मंगलवार 29 जून को प्यू रिसर्च सेंटर (Pew Research Centre) ने 'भारत में धर्म: सहिष्णुता और अलगाव' (Religion in India: Tolerance and Segregation) शीर्षक वाला सर्वे जारी किया. सर्वे के कई परिणाम हैरान करने वाले हैं और वो धार्मिक स्तर पर भारतीय समाज की मानसिकता को समझने का मौका देते हैं.एक तरफ तो अधिकतर भारतीय धार्मिक सहिष्णुता को अपने धर्म का अभिन्न अंग मानते हैं तो वहीं दूसरी तरफ कई मामलों में वो धर्म के प्रति अपने दृष्टिकोण में अभी भी रूढ़िवादी हैं.
इसके परिणामों से भारतीय समाज की जो प्रकृति सामने आती है क्या वह 'हम भारत के लोग' की भावना वाले भारतीय संविधान के मूल्यों से मेल खाती है? क्या देश में प्रचलित कानून और भारतीय नागरिकों की सोच एक तरह की है? पिछले 70 सालों में संवैधानिक मूल्यों ने धार्मिक रूढ़िवादी सोच को कितना कमजोर किया है?
29,999 भारतीयों ( 22,975 हिंदू , 3,336 मुस्लिम, 1,782 सिख , 1,011 ईसाई, 719 बौद्ध ,109 जैन तथा 67 धार्मिक रूप से असंबद्ध) के बीच 17 नवंबर 2019 से 23 मार्च 2020 तक फेस-टू-फेस इंटरव्यू लेने के बाद यह सर्वे सामने आया है.
धार्मिक आजादी,सहिष्णुता और संविधान
सर्वे के अनुसार 91% हिंदुओं, 89% मुस्लिमों, 89% ईसाइयों, 82% सिखों, 93% बौद्धों और 85% जैनों को लगता है कि उन्हें भारत में अपने धर्म को मानने की पूरी आजादी है. 84% भारतीयों को लगता है कि एक 'सच्चा' भारतीय होने के लिए सभी धर्मों का सम्मान करना जरूरी है. साथ ही 80% भारतीयों के अनुसार दूसरों धर्म का सम्मान करना उनके धार्मिक पहचान का महत्वपूर्ण अंग है. यहां पर भारतीयों के विचार संवैधानिक मूल्यों के अनुसार ही हैं.
संविधान क्या कहता है?
भारतीय 'संविधान की आत्मा' कही जाने वाली प्रस्तावना के अनुसार संविधान सभी भारतीयों को "विचार, अभिव्यक्ति ,विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता" देता है.
अनुच्छेद 25(1): सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा.
अनुच्छेद 26:( धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता)- (क) व्यक्ति को अपने धर्म की स्वतंत्रता और पोषण का,(ख) अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का,(ग) चल-अचल संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का,(घ) ऐसी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार होगा.
अनुच्छेद 27: किसी व्यक्ति को धर्म की अभिवृद्धि (प्रमोशन) के लिए करों के संदाय (पेमेंट)से स्वतंत्रता.
अनुच्छेद 28: कुछ शिक्षा संस्थानों में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता
अंतर-धार्मिक शादी का विरोध
सर्वे के मुताबिक तीन में से दो भारतीय अपने धर्म से बाहर शादी करने वाले लोगों के विरोध में हैं. जवाब देने वाले 67 फीसदी लोगों ने कहा कि उनके लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि उनके समुदाय की महिलाओं के अंतर-धार्मिक विवाह को रोका जाए जबकि 65 फीसदी ने अपने समुदाय के पुरुषों के बारे में यह कहा.
संविधान और SC के निर्णय
अनुच्छेद 25-28 किसी भी भारतीय को अपने पसंद के धर्म को मानने की स्वतंत्रता देता है. अंतर-धार्मिक शादी का विरोध इसका स्पष्ट उल्लंघन है. यह ना केवल नागरिकों के ईश्वर के साथ निजी संबंधों में बल्कि उनके जीवनसाथी की पसंद में भी हस्तक्षेप है.
अनुच्छेद 21: (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण ) सुप्रीम कोर्ट ने शफीन जहां बनाम अशोक के.एम (2018) मामले में अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने के अधिकार को अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार का अंग माना था.
सुप्रीम कोर्ट ने केएस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2017) के फैसले में कहा कि "पारिवारिक जीवन के चुनाव का अधिकार मौलिक अधिकार का अंग है".
दूसरे धर्म के लोगों को पड़ोसी के रूप में स्वीकार नहीं करना
सर्वे के अनुसार 36% हिंदू भारतीय मुस्लिम पड़ोसी को स्वीकार करने के लिए राजी नहीं है, जबकि 16% मुस्लिम हिंदू पड़ोसी नहीं चाहते. 45% हिंदुओं को पड़ोसी के रूप में कम से कम किसी एक अन्य धर्म के लोगों से परेशानी है. यह आंकड़ा मुस्लिमों में 36%, ईसाइयों में 29%, सिखों में 48%, बौद्धों में 24% जबकि जैनों में 61% तक है. यह धार्मिक सहिष्णुता के लिए अच्छा उदाहरण नहीं है.
संविधान और SC के निर्णय
धार्मिक आधार पर किसी को पड़ोसी के रूप में अस्वीकार करना संविधान की प्रस्तावना-विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,प्रतिष्ठा की समानता, व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता-अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता- के भावना के खिलाफ है.
यह अनुच्छेद 15(2) का उल्लंघन है, जिसके अनुसार " कोई नागरिक केवल धर्म, मूल ,वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर- दुकानों, सार्वजनिक भोजनालय, होटलों, सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश...... के संबंध में किसी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा.
ओग्ला टेलिस बनाम मुंबई नगर निगम (1981) के ऐतिहासिक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के व्यापक अधिकार का हिस्सा होने के नाते पर्याप्त आवास, आश्रय और आजीविका के अधिकार को उसका अंग माना था.
'सच्चा भारतीय' होने के लिए हिंदू होना और हिंदी बोलना आवश्यक?
सर्वे में पाया गया कि बहुसंख्यक हिंदू अपनी धार्मिक पहचान और भारतीय राष्ट्रीय पहचान को आपस में जोड़ कर देखते हैं.लगभग दो-तिहाई हिंदुओं (64% )का मानना है कि 'सच्चा भारतीय' होने के लिए हिंदू होना बहुत महत्वपूर्ण है .अधिकांश हिंदू (59%) भारतीय पहचान को हिंदी बोलने में सक्षम होने के साथ जोड़ते हैं. 51% हिंदू 'सच्चा भारतीय' होने के लिए हिंदू होने और हिंदी बोलने,दोनों को बहुत आवश्यक मानते हैं.
संविधान और संबंधित कानून
संविधान का भाग 2 (अनुच्छेद 5 से 11) भारत की नागरिकता के लिए धर्म या भाषा को कसौटी के रूप में स्वीकार नहीं करता. संविधान की प्रस्तावना से लेकर भाग-3 तक में धर्म या भाषा को भारतीय होने या मौलिक अधिकारों के लिए आधार के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है.
इसके अलावा भारतीय नागरिकता कानून,1955 और 2019 में नागरिकता कानून में संशोधन भी हिंदू धर्म को भारतीय होने के लिए आवश्यक नहीं मानता.हालांकि संशोधित कानून के आलोचकों ने उस पर संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध होने का आरोप लगाया था, क्योंकि यह भारतीय नागरिकता देने के लिए कुछ देशों के गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को वरियता देता है.
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