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ऊंचाई की खास बात ये है कि यह फिल्म बुजुर्गों के जीवन पर केंद्रित है और बुजुर्गों पर भारत में बहुत कम फिल्में देखने को मिलती हैं. साल 1972 में आई फिल्म 'पिया का घर' के लिए आनन्द बख्शी ने जब 'ये जीवन है' गीत लिखा होगा तब उन्हें इस बात का बिल्कुल अंदाज नहीं होगा कि सालों बाद उनके लिखे इस गीत पर एक पूरी फिल्म बन जाएगी और फिल्म के नायक दो सदियों के महानायक अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) होंगे.
पारिवारिक फिल्मों को बनाने में महारत रखने वाला राजश्री प्रॉडक्शन एक बार फिर से सूरज बड़जात्या के निर्देशन में हिंदी सिनेमा के दर्शकों के लिए भारतीय परिवारों में रिश्तों के उतार चढ़ाव से भरी कहानी हमारे सामने लाया है. निर्देशक ने इस फिल्म में अपने दोस्तों के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा दिखाने के लिए एक यात्रा का सहारा लिया है और उसमें दोस्तों के बीच आपस की बातचीत, प्यारी सी हरकतें ही दोस्ती की निशानी बनती है.
फिल्म की खास बात ये है कि जी 5 ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आई ये फिल्म बुजुर्गों के जीवन पर केंद्रित है और बुजुर्गों पर भारत में बहुत कम फिल्में देखने को मिलती हैं.
फिल्म की कहानी अपने जीवन में व्यस्त चार दोस्तों की है, जो एवरेस्ट बेस कैंप तक पहुंचने का प्लान बनाते हैं पर कुछ ऐसा घटित होता है कि उस यात्रा को पूरा करने के लिए सिर्फ तीन दोस्त ही जाते हैं. इस सफर में उनसे नए लोग जुड़ते जाते हैं और आधुनिक रिश्तों की सच्चाई में इन दोस्तों को समझ आती है.
अमिताभ बच्चन इस दोस्ती की नींव हैं और उनकी आवाज में पढ़ी कविता 'वो लड़की पहाड़ी' हो या अन्य संवाद सब कुछ शानदार है. अनुपम खेर (Anupam kher) ने दोस्तों में उस दोस्त की भूमिका निभाई है जो थोड़ा कम सब्र रखता है और वो अभिनय के मामले में अमिताभ को टक्कर देते रहते हैं. नीना गुप्ता (Neena Gupta) और बोमन ईरानी फिल्म में पति पत्नी हैं और इन दोनों ने पति पत्नी की खटपट, प्यार को स्क्रीन पर पूरी तरह से निभाया है. सारिका (Sarika) जब फिल्म में आती हैं , छा जाती हैं. वो अब भी पहले की तरह ही खूबसूरत हैं.
फिल्म में अमिताभ बच्चन हों तो उसका संवादों के मामले में जानदार होना तो बनता ही है और फिल्म के संवाद भी उसकी स्टारकास्ट की तरह दमदार ही हैं. 'वैसे आप के लखनऊ के नजाकत और नफासत के बारे में तो सुना ही था, आज दीदार हो गए' संवाद, बड़े ही शौक से लिखा जान पड़ता है. अमिताभ बच्चन के मुंह से हिंदी संवाद निकले तो उन्हें सुनने का आनन्द ही कुछ और होता है, 'शास्त्रों में लिखा है कि हमारे पर्वत हमारे वेदों के प्रतीक हैं' इसका गवाह है.
फिल्म के संपादन पर ज्यादा ध्यान दिए जाने की आवश्यकता थी क्योंकि फिल्म की लंबाई कभी-कभी बोर करने लगती है. सभी साथियों का नेपाल पहुंचने तक का सफर थोड़ा छोटा किया जा सकता था, एवरेस्ट बेस कैंप ट्रैकिंग के दौरान नेपाल में मिले ट्रैकिंग के साथियों का फिल्म में कोई काम नहीं लगता, उनका काम बस मुख्य कलाकारों की तरफ देखना भर है.
फिल्म की पटकथा में डैनी के गुजरने वाले पलों को जिस तरह लिखा गया है, वो दर्शकों को भी एक दोस्त के खोने का अहसास याद दिला जाता है. इतने मुश्किल सफर में जाने के बाद भी वहां जरूरी दवाइयों का न लेकर जाना, गले से नीचे नहीं उतरता.
फिल्म का संगीत अमित त्रिवेदी ने तैयार किया है, जो फिल्म देखते सकारात्मकता का अहसास कराने में कामयाब हुए है.
'केटी को' गाने के बोल तो प्रभावित नहीं करते पर उसमें कोरियोग्राफी देखने लायक है.
'अरे ओ अंकल' फिल्म की कहानी के हिसाब से ठीक है पर जुबान पर नहीं चढ़ता.
'सवेरा' गीत सुनने में अच्छा है. 'लड़की पहाड़ी' गाना कहानी पर केंद्रित है और लंबे समय तक याद किए जाने वाला भी बन पड़ा है.
पहाड़ों पर बनाई जाने वाली फिल्मों के लिए जरुरी है कि उसका छायांकन शानदार हो और फिल्म का पहला दृश्य ही इस मामले में खुद को साबित कर देता है. हुमायूं का मकबरा की खूबसूरती स्क्रीन पर जस की तस दिखा दी गई है और दोस्तों की यात्रा के दौरान पड़ने वाले हर शहर की रौनक आपको प्रभावित करते जाती है.
फिल्म में ट्रैक की लीडर एक महिला को बनाकर, समाज में सशक्त होती महिलाओं का अक्स दिखाने की कोशिश की गई है. वहीं फिल्म खुद को बुजुर्ग मान चुके ऐसे लोगों के लिए बूस्टर डोज भी है, जो ये मानते हैं कि उन्हें कुछ भी करने के लिए अब दूसरों पर निर्भर रहना होगा.
इस फिल्म में बीमारी के बावजूद अमिताभ का अपने दोस्तों के साथ एवरेस्ट बेस कैंप तक पहुंचने के लिए रात्रि में बर्फबारी के दौरान चलने के प्रैक्टिस करने वाला दृश्य देखकर ऐसे बुजुर्ग सीख सकते हैं कि अगर उनमें कुछ कर गुजरने की चाह है तो ऊंचाई छुई जा सकती है.
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