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उत्तराखंड एक बार फिर मैंने ब्लैंक स्क्रीन पर नज़रें टिकायीं, उसमें मुझे उगते बादल नज़र आने लगे...पहाड़ियां...हरियाली...रास्ता...एक धुन...एक धुंध...मैंने स्क्रीन ऑफ कर दिया. मैं इन सबके बारे में नहीं लिखना चाहती. मैं लिख भी सकती नहीं. हम दृश्यों के बारे में लिख सकते हैं लेकिन खुशबू को कोई कैसे लिख सकता है. जबसे लौटी हूं दुनिया की हर चीज़ पर ध्यान टिकाने की कोशिश कर रही हूं कि जो नशा तारी है मुझ पर वो जरा कम हो लेकिन नशे की यही तो तासीर है कि वो आपको किसी और का होने नहीं देगा, किसी और बारे में सोचने नहीं देगा.
कई दिन हुए कि कहीं मन नहीं लग रहा था. कई दिन हुए कि लग रहा था दिन हो ही नहीं रहे हों जैसे. सब ठहरा ठहरा सा. रुका-रुका सा. सुख और दुःख के बीच एक खाली स्पेस होता है जिसके बीच हम सरकते रहते हैं. कभी सुख के करीब, कभी दुःख के. असल में हम न कभी सुख के एकदम करीब पहुंच पाते हैं न दुःख के. बस उसके आसपास होने को ही अंतिम सत्य मानकर अपनी ताकत सुख की ओर भगाने में लगा देते हैं. जबकि सुख और दुःख दोनों ही अपनी जगह पर बैठे एक साथ मुस्कुराते हैं. हम कठपुतली के तरह नाचते जाते हैं. मैं भी उनमें से ही हूं. लेकिन कभी-कभी थक जाती हूं फिर दुःख और सुख दोनों के एकदम बीच में खुद को रखते हुए जब आसमान को देखती हूं तब एहसास होता है कि यह दौड़ किस कदर बेवजह है. ऐसे ही एक अनमने से दिन में यूं ही अचानक बैगपैक कर इठारना का रुख कर लिया कि इस भागमभाग से कुछ ब्रेक चाहिए था.
क़ुदरत हमेशा हमें अपने क़रीब ले जाने का काम करती है. अगर हमने सच में यात्रा करना सीखा है तो यात्राएं हमारी वो हमसफर बनती हैं कि जब ज़िन्दगी साथ छोड़ने लगे तब खुद को किसी यात्रा पर रख दीजिये, यात्राएं आपको झाड़-पोंछकर, चमकाकर, निखारकर, प्यार से अपनेपन से सराबोर करके वापस भेजती हैं. जब घर से निकली थी तो मन में असंतोष, बेचैनी, उलझनें, असुरक्षा के भाव न जाने क्या-क्या साथ थे. थोड़ा गुस्सा भी था लेकिन जैसे-जैसे रास्तों पर आगे बढ़ते गए एक-एक कर ये सारे आवरण उतरते गए. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे आंखों के सामने कोई जादू सा खुल रहा था. इठारना की खूबसूरती के बारे में सुना खूब था लेकिन कह सकती हूं कि जितना भी सुना था, सब बहुत कम था.
मैं इठारना की बाबत क्या लिखूंगी कि वह इस कदर खूबसूरत है, इस कदर मोहक आश्चर्यजनक सौन्दर्य. जैसे-जैसे हम रास्तों पर बढ़ रहे थे, शब्द पीछे छूटते जा रहे थे. एक मीठा मौन पूरे सफर में हमारी कलाई थामे बैठा था. बीच-बीच में मेरे होंठ बुदबुदा रहे थे. उफ्फ्फ मैं मर जाऊंगी...मेरी आंखें लगातार बह रही थीं. मेरे हाथ कार के बाहर मौसम को थाम लेने को बेताब थे जबकि मौसम कार के भीतर ही नहीं, हमारे भीतर आ चुका था. मेरे गालों को छूकर हवा के झोंकों ने मानो कहा हो, ‘प्रतिभा यह सब तुम्हारे ही लिए है. सिर्फ तुम्हारे लिए.’ हां मैंने यह आवाज़ सुनी, सच में. मैंने अपनी सिसकी की आवाज़ को सुना और आंखें बंद कर लीं. इतना मोहक सौन्दर्य, कुदरत की इतनी सारी नेमतें मेरे लिए? सिर्फ मेरे लिए? और क्या चाहिए मुझे जीवन में...मेरे भीतर की नदी का वेग बढ़ चुका था, मेरे भीतर का जंगल बाहर के जंगल से मिलने को बेताब था. मैंने अपनी सिसकी की आवाज़ को सुना और मुस्कुरा दी.
स्कॉटलैंड के पहाड़ों को देखते हुए जब मैंने उत्तराखंड के पहाड़ों को याद किया था तब यह नहीं सोचा था कि एक रोज उत्तराखंड के पहाड़ों से गुजरते हुए स्कॉटलैंड और गुलमर्ग को इतनी शिद्दत से याद करूंगी. मैं आध्यात्मिक नहीं हूं. मेरे लिए कुदरत ही ईश्वर है और मानवता ही धर्म. लेकिन यह जानती हूं कि जीवन में पहली बार दिव्यता के ऐसे एहसास से गुलमर्ग के रास्तों में सामना हुआ था. शायद इसे ही ईश्वर के दर्शन होना कहते होंगे धार्मिक लोग कि सच में हम खुद से छूटने लगते हैं. हममें हमारा है ही क्या. इस जीवन का अर्थ क्या है आखिर...बेहद हरे जंगल, पहाड़ों पर बादलों की मटरगश्ती और वादियों में गूंजती एक खामोश धुन इन सबको जंगल की खुशबू में डुबोकर बस बूंद भर चख लीजिये ज़िन्दगी के तमाम मसायल हल हो जायेंगे. सच में.
हम जीवन को कहां-कहां ढूंढते फिरते हैं जबकि होती है वो वहीं, एकदम करीब आपकी बांह थामे मंद-मंद मुस्कुराते हुए. मैंने जीवन को देखा और झूठमूठ के गुस्से से भरकर कहा, ‘अब तक कहां थे’? उसने कनखियों से मुझे देखते हुए पहाड़ पर मंडराते बादलों पर नजरें टिकाते हुए कहा,
इठारना...अब यह जगह नहीं एहसास का नाम है. मुझे हमेशा लगता रहा है कि पहाड़ों को बारिशों में देखना चाहिए. बादलों की ऐसी चपलता, इठलाना, शरारत करना हरे रंग के जादू में लिपटे सफेद मखमली बादल उफ्फ्फ....मैं उस मंजर को कैद नहीं कर पा रही थी. यही वो समय होता है जब कुदरत कहती है तुम्हारे आईफोन, डीएसएलआर के बस का नहीं है मुझे कैद करना. अरे सबके बस का तो यहां आकर भी मुझसे मिलना नहीं है. कि आओ मेरे करीब अपने तमाम आवरण उतारकर...जैसे इबादत में होने से पहले उतारने होते हैं तमाम छल प्रपंच. मेरे मौन के भीतर शब्द की एक कंकड़ी भी जब तक बची रही मेरे और कुदरत के बीच तनिक दूरी बनी रही शायद. लेकिन कुदरत का मेरा रिश्ता जग जाहिर है. कुदरत मेरा साथ कभी नहीं छोड़ती, बारिशें हमेशा मेरे सर पर आशीष बरसाने को व्याकुल रहती हैं. यात्रा के ठीक बीच में बूंदों के सैलाब ने मुझे खींचकर कार के बाहर निकाल लिया और शब्द की आखिरी कंकड़ी भी उठाकर दूर कहीं वादी में उछाल दी. अब मेरे और कुदरत के बीच कोई नहीं था...कोई नहीं. प्रेम टुकुर-टुकुर मुझे देख रहा था. हम तीनों हंस रहे थे, हम तीनों एक दूसरे में इकसार हो चुके थे. कोई आवाज़ नहीं, कोई बात नहीं बस कुदरत की दिव्यता के आगे सजदे में झुका हमारा सर और झर झर झरती बूंदों की ओढ़नी.
जीवन सच में बेहद खूबसूरत है और ये हमारे बहुत करीब ही है. हमने दुनियादारी के शोर में इसे बिसरा दिया है. और इसे ही खोजते फिर रहे हैं. सुख और दुःख के बीच ही नहीं दुःख और उदासी के बीच भी एक रौशनी होती है. हम उस रौशनी को देख नहीं पाते. वो रौशनी हमारे अंतस को उजला करती है. हमें और परिष्कृत करती है, और बेहतर मनुष्य बनाती है. मैंने हर यात्रा के दौरान खुद के भीतर कुछ टूटता हुआ महसूस किया है. कुछ गिरता हुआ. और हर यात्रा से वापसी के दौरान खुद को थोड़ा और हल्का पाया है. यात्राओं के बाद ज्यादा प्रेम से भरकर लौटती हूं. इस यात्रा के मध्य में ही यह सुर मुझे मिल गया था. अचानक. मैंने हैरत से खुद को देखा, ये मैं थी क्या? मैं ही थी क्या?
चीज़ों के मोह में निबद्ध, उनके छूटने के दुःख से उदास....लेकिन यह क्या कि कोई मोह बचा ही नहीं, न कोई दुःख. सब एकदम से आसान होता गया. सिर्फ एक सुखद ख़ामोशी और जीवन के प्रति आश्वस्ति थी मेरे पास. रेखाओं से खाली हथेलियां बारिश की बूंदों से भर उठी थीं. मेरे पांव थिरक उठे थे, कामनाओं का जादू उभार पर था और बारिश उसी थिरकन के साथ लहरा-लहरा के समूची वादी को भिगो रही थी. मैंने हमेशा जब भी बारिश चाही है, जिस भी शहर में, जिस भी मौसम में चाही है जाने कैसे हुआ ये अचरज कि वो मुझसे मिलने आई है. हर बार मैं इस इत्तिफाक पर मुस्कुराती हूं, और नए इत्तिफाक के इंतज़ार पर निगाहें टिका देती हूं. लेकिन बारिश मुझे कभी निराश नहीं करती. इस बार भी नहीं किया. वह ठीक उस वक्त आई जब हम पैदल घूमकर थक चुके थे और चाय की प्याली लिए सुस्ता रहे थे. बारिश अपने तमाम करिश्मे लिए आ गयी. हम चाय पीते पीते बारिश के करिश्मों से चमत्कृत होते रहे. मैंने अपनी सपनों से भरी आंखें और प्रेमिल हथेलियां बारिशों को सौंप दीं...मेरी देह ही नहीं इस बारिश में मेरी आत्मा भी भीग रही थी.
कभी दूर से से देखते थे बादल और खुश होते थे लेकिन अगर वही बादल आये और आकर लिपट जाए तो. हम बादलों के बीच में थे. एकदम बीच में. वादी से उड़ता हुआ बादल आकर हमारे कांधे पर बैठा था. कोई बादल चाय के प्याले को घेर रहा था. कोई सर पर हाथ फिरा रहा था. जब हम टहलने लगे तो हमने पाया कि हम अकेले नहीं हैं, बादल भी है हमारे साथ. उस दूधिया बादल का हाथ थाम चलते जाने का सुख अद्भुत था. मैं बादल हो गयी थी. मैंने बादल से कहा था, तुम भी प्रतिभा हो जाओ न. वो मुस्कुरा दिया...हम एक ही थे...सारे रास्ते बादल साथ चलते रहे. सर पर हाथ फिराते हुए कहते रहे, सब कुछ होना बचा रहेगा, परेशान न हो. और सच में मैं परेशान नहीं थी.
जब मैं जा रही थी तब कोई और थी और जब लौट रही थी तब कोई और हो चुकी थी. जिन उदासियों को काटने के लिए यह यात्रा चुनी थी यात्रा के मध्य में पाया कि वो उदासी तो थी ही नहीं, वो तो एक वहम थी. लौटते समय हमें जानबूझकर अपने रास्ते खो दिए और बारिशों को गले से लगाये सड़कों पर पसरे रहे लौटना सिर्फ एक वहम होता है हम वहीं कहीं छूट गये हैं. लौट आई देह के भीतर कितना कुछ नया उग आया है. देह के भीतर का जंगल और घना हुआ है, नदी थोड़ी और चंचल हुई है, मन तनिक और निर्मल हुआ है.
"ओ इठारना, तुम जीवन में शामिल हो गये हो सांसों की तरह, प्रेम की तरह, उम्मीद की तरह..."
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