंधी है.

जैसा कि देश 2024 के राजनीतिक उत्थान का बेसब्री से इंतजार कर रहा है, बीजेपी ने अपनी विचारधारा का परचम फहराया है, और साहसपूर्वक कहा है कि आने वाले चुनावों में हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और प्रधानमंत्री मोदी की परिवर्तनकारी विरासत, तीनों की छाप होगी. मंच सज चुका है. 2024 के लिए बीजेपी की सिंफनी में हिंदुत्व और राष्ट्र के सामूहिक गौरव की तानें छेड़ी जाने वाली हैं.

[लेखक सेंट जेवियर्स कॉलेज (स्वायत्त), कोलकाता में पत्रकारिता पढ़ाते हैं और एक स्तंभकार हैं (वह @sayantan_gh पर ट्वीट करते हैं.) यह एक ओपिनियन है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.]

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