गुजरात के वोटरों ने फैसला सुना दिया है. 18 दिसंबर को जनादेश सबके सामने होगा, लेकिन एग्जिट पोल आ गए हैं. अगर इनके दावे सही हुए तो गुजरात में बीजेपी को लगातार छठी बार जीत मिलेगी.
एग्जिट पोल में बीजेपी को जितनी सीटें मिलने की भविष्यवाणी की गई है, वह 2012 के करीब है, जब पार्टी को शानदार जीत मिली थी. इसमें कांग्रेस को जितनी सीटें मिलने की बात कही जा रही है, उसे देखकर लगता है कि वह भी पांच साल पहले वाली स्थिति में होगी यानी बीजेपी के मुकाबले उसके विधायकों की संख्या आधी होगी.
एग्जिट पोल गलत भी साबित हुए हैं. कई बार तो बुरी तरह. इस बार भी ऐसा हो सकता है. हालांकि, अगर यह मान लिया जाए कि ये सही हैं तो उस आधार पर बीजेपी की जीत और कांग्रेस की हार के संभावित कारणों पर चर्चा की जा सकती है.
अगर बीजेपी जीतती है तो श्रेय मोदी को मिलना चाहिए
बीजेपी गुजरात में 1995 से सत्ता में है. तो क्या यह मान लिया जाए कि राज्य में सत्ता-विरोधी लहर नहीं थी? जीएसटी और नोटबंदी के चलते आर्थिक सुस्ती से लोगों की नाराजगी को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा था? क्या पाटीदारों का गुस्सा हमें नहीं दिख रहा था? हार्दिक पटेल की रैलियों में भारी भीड़ जुट रही थी, क्या उससे पटेलों के बीच बीजेपी की लोकप्रियता कम नहीं हुई? राष्ट्रीय सियासत के लिहाज से सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी पूरा जोर लगाने के बाद भी अपने पार्टी के उम्मीदवारों के पक्ष में माहौल नहीं बना सके? गुजरात कैंपेन के दौरान ही राहुल कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुने गए.
अगर बीजेपी को 182 में से 110 के करीब सीटें मिलती हैं तो उसका श्रेय पार्टी के स्टार और अकेले कैंपेनर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिलना चाहिए.
इसमें कोई शक नहीं है कि राज्य की बीजेपी सरकार के खिलाफ नाराजगी थी. 2002 से 2014 के बीच मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. उनके पद छोड़ने के बाद से पार्टी में बिखराव है. मोदी ने आनंदीबेन पटेल को अपना उत्तराधिकारी चुना था, जिन्हें अगस्त, 2016 में पद छोड़ना पड़ा. उनके बाद विजय रूपाणी आए, जो सरकार चलाने में तो सफल रहे, लेकिन वह बड़े लीडर नहीं हैं.
राज्य में भ्रष्टाचार काफी बढ़ गया है. हार्दिक पटेल के आंदोलन ने बीजेपी के पारंपरिक समर्थकों के एक वर्ग को पार्टी से अलग भी कर दिया था.
मोदी के प्रचार के तरीकों पर सवाल उठाए जा सकते हैं
एग्जिट पोल की मानें तो इन बातों का वोटरों पर असर नहीं पड़ा. उसकी वजह यह हो सकती है कि मोदी की राज्य में वोटरों के बड़े वर्ग पर अभी भी पकड़ है. कई गुजराती मोदी की आलोचना करने लगे हैं, जो नई बात है. हालांकि, बीजेपी को शायद गुजराती प्रधानमंत्री होने का फायदा इन चुनावों में मिला है. पार्टी ने इसे गुजरात की अस्मिता का सवाल बनाया था. विपक्ष ने मोदी पर जो टिप्पणियां कीं, प्रधानमंत्री ने उसे गुजरात और गुजरातियों का अपमान बताया.
मणिशंकर अय्यर ने मोदी को ‘नीच किस्म का इंसान’ कहा, जिसे मोदी ने जान-बूझकर और चुनावी फायदे के लिए ‘नीच जाति के इंसान’ में बदल डाला. मोदी ने प्रचार के दौरान कांग्रेस को गुजरात-विरोधी पार्टी के तौर पर पेश किया. उन्होंने खासतौर पर नेहरू-गांधी परिवार को गुजरातियों का दुश्मन बताया.
शायद वह वोटरों के बड़े वर्ग को यकीन दिलाने में सफल रहे कि केंद्र और राज्य में बीजेपी की सत्ता से प्रदेश का भला होगा. इसके साथ यह भी याद रखना चाहिए कि कांग्रेस के पास गुजरात में कोई मजबूत नेता नहीं है.
मोदी ने मुस्लिम-विरोधी और पाकिस्तान-विरोधी सेंटीमेंट को हवा देकर ध्रुवीकरण की भी कोशिश की. शायद यह दांव भी सफल रहा. ध्रुवीकरण की इन कोशिशों पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं, लेकिन लगता है कि इससे सत्ता-विरोधी और दूसरे नकारात्मक फैक्टर्स को कम करने में मदद मिली.
एग्जिट पोल में बीजेपी को जितनी सीटें मिलने का दावा किया गया है, अगर वह सही साबित होता है तो इसका मतलब यह है कि बीजेपी की हिंदू अस्मिता और गुजराती अस्मिता की अपील का खासतौर पर पाटीदारों पर असर पड़ा. इसलिए हार्दिक के आंदोलन के बावजूद पाटीदारों ने बड़ी संख्या में बीजेपी का समर्थन किया. जहां युवा पाटीदार हार्दिक के साथ थे, वहीं शायद पुरानी पीढ़ी बीजेपी के साथ बनी रही.
गुजरात में बीजेपी का संगठन बहुत मजबूत है. इसका भी उसे फायदा मिला. संघ परिवार की मदद से पिछले कई वर्षों में बीजेपी बेहतरीन बूथ लेवल मैनेजमेंट सिस्टम बनाने में सफल रही है. इसमें पार्टी कार्यकर्ता लोकल लेवल पर वोटरों के साथ जुड़े रहते हैं. कांग्रेस के पास ऐसा संगठन नहीं है.
राहुल इस हार को भविष्य में जीत का प्लेटफॉर्म बना सकते हैं
अगर 18 दिसंबर को एग्जिट पोल करने वाले सही साबित होते हैं तो राहुल गांधी की चुनाव जीतने की योग्यता पर कई सवाल खड़े होंगे. इस हार पर कांग्रेस को आत्मचिंतन करना होगा और उसे करना भी चाहिए.
लेकिन बहस इस पर नहीं होनी चाहिए कि राहुल पार्टी अध्यक्ष बनने लायक हैं या नहीं. उसकी वजह यह है कि कांग्रेस के आलोचकों ने भी गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान देखा कि उनमें बदलाव आया है. वह नई तरह के लीडर हैं. उनमें आत्मविश्वास दिखता है. वह युवा जोश वाले और विनम्र नेता हैं. अपनी बात अच्छी तरह से रखते हैं. उनकी बातें सच लगती हैं. वह मेहनती हैं, लोगों के साथ जुड़ने का हुनर उन्होंने सीख लिया है.
बीजेपी खुद को हिंदू धर्म की अकेली संरक्षक बताती आई है, लेकिन राहुल ने कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता से समझौता किए बिना गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान इसे चुनौती दी. हो सकता है कि मोदी गुजरात में जीत जाएं, लेकिन राहुल ने लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों के प्रति समर्पण दिखाकर करोड़ों लोगों का दिल जीता है.
अगर कांग्रेस गुजरात में हार जाती है तो उसे और राहुल को भारतीयों और खासतौर पर युवाओं का दिल जीतने के लिए और मेहनत करनी होगी. राहुल को कांग्रेस पार्टी की गड़बड़ियों को दूर करना होगा. पार्टी संगठन में बदलाव की जरूरत है. उसे खासतौर पर बूथ लेवल पर समर्पित कार्यकर्ताओं की जरूरत है, जो स्थानीय लोगों की जरूरत पड़ने पर मदद करें. बीजेपी की आलोचना के साथ राहुल को नया विजन पेश करना होगा. देश अभी कई समस्याओं का सामना कर रहा है.
विजन में इन्हें हल करने के उपाय होने चाहिए. अब तक राहुल ने यह काम नहीं किया है. अगर वह ऐसा करते हैं तो गुजरात की हार को भविष्य में जीत का प्लेटफॉर्म बना सकते हैं. वह जितना संघर्ष करेंगे, उनकी पार्टी और देश के लिए उतना ही अच्छा होगा.
(लेखक पीएमओ में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी रहे हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @SudheenKulkarni है. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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