ग्लोबस स्पिरिट्स के कार्यकारी निदेशक शेखर स्वरूप ने किसी न्यूज चैनल पर बयान देने का इससे गलत समय शायद ही पहले कभी चुना होगा.
26 नवंबर 2015 को दिए एक इंटरव्यू में स्वरूप ने कहा था कि उनकी कंपनी बिहार में एक डिस्टिलरी लगा रही है क्योंकि राज्य में शराब की अच्छी मांग है. यह डिस्टिलरी 2016 के फर्स्ट हाफ में तैयार हो जानी थी.
उनके इस इंटरव्यू के एक घंटे के अंदर ही बिहार के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य में शराबबंदी की घोषणा कर दी.
नीतीश कुमार ने चुनावों के दौरान पटना में महिलाओं के एक ग्रुप से वादा किया था कि वह राज्य में शराब को बैन कर देंगे. राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए, तो नीतीश ने अपना वादा निभाकर सही किया, लेकिन क्या इसके साथ ही उन्होंने बिहार की तरक्की और शांति की राह में सबसे बड़ा रोड़ा लगा दिया?
अंडरग्राउंड कारोबार तो चलता ही है
इतिहास के आईने में देखा जाए तो जब-जब किसी देश या राज्य ने शराब को बैन किया है, तब-तब वहां गैंगस्टरों ने एक अंडरग्राउंड मार्केट बनाई है. अमेरिका में शराब बैन हुई तो वहां अल कैपोन पैदा हो गया, और मुंबई में वरदराजन (वरदा भाई).
बिहार में शराब को बैन करने से यहां के कुख्यात गैंगस्टरों को राज्य के तमाम बेरोजगार नौजवानों को अपने ग्रुप में शामिल करके एक समानांतर उद्योग खड़ा करने का मौका मिल जाएगा.
यह भी सब जानते हैं कि शराब को बैन करने का मतलब यह नहीं होता कि राज्य में शराब कहीं मिलती ही नहीं. आंकड़े तो दिखाते हैं कि बैन के दौरान शराब की खपत बढ़ जाती है. इसमें सबसे बड़ा घाटा बैन लगानेवाले राज्य का होता है.
गुजरात का ही मामला ले लीजिए. यह राज्य 1960 में अस्तित्व में आया था और तबसे यहां शराबबंदी लागू है. इस राज्य में घूमने गया कोई भी व्यक्ति आपको बता सकता है कि यहां शराब आसानी से उपलब्ध है, बस उसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है.
साल 2009 में अहमदाबाद में देशी शराब से जुड़ी एक बेहद ही दर्दनाक घटना सामने आई थी, जिसने यह साफ हो गया था कि यह कारोबार भूमिगत तरीके से फल-फूल रहा है. लेकिन, इसको लेकर सबसे सही सूचना तो सरकारी आंकड़े ही देते हैं.
पड़ोसी का फायदा
नैशनल सैम्पल सर्वे ऑफिस द्वारा जारी किए गए एक आंकड़े के हवाले से द हिंदू ने लिखा था कि देशी शराब की सबसे ज्यादा खपत केंद्र शासित प्रदेश दादरा और नगर हवेली में होती है. इस केंद्र शासित प्रदेश की सीमा गुजरात से लगती है. यहां प्रति व्यक्ति प्रति सप्ताह शराब की खपत 2,533 एमएल है, जोकि बिहार का लगभग 10 गुना है. बिहार में प्रति व्यक्ति प्रति सप्ताह शराब की खपत सिर्फ 266 एमएल है.
विदेशी शराब की खपत की बात की जाए, तो इस मामले में भी दमन और दीव के केंद्र शासित प्रदेश हैं.
इनकी सीमा भी गुजरात से लगती है. दमन और दीव में प्रति व्यक्ति, प्रति सप्ताह की खपत 1,079 एमएल है. वहीं केरल में यह 102 एमएल और पंजाब में, जहां का पटियाला पेग पूरी दुनिया में मशहूर है, यह सिर्फ 50 एमएल प्रति व्यक्ति प्रति सप्ताह है.
यह आंकड़े दिखाते हैं कि गुजरात का बॉर्डर पार करते ही शराब की खपत बढ़ जाती है. इस तरह से देखा जाए तो सरकार को टैक्स से हाथ धोना पड़ता है, जिससे नई नौकरियों के पैदा होने की संभावनाएं भी खत्म हो जाती हैं.
राजस्व का नुकसान
ब्रांडेड शराब की बात की जाए, तो बिहार भारत के नक्शे पर आपको नजर नहीं आएगी. एडेलविस की एक रिपोर्ट के मुताबिक इंडियन मेड फॉरेन लिक्वर (आईएमएफएल) में बिहार का योगदान बहुत ही कम है.
हालांकि राज्य के टैक्स कलेक्शन का लगभग 15 प्रतिशत हिस्सा शराब पर लगे टैक्सों से ही आता है.
सिर्फ एक आदेश के चलते बिहार ने अपने राजस्व के सबसे बड़े स्रोत से हाथ धो दिया. बिहार की ही तरह जिन राज्यों में बहुत ज्यादा शराब नहीं बनती, इससे जुड़े टैक्सों का राज्य के राजस्व में लगभग 20 प्रतिशत तक का योगदान होता है. शराब से जुड़े टैक्स इनमें से कई राज्यों के इनकम के टॉप तीन स्रोतों में हैं.
केंद्र सरकार से बातचीत में राज्य सरकारों ने कहा है कि शराब को गुड्स ऐंड सर्विस टैक्स के दायरे से बाहर किया जाए. बिहार ने ज्यादा टैक्स कमाने के एक सुनहरे मौके को गवां दिया.
निवेश आकर्षित करने में भी होगी मुश्किल
गुजरात को देखकर तो लगता है कि शराब बैन करने से राज्यों को और भी कई तरह के नुकसान होते हैं.
दमदार इन्फ्रास्ट्रक्चर और इंडस्ट्री-फ्रेंडली सरकारी पॉलिसी होने के बावजूद गुजरात सर्विस सेक्टर में पर्याप्त निवेश आकर्षित नहीं कर पाया है. इस राज्य का अधिकांश राजस्व निर्माण उद्योगों से आता है.
नौजवान उन राज्यों में जाने में कम ही दिलचस्पी दिखाते हैं जहां नाइटलाइफ ऐक्टिविटी कुछ खास न हो. हकीकत तो यह है कि आईटी कंपनियां साफतौर पर कहती हैं कि गुजरात में शराब बैन होने की वजह से ही वह अपने दफ्तर इस राज्य में खोलने से झिझकती हैं.
नीतीश और उनके सहयोगी लालू ने अपने कार्यकालों के दौरान राज्य में कम ही निवेश आकर्षित किया है.
राज्य में जिन थोड़ी-बहुत कंपनियों ने निवेश किया उनमें ग्लोबस स्पिरिट्स जैसी कंपनियां भी हैं, जो अब शराब के बैन होने के बाद वहां से हट ही जाएंगी. इसके साथ ही अब निवेश आकर्षित करने में और परेशानी होगी.
नुकसान और भी हैं
शराब के बैन होने से राजस्व की हानि तो होगी ही, साथ ही इसे लागू करवाने में भी अच्छे-खासे पैसे खर्च होंगे. एक गरीब राज्य के लिए यह एक अतिरिक्त खर्चा ही होगा.
इस बंदी से शराब की कीमत में बेतहाशा बढ़ोतरी होगी. शराब के आदी हो चुके गरीब लोग ज्यादा पैसा खर्च करके शराब खरीदेंगे और उनके बच्चे पहले से कहीं ज्यादा भूख झेलेंगे.
नीतीश ने अच्छी नीयत से यह कदम उठाया है, लेकिन परिस्थितियों को देखकर लग रहा है कि इस कदम की कीमत राज्य को अगले पांच सालों तक चुकानी होगी.
(लेखक मुंबई में मार्केट ऐनालिस्ट हैं)
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