Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019India Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019राम जन्मभूमि पर जजमेंट के आखिरी पन्‍नों को लेकर विवाद क्‍यों है?

राम जन्मभूमि पर जजमेंट के आखिरी पन्‍नों को लेकर विवाद क्‍यों है?

अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट का 1,045 पन्नों का फैसला असल में दो दस्तावेजों से बना है.

वकाशा सचदेव
भारत
Published:
अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट का 1,045 पन्नों का फैसला असल में दो दस्तावेजों से बना है.
i
अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट का 1,045 पन्नों का फैसला असल में दो दस्तावेजों से बना है.
(फोटो: क्विंट हिंदी)

advertisement

अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट का 1,045 पन्नों का फैसला असल में दो दस्तावेजों से बना है. पहला मुख्य हिस्सा 929 पन्नों का फैसला है, जो कि सभी पांच जजों (सीजेआई रंजन गोगोई के साथ जस्टिस एसए बोबडे, डी वाई चंद्रचूड़, अशोक भूषण और अब्दुल नजीर) द्वारा सर्वसम्मति से लिया गया फैसला है.

दूसरा दस्तावेज मुख्य फैसले का एक 'Addendum' यानी 'परिशिष्ट' है. इसे बेंच में से एक जज ने निम्नलिखित मुद्दे पर अलग-अलग कारणों को रिकॉर्ड करने के लिए इसका इस्तेमाल किया है:

"हिंदुओं की आस्था और धार्मिक विश्वास के अनुरूप क्या विवादित ढांचा भगवान राम का पवित्र जन्म स्थान है?"

इस बात का जिक्र नहीं है कि किस जज ने यह 'परिशिष्ट' लिखा है.

धार्मिक विश्वास और आस्था: क्या कहता है परिशिष्ट

मुख्य फैसले ने इस सवाल पर जाने से परहेज किया, जिसमें जजों ने कहा कि वे मालिकाना हक विवाद पर ध्यान देना चाहते हैं. पेज 908 पर जजों ने कहा:

“मालिकाना हक धार्मिक विश्वास और आस्था के आधार पर स्थापित नहीं किया जा सकता है. धार्मिक विश्वास और आस्था उस स्थल पर पूजा के पैटर्न की ओर संकेतक हैं जिनके आधार पर कब्जे का दावा किया जाता है.”

जैसा कि मुख्य फैसला पूरी विवादित भूमि को समग्र रूप से देखता है, यह तय करने के लिए जरूरी नहीं है कि हिंदू मान्यता उस सटीक स्थान पर विचार करता है या नहीं जिस पर भगवान राम का जन्म बाबरी मस्जिद के ढांचे के अंदर या बाहर हुआ था.

हालांकि ये परिशिष्ट इलाहाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश किए गए मौखिक और दस्तावेजी सबूतों की जांच करता है और पाता है कि:

“रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों के अनुसार हिंदुओं की आस्था और विश्वास साफ रूप से यह स्थापित करता है कि हिंदुओं की मान्यता [इस प्रकार है] कि भगवान राम के जन्म स्थान पर, मस्जिद का निर्माण किया गया था और तीन गुंबद वाली संरचना भगवान राम का जन्म स्थान है.”

यह ध्यान रखना मुनासिब है कि जब महंत रघुबर दास द्वारा 1885 में स्थल के बारे में पहले कानूनी दावे उठाए गए थे, तो मस्जिद के बाहरी आंगन में एक उभरे हुए मंच 'राम चबूतरा' को स्थल पर भगवान राम की जन्मभूमि के तौर पर देखा गया था.

हालांकि, परिशिष्ट का कहना है कि राम चबूतरा पर पूजा प्रतीकात्मक थी, न कि यह संकेत कि यहां भगवान राम का जन्म हुआ था.

यह तय करने के लिए, इसे लिखने वाले जज ने ब्रिटिश काल के पुराने राजपत्रों (गजट) का उल्लेख किया है जो इस बात को दोहराते हैं कि मस्जिद एक 'जनमस्थान मंदिर' की साइट पर बनाई गई थी. साथ ही राजपत्रों में इस बात का भी जिक्र है कि मस्जिद के अधिकारियों द्वारा हिंदुओं के खिलाफ प्रशासन से शिकायत की गई थी कि वे मस्जिद के अंदर प्रार्थना करते हैं और वहाँ भगवान राम की पूजा के लिए मूर्तियां रखते हैं.

इलाहाबाद हाई कोर्ट दोनों पक्षों के गवाहों की जांच की गई, जिसमें कहा गया कि कैसे मुसलमानों ने इस स्थल को बाबरी मस्जिद करार दिया जबकि हिंदुओं ने इसे राम जन्मभूमि माना.

ये भी पढ़ें- अयोध्या फैसले पर विदेशी मीडिया में क्या छपा?

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

यह विवादित क्यों है?

यह बात अजीब है कि परिशिष्ट लिखने वाले जज को लगा कि फैसले में इस तरह का दृढ़ संकल्प करने की जरूरत है. मुख्य फैसला और मालिकाना का सवाल इस बात पर आ गया कि कौन पूरे विवादित स्थल पर कब्जा करने के लिए सबसे अच्छा साबित हो सकता था - एक सीमित बिंदु से परे इसके लिए धार्मिक विश्वास और आस्था जरूरी नहीं था.

"यह तथ्य कि एक आस्था और धार्मिक विश्वास हालांकि एक ऐसा मामला है जो वास्तविक स्थान से अलग है जहां पूजा की जाती थी," यह बात पेज 658 पर पैरा 556 में कही गई है.

ये भी पढ़ें- अयोध्या में विवादित जगह हिंदुओं को, मुस्लिमों को दूसरी जगह: SC

"विवाद अचल संपत्ति पर है," यह साफ करने से पहले कहा जाता है कि, "अदालत धार्मिक विश्वास या आस्था के आधार पर नहीं, बल्कि सबूतों के आधार पर मालिकाना हक तय करती है."

इससे यह सवाल उठता है कि यह परिशिष्ट तब क्यों लिखा गया - इससे मालिकाना हक विवाद के अदालत के प्रस्ताव पर कोई फर्क नहीं पड़ता की क्या 1992 में कारसेवकों द्वारा गिराए गए मस्जिद वाली जगह के अंदर या बाहर भगवान राम का जन्म हुआ था या नहीं.

यह ट्रस्ट द्वारा राम मंदिर के निर्माण को भी प्रभावित नहीं करता है, जिसे शीर्ष अदालत द्वारा स्थापित करने का निर्देश दिया गया है. यह केवल कानूनी क्षेत्र के बाहर बहस को प्रभावित करता है, जो कि अदालत के फैसले के लिए प्रासंगिक नहीं होगा.

ये भी पढ़े- सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अयोध्या में मनाई गई ‘मिनी दिवाली’

दूसरा सवाल यह है कि जिस जज ने यह फैसला लिखा है, वह अपना नाम क्यों नहीं सामने लाना चाहते. यह केवल इस तथ्य के बारे में नहीं है कि हम उस जज का नाम नहीं देख पाते हैं, जिसने इसे लिखा है, बल्कि यह उस तरीके के बारे में भी है, जिससे यह फैसला दिया गया है.

आम तौर पर, अगर जज किसी विशेष मुद्दे के पीछे व्यक्तिगत तर्क देना चाहते हैं, तो वे एक 'अलग लेकिन संक्षिप्त राय' लिखते हैं. हालांकि, एक आम फैसले की तरह, इसमें भी लिखने वाले जज द्वारा दस्तखत किए जाने की जरूरत है. एक परिशिष्ट के तौर पर यहां इस दूसरे दस्तावेज के पदनाम का मतलब है कि इसमें कोई हस्ताक्षर जरूरी नहीं है.

ये भी पढ़ें- अयोध्या: क्यों खारिज हुआ विवादित जमीन पर निर्मोही अखाड़े का दावा

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT