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'नेता धर्मों में कराते झगड़ा, आम भारतीय तो सबको स्वीकार करता है', ये बात सच है?

85% लोगों का मानना ​​है कि विभिन्न धर्मों के व्यक्तियों के बीच विवाह मंजूर नहीं है

रुक्मिणी एस
लाइफस्टाइल
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<div class="paragraphs"><p>एक सर्वे के अनुसार 36 फीसदी हिंदू किसी भी मुस्लिम को पड़ोसी नहीं बनाना चाहते हैं.</p></div>
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एक सर्वे के अनुसार 36 फीसदी हिंदू किसी भी मुस्लिम को पड़ोसी नहीं बनाना चाहते हैं.

फोटो : द क्विंट 

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भारतीय (Indian) कभी भी यह स्वीकार नहीं करते हैं कि वे धार्मिक रूढ़िवादी हैं. भारत (India) के बारे में यह आम धारणा है कि जहां एक ओर नेता वोट जुटाने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा लेते हैं वहीं दूसरी ओर आम भारतीय वास्तव में उदार व्यक्ति होते हैं जो अपने सहयोगी के घर की ईद की दावत के लिए आमंत्रण की प्रतीक्षा करता है और दिवाली के दौरान कार्यालय में मिठाई भी लाते हैं. यह ठीक वैसे ही होता है जैसा कि अनगिनत भारतीय विज्ञापनों में दिखाया जाता है. जबकि वास्तविकता थोड़ी अधिक जटिल है. हर भारतीय यह नहीं चाहता कि उनके धर्म को सभी पर थोपा जाए, लेकिन इसका यह मतलब बिल्कुल भी नहीं है कि वे अन्य समुदाय के लोगों के साथ दोस्ती करना चाहता है. ऐसे में इन लोगों के लिए अपने समुदाय या परिवार के हिस्से के रूप में किसी अन्य समुदाय को स्वीकार करने की तो बात बहुत दूर है.

"34 देशों में हुए प्यू सर्वे (Pew survey) के अनुसार भारत ने अपने धर्म का स्वतंत्र रूप से प्रैक्टिस करने के लोगों के अधिकार के समर्थन के मामले में औसत से अधिक स्कोर किया. कुल मिलाकर एक राष्ट्र के रूप में भारतीय कौन हैं, इसका एक प्रमुख घटक धार्मिक सहिष्णुता प्रतीत होता है. सभी प्रमुख धार्मिक समूहों में से अधिकांश उत्तरदाताओं ने कहा कि 'वास्तव में या सच्चे भारतीय' होने के लिए सभी धर्मों का सम्मान करना बहुत महत्वपूर्ण है. यहां पर अन्य धर्मों का सम्मान करना उनके अपने धार्मिक समुदाय के सदस्य होने का एक महत्वपूर्ण पहलू था.

ऐसे में अखबारों की सुर्खियां और हेडलाइन्स इस तथ्य व सर्वे के परिणाम पर उछल पड़ीं कि कुल मिलाकर भारतीय धार्मिक रूप से सहिष्णु है. अखबारों ने लोगों के बीच व्यापक धारणा बनाने के लिए इसे प्रिय स्थिति के तौर पर भी प्रस्तुत किया; 70% हिंदू युवाओं ने किसी को भी बीफ खाने की अनुमति देने का विरोध किया और एक तिहाई युवाओं ने अंतर्जातीय विवाह का विरोध किया.

लेकिन हम सब 'उदार' नहीं हैं!

दूसरी ओर सहिष्णु विचारों के बारे में कुछ विशेष प्रश्न ऐसे हैं जो वाकई में गहरे धार्मिक संर्कीणता को प्रदर्शित करते हैं और कुछ मामलों तो वे पूरी तरह से दुश्मनी को दिखाते हैं. भारत में बहुसंख्यक हिंदू खुद को अपने ही देश के मुस्लिमों (66%) से बेहद अलग मानते हैं, वहीं अधिकांश मुसलमान भी ऐसा ही महसूस करते हैं और यह कहते हैं कि वे हिंदुओं (64%) से काफी अलग हैं.

2019 में किए गए एक देशव्यापी सर्वे में, एक तिहाई से अधिक हिंदू उत्तरदाताओं का यह मानना था कि मुसलमान देश भक्त नहीं हैं (हालांकि मुस्लिम उत्तरदाताओं ने अपने बारे में ऐसा महसूस नहीं किया).

चार राज्यों के सर्वे में, 40% हिंदुओं और 43% सिखों ने यह माना कि मुस्लिम ज्यादातर हिंसक या आक्रामक होते हैं जबकि मुसलमानों ने किसी भी अन्य धर्म के लोगों को ज्यादा हिंसक या आक्रामक नहीं माना."

Whole Numbers and Half Truths: What Data Can and Cannot Tell Us About Modern India

वेस्टलैंड पब्लिकेशन

अब तक आपने जो पढ़ा वह रुक्मिणी एस (Rukmini S) की किताब होल नंबर्स एंड हाफ ट्रुथ्स: व्हाट डेटा कैन एंड कैन टेल अस अबाउट मॉडर्न इंडिया (Whole Numbers and Half Truths: What Data Can and Cannot Tell Us About Modern India) का एक अंश है, जो वेस्टलैंड पब्लिकेशन की सहायक कंपनी कॉन्टेक्स्ट द्वारा प्रकाशित किया गया है.

रुक्मिणी एस

वेस्टलैंड पब्लिकेशन

यह पुस्तक कठिन तथ्यों और भारत की जटिल राजनीतिक वास्तविकता के आधार पर आज के भारत की तस्वीर को प्रस्तुत करती है, इसके साथ ही इसकी जांच और इस पर पुनर्विचार करने के लिए नंबरों का उपयोग करती है.

अब फिर से हम पुस्तक के अंश पर वापस चलते हैं...

पिछले अंश से जारी...

"आंकड़े इस तथ्य का समर्थन करते हैं कि आवास अलगाव यानी (housing segregation) का सामना विशेष रूप से मुसलमान करते हैं. सबसे ज्यादा जैन और हिंदू ऐसे थे जो दूसरे समुदाय (विशेष तौर पर मुसलमान) को अपना पड़ोसी नहीं बनाना चाहते. 36 प्रतिशत हिंदुओं ने कहा कि वे एक मुस्लिम पड़ोसी को स्वीकार नहीं करेंगे, जबकि सिर्फ 16 प्रतिशत मुसलमानों ने कहा कि वे हिंदू पड़ोसियों को पसंद नहीं करते हैं. ये डाटा तब प्राप्त हुआ जब 2015 के एक प्रयोग के दौरान उच्च जाति के हिंदू, दलित और मुस्लिम उपनाम वाले संभावित किरायेदारों ने दिल्ली और उसके आसपास किराये की लिस्टिंग का जवाब दिया था. हर तरह से एक जैसे होते हुए भी सभी उच्च-जाति के लोगों को मकान मालिक से अच्छी प्रतिक्रिया मिली और मकान मालिक ने उन्हें किराए पर आवास देने की इच्छा व्यक्त की.

दूसरी ओर, 59 प्रतिशत संभावित दलित किराएदारों को अच्छी प्रतिक्रिया मिली, 23% को अलग नियमों और शर्ताें (जैसे बढ़ी हुई दरों) के साथ सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली जबकि 18 प्रतिशत को मना कर दिया गया.

वहीं हर तीन मुस्लिम में से केवल एक को अच्छी प्रतिक्रिया मिली, अन्य 36% को शर्तों के साथ सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली जबकि बचे हुए 30% को एक सिरे से मना कर दिया गया.

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एक मुस्लिम 'बस्ती' में पली-बढ़ी

सना इकबाल दिल्ली के जामिया नगर में पली-बढ़ी है. सना उस जगह को एक मुस्लिम बस्ती बताती हैं. सना ने ब्रिटेन में पढ़ाई की थी और मुंबई में काम किया था, यहीं वह अपने पति से मिली थी. 2018 में जब वे और उनके पति दिल्ली स्थानांतरित हुए तो वह एक अधिक विविध या मिश्रित क्षेत्र में रहना चाहती थीं. “हमें पड़ोसियों की परवाह नहीं थी, हम केवल एक ऐसे क्षेत्र में रहना चाहते थे जहां हम सामान्य सी चीजें जैसे कि दक्षिण पूर्व एशियाई सामग्री खरीद सकें और ड्रिंक प्राप्त कर सकें." ऐसा डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता ने मजाक में कहा.

इस दंपति ने दिल्ली में सात सप्ताह तक घर खोजा और लगभग 15 से अधिक जगहों के बारे में चर्चा की लेकिन हर जगह जैसे ही इनका नाम सामने आता वहां से से इन्हें घर मिलने की बजाय निराशा हाथ लगती.ब्रोकर ने उन्हें यह भी सलाह दी कि वे अपना नाम बदल लें. आखिरकार थक हार कर इस दंपति ने जामिया नगर में रहने का फैसला किया, जहां से वे अच्छी तरह से परिचित थे. उन्होंने कहा कि "मेरे लिए यह यहूदी बस्ती (ghettoisation) है, जहां अपने समुदाय के साथ रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है, क्योंकि कोई और आपका साथ नहीं देगा."

जहां अन्य धर्मों के व्यक्तियों को पड़ोसियों के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है, ऐसे में वहां परिवार के रूप में स्वीकार करने की सोच ही अकल्पनीय लगती है.

एक बड़े राष्ट्रीय सर्वे के अनुसार, 85% लोगों का मानना ​​है कि विभिन्न धर्मों के व्यक्तियों के बीच विवाह स्वीकार्य नहीं है. बुजुर्गों की तुलना में नव युवाओं (20 वर्ष के आस-पास) ने इस बात पर ज्यादा देकर कहा कि अलग-अलग धर्म के बीच शादी नहीं होनी चाहिए. इसके साथ ही न तो आय और न ही शिक्षा ने अलग-अलग धर्म के बीच होने वाली शादी को स्वीकार करने की संभावना को बढ़ाया.

अंतर-धार्मिक शादियों को रोकने में भारतीय व्यापक रूप से इच्छुक हैं. कई धार्मिक समूहों में भारी मतों के साथ लोगों ने कहा कि उनके समुदाय के लोगों को अन्य धार्मिक समूहों में विवाह करने से रोकना बहुत जरूरी है. लगभग दो-तिहाई हिंदू भारत में हिंदू महिलाओं (67%) या हिंदू पुरुषों (67%) को उनके धर्म (65%) से बाहर शादी करने से रोकना चाहते थे. ऐसा ही मुसलमानों के बड़े हिस्से ने भी महसूस किया : 80% मुसलमान मानते हैं कि मुस्लिम महिलाओं को उनके धर्म से बाहर शादी करने से रोकना महत्वपूर्ण है, वहीं 76% का मानना ​​है कि मुस्लिम पुरुषों को उनके धर्म से बाहर शादी करने से रोकना जरूरी है.

प्रगतिशील नहीं हैं भारत के युवा

युवाओं में ज्यादा प्रगतिशील विश्वास नहीं होते हैं; युवाओं के नजरिए पर आधारित 2017 के एक सर्वे के अनुसार, 10 में से 6 उत्तरदाताओं ने धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाली फिल्मों पर प्रतिबंध लगाने का समर्थन किया, वहीं मुस्लिम युवाओं ने इसका और भी जोर से समर्थन किया.

भारत में मुसलमान हिंदुओं की तुलना में अन्य धर्मों के लोगों के प्रति अधिक सहिष्णु नहीं हैं; यह जो अंतर है वह संरक्षण और सरकार के समर्थन में निहित है जो अब शक्तिशाली हिंदू बहुसंख्यकवाद को प्रदान किया गया है.

मुस्लिम युवाओं में दूसरों की तुलना में यह कहने की अधिक संभावना थी कि उन्हें अपने धर्म के कारण पूर्वाग्रह या भेदभाव का सामना करना पड़ा था. सर्वे में शामिल मुस्लिम युवाओं में से लगभग हर सात में एक या 13% ने यह कहा कि उन्हें अपनी मुस्लिम स्थिति के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा है. छोटे शहरों में मुस्लिम किशोरों के साथ उनके धर्म के कारण भेदभाव किए जाने की सबसे अधिक संभावना थी; 27% ने कहा कि उनके साथ खराब व्यवहार इसलिए किया गया, क्योंकि वे मुस्लिम थे.

जब शोएब को मिली थी धमकी

उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में एक संपन्न परिवार में पले-बढ़े 25 वर्षीय शोएब अख्तर, एक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के बेटे और अपने स्कूल की क्रिकेट टीम के कप्तान थे. शोएब कहते हैं कि "मैं ईमानदारी से कह सकता हूं कि मैंने कॉलेज तक बहुत कम भेदभाव का अनुभव किया. मैंने जो कुछ अनुभव किया, यह उससे ज्यादा कुछ ऐसा था जिसके बारे में मैंने अखबारों में पढ़ा था."

जब शोएब ने अपनी बिजनेस डिग्री पूरी की और अपनी पहली नौकरी के दौरान पेट्रोकेमिकल्स कंपनी के लिए काम करने के लिए पश्चिमी राज्य गुजरात के 1,50,000 की आबादी वाले भरूच शहर में गए तब सब कुछ बदल गया.

शुरुआत में शोएब से उनके साथी थोड़ी दूरी बनाकर रखते थे, उन्हें यह अहसास और याद दिलाते थे कि ऑफिस शाकाहारी है, जब शोएब आस-पास होते थे तब उनके साथी गुजराती में मोदी के बारे में बात करते थे.

चीजें धीरे-धीरे बिगड़ती गईं. एक महिला सहकर्मी जोकि अकाउंटेंट थी उससे बात करने के लिए उन्हें फटकार भी लगाई गई इसके साथ उनसे यह भी कहा गया कि वे रमजान के पवित्र महीने में टोपी नहीं पहन सकते हैं.

एक सुबह जब शोएब ने अपने ऑफिस के ईमेल को खोला तो वहां उसे मौत की धमकी मिली. उसके दो हफ्ते बाद शोएब को बाहर कर दिया गया.

2019 में शोएब टोरेंटो, कनाडा में शिफ्ट हो गए वहीं से वे कहते हैं कि "यह अंत नहीं था - यह केवल मेरी समझ की शुरुआत थी कि अब भारत में मुस्लिम होना कैसा है. मैं अभी भी किसी भारतीय बल्लेबाज के ढीले स्ट्रोक की आलोचना करते हुए एक ट्वीट नहीं कर सकता. ऐसा करते ही ही गालियां पड़ेंगी ([मुसलमानों के लिए अपमानजनक शब्द] और गालियां देने वाले मेरे सहकर्मी या पड़ोसी नहीं हैं."

इस बात के प्रमाण हैं कि भारत अब अधिक बहुसंख्यकवादी बन गया है. युवा भारतीयों के एक सर्वे में शामिल आधे से अधिक (53%) का मानना है कि लोग दूसरों के दृष्टिकोण के प्रति कम सहिष्णु हो गए हैं. वहीं एक-चौथाई युवाओं (23%) ने राजनीतिक मुद्दे पर अपनी राय साझा करने में संकोच किया है.

मुस्लिम और सिख जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों के युवा, जिनके असहिष्णुता से प्रभावित होने की संभावना अधिक थी, वे इस बात से सहमत थे कि समाज ने अब स्वीकार करना कम कर दिया है यानी कि लोग कम सहिष्णु हो गए हैं.

(लेख में प्रयुक्त उपरोक्त बातें रुक्मिणी एस की किताब Whole Numbers and Half Truths: What Data Can and Cannot Tell Us About Modern India के अंश हैं. जिन्हें पैराग्राफ ब्रेक, सबहेडिंग और ब्लर्ब्स के माध्यम से क्विंट द्वारा पाठकों के लिए आसानी से पढ़ने के लिए पेश किया गया है.)

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