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टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि लोकप्रिय किसान आंदोलन अखबारों के पहले पन्ने से गायब हो चुका है. वहीं, 20 महीने से बंद जम्मू-कश्मीर को इस रूप में देखा जा रहा है कि नयी नीतियों को लागू करने के लिए यह जरूरी है. लेखक ध्यान दिलाते हैं कि सोवियत संघ के पतन के बाद कश्मीरी अलगाववादी अपनी सफलता निश्चित मान कर चल रहे थे, मगर बीते 30 साल में सफलता तो दूर, उनकी स्वायत्तता भी छिन गयी.
म्यांमार में चुनाव नतीजों को नहीं मानते हुए सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लिया. बेलारूस में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलीं, 30 हजार लोग गिरफ्तार कर लिए गए. कभी यूगोस्लाविया पर प्रतिबंध ने असर दिखाया था, लेकिन यह ईरान और रूस पर असफल साबित हुआ. म्यांमार पर भी प्रतिबंधों का कोई असर नहीं हुआ. बर्लिन की दीवार ढह जाने के बाद रूस की मनोकामना पूरी नहीं हुई.
आज रूस और चीन चाहते हैं कि अमेरिकी प्रभुत्व से दुनिया के लोकतंत्र को निजात दिलायी जाए. सीरिया और तुर्की में मॉस्को का प्रभाव बढ़ा है. म्यांमार, बेलारूस और किर्गिस्तान में रूस अपनी पकड़ बना रहा है. वहीं चीन, हॉन्गकॉन्ग में अंब्रेला रिवोल्युशन का दमन करने में कामयाब है. पश्चिम की प्रतिक्रियाओं को वह तवज्जो देने को तैयार नहीं.
तवलीन सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि कोविड की वैक्सीन लगाने के बाद मिले प्रमाणपत्र में लिखा होता है - “दवाई भी और कड़ाई भी.” उस पर एकजुट होकर कोविड-19 को हराने की बात भी लिखी होती है. वह लिखती हैं कि जब से महामारी ने हमारे देश में पांव रखा है, नरेंद्र मोदी की कोशिश रही है कि भारतवासियों के सामने साबित किया जाए कि उन्हीं की शरण में रहकर हम सुरक्षित रह सकते हैं.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि एक बार फिर लॉकडाउन जैसी स्थिति बन रही है. कोविशील्ड बनाने वाली कंपनी के प्रमुख अदार पूनावाला ने उत्पादन बढ़ाने के लिए 3000 करोड़ रुपये की सरकारी मदद मांगी है. सस्ते वैक्सीन को सुनिश्चित करते हुए यह स्थिति बनी है. लेखिका का कहना है कि अगर वैक्सीन उपलब्ध ही नहीं हो, तो सस्ते वैक्सीन का फायदा क्या?
वह महानगरों में सक्षम लोगों को हजार रुपये में वैक्सीन बेचने की वकालत करती हैं. विदेशी टीके का आयात करने की भी वह जरूरत बताती हैं. वह वैक्सीन पर प्रदेशों को अधिकार देने की वकालत करती हैं और लिखती हैं कि कोरोना के खिलाफ लड़ाई में अगर नरेंद्र मोदी ने सारी सफलताओं का श्रेय लिया है तो उन्हें गलतियों का दोष भी अपने ऊपर लेने के लिए तैयार रहना चाहिए.
द टाइम्स ऑफ इंडिया में शोभा डे लिखती हैं कि प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी कितने अच्छे वक्ता हैं, कितना अच्छा संवाद करते है! विपक्ष को बाएं-दाएं इतने अच्छे तरीके से धोते हैं और वह भी हर तरह की भाषा में, तो मजा आ जाता है. ममता बनर्जी उनके निशाने पर हैं. ममता ने अपनी प्रतिक्रियाओं से इन जुबानी हमलों को नयी ऊंचाई दी है. पीएम उन्हें गाने के अंदाज में “दीदी... ओ दीदी...” बुलाते हैं. ऐसा करते ही दर्शक उछलकर उस महिला का अपमान करने लग जाते हैं. ममता को पीएम सिंगल वुमेन भी बोल गए हैं, लेकिन वे खुद भी सिंगल हैं.
मोदी समर्थकों को यह कहना कि ममता के पास अभी खड़ा होने को पैर नहीं है, वास्तव में गलत है. उनके एक पैर बंगाल में है और दूसरे पैर के साथ वह दिल्ली भी जीत लेना चाहती हैं. बार-बार कोलकाता आना-जाना कर रहे अमित शाह कहने लगे हैं कि अहमदाबाद के ‘पानी-पुरी’ से कोलकाता का ‘फुचका’ बेहतर है. कोलकाता में ‘कैमन आछो’ की जगह अब ‘केम छो’ की गूंज सुनाई पड़ने लगी है. नरेंद्र मोदी अब गुरुदेव’ की तरह व्यवहार करते दिखने लगे हैं. मगर, शब्दों का युद्ध निचले स्तर पर भी जा चुका है.
अभिषेक बनर्जी को निशाने पर लेते हुए ‘पीशी-भाईपो’ और ‘टोलाबाज भाइपो’ कहा जाने लगा है. मोदी ने ‘भाइपो टैक्स’ की चर्चा छेड़ी है तो ममता ने ‘गुजराती गुंडे’ कहकर इसका जवाब दिया है. देखना यह है कि इस युद्ध का अंत किस तरह होता है. कहीं इस तरह ना हो- “अरे ओ सांभा- कितनी औरतें थीं?”
करन थापर ने हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा है कि रिकार्ड तोड़ कोविड संक्रमण के बीच दो मुद्दों पर ध्यान देना जरूरी है. जिन लोगों को हमें बताना चाहिए वे चुप हैं. जो सवाल कर रहे हैं वे अटपटे हैं. सार्स-कोविड-2 का म्यूटेंट (परिवर्तित रूप) तेजी से फैल रहा है. डेनमार्क और कैलीफोर्निया में पाया जाने वाला म्यूटेंट महाराष्ट्र में दिख रहा है. महाराष्ट्र की सरकार इसे 15-20 फीसदी बता रही है लेकिन इसकी संख्या लेखक के रिसर्च के मुताबिक 60 फीसदी है और यही बढ़ती मौत की वजह भी.
लेखक बताते हैं कि दुनिया में जहां जीनो सीक्वेंसी के आंकड़े 5 प्रतिशत हैं, वहीं भारत में यह 0.1 फीसदी है. इस वजह से म्यूटेंट का विश्लेषण सामने नहीं आ पा रहा है. लेखक का सुझाव है कि दो चीजें तुरंत होनी चाहिए- एक चुनाव रैलियों पर रोक और दूसरा शाही स्नान पर.
इसके अलावा लेखक का मानना है कि असम के स्वास्थ्य मंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा को तुरंत उनके पद से हटाया जाना चाहिए जिन्होंने कहा था कि असम में मास्क पहनने की कोई जरूरत नहीं है.
पी चिदंबरम ने द इंडियन एक्सप्रेस में राफेल मामले की पर्देदारी के लिए मीडिया, संसद, सीएजी और सुप्रीम कोर्ट, सबकी भमिका पर सवाल उठाए हैं. उन्होंने लिखा है कि मीडिया मामले की पड़ताल कर सकता था, लेकिन उसने सरकारी बयान को ही प्रामाणिक करार दिया. जबकि, सुप्रीम कोर्ट ने राफेल समझौते से जुड़ी कीमत और तकनीकी उपयुक्तता संबंधी मामले में दखल देने से ही मना कर दिया. सीलबंद लिफाफे में पेश बातों को ही सीएजी की रिपोर्ट समझ लिया गया, जबकि सीएजी ने तब रिपोर्ट पेश ही नहीं की थी.
चिदंबरम ने सीएजी के फैसले पर भी सवाल उठाया है कि उसने इस सौदे का व्यावसायिक ब्योरा गोपनीय रखने की वकालत की. इससे पूरा मामला ही दब गया. फ्रांस के मीडिया संगठन मीडियापार्ट ने तीन हिस्सों में अपनी रिपोर्ट में पाया है कि राफेल सौदे में बिचौलिए को दलाली दी गयी. लेखक का कहना है कि राफेल समझौते का सच जमीन खोदकर भी निकाला जाएगा. तब तक राफेल का भूत पीछा करता रहेगा.
द टेलीग्राफ में तिमोथी गार्टन एश ने लिखा है कि घने अंधकार में लोकतंत्र की मौत हो रही है. यूरोपीय यूनियन के देश पोलैंड में लोकतंत्र नाजुक स्थिति में है जहां मीडिया सत्ताधारी पार्टी के लिए प्रचार का तंत्र बन गयी है. हंगरी में अब लोकतंत्र नहीं. आखिरी स्वतंत्र रेडियो स्टेशन भी खत्म हो चुका है. पोलैंड भी उसी राह पर है. वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में पोलैंड 2015 में 18वें नंबर पर था, जो अब 62वें पर पहुंच गया है. हंगरी का नंबर 89वां है.
दोनों तरह की वास्तविकताओं का अनुभव मीडिया के जरिए हो जाता है. हंगरी में स्वतंत्र मीडिया को विज्ञापन और मदद बंद कर दिए गए हैं. विज्ञापनों पर महामारी टैक्स लगा दिया गया है. बड़े प्रेस वितरकों को सरकारी पेट्रोल कंपनी ‘ओरलेन’ ने खरीद लिया है, जिसके मालिक सरकार में मंत्री हैं. यूरोपीय यूनियन के देशों इंग्लैंड, जर्मनी भी हंगरी और पोलैंड को उबरने में मदद नहीं कर पा रहा है. हंगरी-पोलैंड ने यूरोपीय यूनियन में अलग समूह बना लिया है. अब पूरे यूरोपीय यूनियन में लोकतंत्र खतरे में है.
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