अगर इस बात में कोई शक रह गया था कि केंद्र सरकार (Central Government) किस हद तक भारत के संविधान में मौजूद संतुलन को डांवाडोल करने पर तुली है तो हाल की एक घटना ने उसे और पुख्ता कर दिया है. प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) ने जिस तरह मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) को तलब किया है, उससे साफ हो गया कि देश कार्यपालिका की मुट्ठी में है, और कार्यपालिका अपने नशे में चूर है.
वैसे इसे तलब करना न कहें, इसे तो पीएमओ के प्रिंसिपल सेक्रेटरी और सीईसी सुशील चंद्र (उनके दो डेप्युटी सहित) के बीच की ‘अनौपचारिक’मीटिंग कहा गया है. हां, यह बैठक प्रिंसिपल सेक्रेटरी के आदेश पर की गई थी जो साफ तौर से प्रोटोकॉल के खिलाफ है.
लेकिन इससे भी गंभीर मसला यह है है कि यह संवैधानिक शक्तियों का दुरुपयोग है (जिसे सेपरेशन ऑफ पावर्स कहा जाता है). यह भी कि किस तरह कार्यपालिका स्वायत्त सार्वजनिक संस्थाओं पर अपने प्रभुत्व का इस्तेमाल कर रही, उसे प्रभावित कर रही है और उनके कार्यों में दखल दे रही है.
दागदार है अतीत
वैसे ऐसा पहली बार नहीं हो रहा. इस सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है कि वह ऐसे गुनाह करती रही है. 2014 में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार के आने के बाद से स्वायत्त संस्थाओं को खोखला किया जा रहा है.व्यवस्थागत तरीके से उनकी जड़ें खोदी जा रही हैं. जैसे-
उन्हें असंवैधानिक तरीके से प्रभावित किया जा रहा है (जैसे कि हमने चुनाव आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक और न्यायपालिका के मामले में देखा),
चुनिंदा तरीके से नियुक्तियां करके दखल दिया जा रहा है (जैसे भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद, ललित कला परिषद या जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के मामले में देखा गया, वैसे आप ये तो भूल ही जाएं कि किस तरह सीबीआई और ईडी को अपनी जागीर बना दिया गया है),
मुख्य पदों को खाली रखा जा रहा है, या वेतन और कार्यकाल तय (जैसा कि केंद्र और राज्य स्तर पर सूचना आयोगों के साथ किया जा रहा है) करने की कोशिश की जा रही है जो कार्यपालिका के अधिकार में आता ही नहीं, और इस तरह स्वायत्त संस्थाओं का जड़े हिलाई जा रही हैं, या
राजनीतिक हितों को साधने के लिए खुले तौर पर उन्हें अपने हिसाब से तैयार किया जा रहा है (सशस्त्र बलों और चौथे स्तंभ, यानी मीडिया पत्रकार).
ऐसा भी पहली बार नहीं हो रहा कि सरकार ने चुनाव आयोग को शिकार बनाया है.
पहले भले ही चुनाव आयुक्तों की ईमानदारी की मिसाल दी जाती थीं लेकिन 2017 में इस पर जोरदार वार किया गया. बीजेपी नियुक्त आयुक्त ने उन राज्यों में विधानसभा चुनाव कराने की तारीख आगे-पीछे घोषित की, जहां लगभग एक ही समय पर चुनाव होते आए हैं.
विपक्ष की यह चिंता है कि हाल की घटना के बाद फिर से इसकी शुरुआत न हो जाए.
गुजरात चुनाव का मामला
करीब पच्चीस साल पहले आयोग ने आचार संहिता शुरू की थी जिसमेंयह लिखा गया था कि चुनावों की तारीख की घोषणा के बाद सरकार मतदाताओं को खुश करने के लिए खर्च नहीं कर सकती. लेकिन केंद्र और गुजरात में बीजेपी की सरकार बनने के साथ बहुत कुछ बदल गय. चुनाव के ऐन पहले तक योजनाओं के ऐलान हुए, मुफ्त तोहफों से लोगों को लुभाया गया और चुनाव आयोग पर यह दबाव बनाया गया कि वे जब तक हो सके, चुनावी घोषणाओं को टालता रहे.
हैरानी हुई कि हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों की तारीख की घोषणा तो हो गई, लेकिन गुजरात की नहीं- जबकि दोनों राज्यों में सामान्यतया एक ही समय पर चुनाव होते हैं. हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों की घोषणा के 13 दिन बाद गुजरात चुनाव की घोषणा हुई. इसके लिए गुजरात में बाढ़ राहत कार्य की दुहाई दी गई (आचार संहिता के कारण यह इजाजत नहीं मिलती).
पूर्व चुनाव आयुक्तों ने इस फैसले की एक स्वर से आलोचना की, इसके बावजूद कि गुजरात सरकार और खुद प्रधानमंत्री ने देर से की गई घोषणा का भरपूर लाभ उठाया और चुनाव पूर्व उपहार बांटे. विधानसभा चुनाव में बीजेपी बहुत मुश्किल से जीती, हालांकि उसने करीब-करीब अपना बहुमत गंवा ही दिया.
चाहे बीजेपी कितनी भी मासूमियत का दावा करे लेकिन उस पर भरोसा करना मुश्किल है. चूंकि आज जो लोग कार्यपालिका की अगुवाई कर रहे हैं, उनका इतिहास बताता है कि उन्होंने चुनाव आयोग को अपने इशारों पर नचाने की कोशिश की है.
2002 में गुजरात के चुनाव प्रचार के दौरान, जब चुनाव आयोग राज्य के सांप्रदायिक तनाव को लेकर चिंतित था, तब उसने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की इस पेशकश को ठुकरा दिया था कि राज्य में जल्दी चुनाव कराए जाएं. इसके बाद मोदी ने उस समय के चुनाव आयुक्त जे.एम. लिंगदोह के खिलाफ सार्वजनिक अभियान चलाया था.
उनकी ईसाई पृष्ठभूमि को उछाला गया था और कहा गया था कि वह राज्य में इसलिए जल्दी चुनाव नहीं कराना चाहते क्योंकि वह अल्पसंख्यकों के समर्थक हैं (इसके बाद उनकी खुद की पार्टी के नेता और उस समय प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें डांट पिलाई थी).
जिस पर निष्पक्ष चुनावों की जिम्मेदारी है
बीजेपी के राज में चुनाव आयोग सरकारी विभाग की तरह काम न करने लगे, इस बाद का डर दो साल से महसूस हो रहा है. दो साल पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने तकनीकी आधार पर दिल्ली विधानसभा के 20 आम आदमी पार्टी (आप) सदस्यों को अयोग्य घोषित करने के चुनाव आयोग के फैसले को खारिज कर दिया था. यह ऐसा कदम था जिससे बीजेपी को फायदा हो सकता था, क्योंकि इन सीटों के खाली होने पर उपचुनाव होते. अदालत ने चुनाव आयोग के इस फैसले को ‘कानूनी तौर पर बुरा’ और ‘प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन बताया था.’
लेकिन जिस संस्था को भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के एक तटस्थ रक्षक के तौर पर जाना जाता था, उसका वर्तमान इतना दुखद कैसे हो गया? इस जवाब यह है कि केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी अपनी मनमर्जी से उसे चलाने की कोशिश किए जा रही है.
हाल की घटना को देखें तो नाकामी दोनों तरफ से है. हालांकि यह जरूरी था कि पीएमओ चुनाव आयोग पर अपना अधिकार न जमाए, सीईसी भी अपनी स्वायत्तता को बरकरार रख सकते थे और पीएमओ के बुलावे को ठुकरा सकते थे. आखिरकार चुनाव आयोग ऐसी संस्था नहीं है जो पीएमओ या कार्यपालिका की मांगों को पूरा करने के लिए मजबूर है.
आप जरा सोचकर देखिए- क्या भारत के चीफ जस्टिस सरकार के तलब करने पर इस तरह हाजिर होंगे. चुनाव आयोग की स्वतंत्रता भी सीजेआई की तरह पवित्र है - दोनों उस राजनीतिक दंगल से काफी दूर हैं जिन पर उन्हें फैसला लेना होता है.
इसके अलावा कई विद्वान अधिकारियों, जिनमें पूर्व सीईसी वाईएस कुरैशी भी शामिल हैं, ने कहा है कि अगर ऐसी मीटिंग्स से बचना मुश्किल हो, तब भी कुछ प्रोटोकॉल्स का पालन करना जरूरी होता है. जैसे उचित तरीका यह होता कि पीएमओ चुनाव आयोग से बैठक का अनुरोध करता, न कि उसे तलब करता. जिन खास मसलों के स्पष्टीकरण की जरूरत थी, आयोग से लिखित प्रतिक्रियाओं के माध्यम से भी प्राप्त किए जा सकते थे.
इन दोनों को नजरंदाज किया गया और इससे भी बुरी बात यह है कि सरकार इस बारे में कोई खुलासा नहीं कर रही कि बैठक के दौरान असल में क्या हुआ और किन मामलों पर चर्चा हुई.
पार्टियां आती-जाती रहती हैं, संस्थाएं बरकरार रहती हैं
इन घटनाओं का खतरनाक पहलू यह है कि चुनाव आयोग जैसी स्वायत्त संस्थाओं में जनता को विश्वास डगमगा जाएगा. इससे लोकतंत्र के स्तंभ कमजोर पड़ जाएंगे.
जैसा कि मैंने अपनी किताब द बैटल ऑफ बिलॉगिंग में कहा है, राजनीतिक दल और सत्तासीन सरकारें आजकल की मेहमान होती हैं, लेकिन ये संस्थाएं किसी भी लोकतंत्र के मजबूत खंभे होती हैं. इनकी स्वतंत्रता, सत्यनिष्ठा और पेशेवर प्रकृति को किसी भी दौर के राजनीतिक दबावों से बचे रहना चाहिए.
आजादी के 67 साल तक सभी सरकारों ने सार्वजनिक संस्थाओं को सशक्त बनाए रखा. लेकिन पिछले साढ़े सात सालों में उनकी स्वायत्तता खतरे में पड़ी है. सरकार ने ज्यादा से ज्यादा शक्तियां कार्यपालिका को थमा दी है.
भारत के सामने बहुत सी चुनौतियां हैं. लेकिन अगर सरकार ऐसे ही हमारे लोकतांत्रिक स्तंभों को ढहाने की कोशिश करती रहेगी तो हमारा लोकतांत्रिक विकास कमजोर पड़ जाएगा. इन स्तंभों ने आजादी के बाद से हमारे देश की व्यवस्था को स्थिर बनाए रखा है.
(लेखक कांग्रेस के सांसद हैं और संयुक्त राष्ट्र के अंडर सेक्रेटरी रहे हैं.उनका ट्विटर हैंडिल @ShashiTharoor. है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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