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संडे व्यू: कोविड काल में बढ़ी बचत, क्या है बिहार चुनाव का संदेश?

संडे व्यू में पढ़ें टीएन नाइनन, तवलीन सिंह, बरखा दत्त और एंथनी जर्चर का आर्टिकल.

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संडे व्यू में पढ़ें टीएन नाइनन, तवलीन सिंह, बरखा दत्त और एंथनी जर्चर का आर्टिकल.
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संडे व्यू में पढ़ें टीएन नाइनन, तवलीन सिंह, बरखा दत्त और एंथनी जर्चर का आर्टिकल.
(फोटो: Altered by Quint)

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भारतीय राजनीति को संदेश है बिहार चुनाव

बरखा दत्त ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि जिन लोगों ने बिहार में चुनाव के दौरान माहौल को महसूस किया है वे जानते हैं कि आम लोगों में नीतीश कुमार के लिए गुस्सा था. नेतृत्व बदलने पर वे इसी सरकार के साथ भी रहने को तैयार थे. वहीं तेजस्वी यादव से उम्मीद थी कि वे जनता की नाराजगी को महागठबंधन के पक्ष में कर लेंगे. लेकिन, पहले दौर के चुनाव के बाद वह टेम्पो बरकरार नहीं रह सका और स्थिति हाथ से निकलती चली गई.

बरखा लिखती हैं कि तीसरा चरण महागठबंधन के लिए आसान हो सकता था, लेकिन नहीं हो सका. मगर, इसके लिए ओवैसी को दोष देना उचित नहीं है. जिन 20 सीटों पर ओवैसी की पार्टी ने चुनाव लड़ा उनमें 9 पर आरजेडी को जीत मिली, जबकि 6 पर एनडीए को. एनडीए ने इन सीटों में एक को छोड़कर हर सीट पर जीत का अंतर ओवैसी के उम्मीदवार को मिले वोट से ज्यादा रहा. ओवैसी की पार्टी को 5 सीटें मिलीं.

ये आंकड़े बताते हैं कि ओवैसी को वोटकटवा नहीं कहा जा सकता. कांग्रेस ने गठबंधन करने और उम्मीदवार तय करने को लेकर जितनी ऊर्जा खर्च की उतनी मेहनत जमीन पर नहीं दिखा सकी. राहुल गांधी हिमाचल में अपनी बहन के घर छुट्टियां बिताते रहे. वास्तव में पहले दौर के बाद जंगलराज का खौफ दिखाकर बीजेपी ने घर-घर संपर्क किया. इसका उसे फायदा मिला और बाजी पलट गई.

अगले साल दिवाली में न रहे मास्क

तवलीन सिंह ने द इंडियन एक्सप्रेस में दिवाली के मौके पर पूरे साल का मूल्यांकन करते हुए लिखा है कि चीन को छोड़कर भारत ही नहीं पूरी दुनिया को बुरे दौर से गुजरना पड़ा है. ईश्वर से पूजा के वक्त लोगों की चाहत जरूर रहेगी कि दुनिया की अर्थव्यवस्था तबाह करने के लिए चीन को इसका पछतावा हो. लेखिका बिहार के चुनाव परिणाम को भी अच्छा बताती हैं. पिछले 15 साल के मुकाबले बीते 15 साल को वो बेहतर बताती हैं. उन्हें लॉकडाउन के दौरान नई शिक्षा नीति का लागू किया जाना भी सुखद महसूस हुआ.

तवलीन सिंह मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में भी स्वास्थ्य सुविधाओं के स्तर को बहुत भयानक बताती हैं, लेकिन स्थानीय सरकारों को कोविड-19 के दौर में बेहतर कार्य का श्रेय भी देती हैं. लेखिका धारा 370 हटाए जाने का समर्थन करती हैं लेकिन यह भी कहती हैं कि इसे हटाए जाने के बाद राजनीतिक स्थितियों से निबटने में सरकार का तरीका सही नहीं था.

वह बताती हैं कि एक दिन कश्मीर को ‘इस्लामिक देश’ बना लेने के कुछ कट्टरपंथियों के सपने अब टूट चुके हैं, जो जरूरी था. अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का भी लेखिका स्वागत करती हैं. लेखिका लिखती हैं कि दिवाली की पूजा करते समय उनकी यही प्रार्थना है कि अगले साल इस समय किसी को मास्क पहनने की जरूरत न रह जाए.

हार नहीं मानने की लड़ाई लड़ रहे हैं ट्रंप

एंथनी जर्चर ने बीबीसी में लिखा है कि डोनाल्ड ट्रंप चुनाव नतीजे को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं जबकि आंकड़े कह रहे हैं कि ट्रंप चुनाव हार चुके हैं और कई राज्यों में लाखों वोटों से पीछे हैं. ऐसे में असमंजस की स्थिति है. ट्रंप का कार्यकाल 20 जनवरी को खत्म हो रहा है. रिपब्लिकन पार्टी के नेता हार स्वीकार करने के पक्ष में नहीं हैं. उनका तर्क है कि राष्ट्रपति के पास कानून के तहत आरोपों की जांच की मांग करने और फिर से मतगणना का अनुरोध करने का पूरा अधिकार है.

एंथनी आर्चर का मानना है कि रिपब्लिकन पार्टी डोनाल्ड ट्रंप के अधिकार का समर्थन करने के बावजूद एक तरह से मान चुकी है कि उनकी पार्टी की चुनाव में हार हुई है. वहीं डेमोक्रेटिक पार्टी इस विषय पर कम बोलने और संतुलित बोलने में यकीन रख रही है. उनकी रणनीति ही यही है कि तूफान शांत होने के बाद ही कुछ बोला जाए.

वे चुप रहकर ‘वैध मतों से जीत’ का दावा रख रहे हैं. सोमवार को परंपरा से हटकर अटॉर्नी जनरल बिल बार ने चुनावी धोखाधड़ी के आरोपों की तुरंत जांच के लिए ज्ञापन जारी किया है. आम तौर पर ऐसा तब किया जाता है जब चुनावी नतीजों को राज्य प्रमाणित कर दे. इसमें शर्तों और सावधानियों का जिक्र किया है.

राष्ट्रपति ट्रंप की बेटी इवांका ट्रंप की खामोशी पर कहा जा रहा है कि इवांका और उनके पति इसके हक में हैं कि ट्रंप चुनाव में हार को स्वीकार कर लें. 14 दिसंबर को औपचारिक तौर पर राष्ट्रपति की जीत-हार तय हो जाएगी. मगर, राष्ट्रपति चुनाव को लेकर राजनीति अभी थमती नजर नहीं आती.

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कोविड काल में बढ़ी बचत

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि ऐसे समय में जब नौकरियां जा रही थीं और कारोबार पर आर्थिक चोट पड़ रही थी, ऐसा नहीं है कि घरेलू बचत घट रही थी. आम तौर पर जीडीपी का 10 प्रतिशत रहने वाली घरेलू बचत अप्रैल-जून के महीने में इस स्तर से दोगुनी थी. जुलाई से सितंबर की तिमाही में पंजीकृत 2100 कंपनियों में टैक्स चुकाने के बाद मुनाफे का स्तर 150 प्रतिशत था जबकि बीती तिमाही में इसमें कमी आई थी. सरकारी खर्चे भी घटे और उधार में भी कमी आआ. टीएन नाइनन ध्यान दिलाते हैं कि यही रुझान बैंकों में भी जारी है.

आरबीआई के पास विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ चुका है और मुद्रा बाजार में नकद की कमी नहीं रह गयी है, जिस वजह से ब्याज दर घटानी पड़ी है. आपूर्ति की तुलना में नकद की मांग कम है. यही कारण है कि उम्मीद से इतर मुद्रा स्फीति की दर बीते 6 साल में सबसे ज्यादा है.

नाइनन लिखते हैं कि जब लॉकडाउन हटाए जा रहे थे, तब अखाद्य मुद्रास्फीति की दर आरबीआई के अनुमान 4 फीसदी से बेहतर था. स्थिति यह है कि मुद्रास्फीति की दर से भी ज्यादा रिटर्न अच्छे-अच्छे म्यूचुअल बॉन्ड में मिल रहा है. अक्टूबर में यह 7.6 फीसदी हो चुका है. अब अनिश्चितता घट रही है. आने वाले समय में खर्च और कारोबार में बढ़ोतरी देखने को मिलेगी. आयात बढ़ेंगे और इस तरह व्यापार घाटा भी बढ़ेगा. आम लोग और कंपनियां और अधिक उधार लेंगे और रुपये की मांग बढ़ेगी. सवाल यह है कि कब तक आरबीआई मुद्रास्फीति की दर से कम के स्तर पर ब्याज दर को बनाए रखेगी?

नेहरू युग में पूछा करता था विपक्ष

पी रमन द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि नेहरू के जीवित रहते उनकी तरफदारी में रहे लोग ही उनकी मौत के बाद आलोचक बनकर सामने दिखे. सच यह है कि नेहरू ने संसद में बहस का सामना किया और विपक्ष को पूरा अवसर दिया कि वे सरकार को घेरे. लेखक बताते हैं कि नेहरू ने विदेश और रक्षा मंत्रियों की ओर से खुद सारे सवालों के जवाब दिया. 16 अगस्त 1961 और 12 दिसंबर 1962 के बीच उन्होंने 32 बयान दिए. भारत-चीन विवाद पर नेहरू ने 1.04 लाख शब्द कहे जो 200 प्रिंटेड पेज होते हैं. नेहरू ने कभी नहीं कहा कि संसद के भीतर युद्ध से सीमा पर युद्ध में कोई फर्क पड़ता है. 165 सांसदों ने चीनी हमले को लेकर संसद में सवाल उठाए.

लेखक बताते हैं कि संयुक्त राष्ट्र में चीन की स्थायी सदस्यता के लिए भारत के समर्थन को लेकर नेहरू पर कई सवाल दागे गए. पंडित नेहरू ने कहा था कि संसद को सूचित करना और भारत के सम्मान की रक्षा वे सुनिश्चित करेंगे, लेकिन उसके आगे कार्रवाई की स्वतंत्रता उन्हें चाहिए. 5 दिसंबर 1961 को स्वतंत्र पार्टी ने संसद में मांग उठायी कि पंचवर्षीय योजना को रोककर सारा धन सीमा पर झोंक दिया जाना चाहिए. नेहरू ने जवाब में कहा था कि ऐसा करना चीन के सामने समर्पण करना होगा.

53 साल बाद नरेंद्र मोदी ने पंचवर्षीय योजना को खत्म किया, जिसके तीन साल के भीतर जीडीपी, मैन्युफैक्चरिंग और एक्सपोर्ट्स तेजी से गिरकर निचले स्तर पर आ चुकी है. नेहरू ने संसद में पाकिस्तान और चीन के बीच संबंध पर 22 अगस्त 1962 को राज्यसभा में बहस के दौरान आश्चर्य जताया था और कहा था कि कम्युनिस्ट विरोधी पाकिस्तान अब चीन के करीब जा रहा है.

इतिहास का भविष्य

जीएन डेवी द टेलीग्राफ में लिखते हैं कि 1992 में जापानी अमेरिकी राजनीतिक विज्ञानी योशीहीरो फ्रांसिस फुकुयामा ने नई थीसिस रखी थी- द एंड ऑफ हिस्ट्री : द लास्ट मैन. इसमें उनका दावा था कि लोग उदारवादी लोकतंत्र के साथ आगे नहीं बढ़ना चाहते हैं. उन्होंने एक और दावा किया कि समानता और आजादी से जुड़े नायकों के संघर्ष में भी दुनिया की रुचि रहने वाली नहीं है. 21वीं सदी की दुनिया इसी सच्चाई के साथ बढ़ेगी.

लेखक का कहना है कि फुकुयामा की एक और पुस्तक अमेरिका में प्रकाशित हुई थी, जिस पर काम करते हुए उन्होंने जानना चाहा कि भारत की बौद्धिक परंपरा को संस्कृत, तमिल, पाली, प्राकृति और आधुनिक भाषाओं के जरिए कैसे समझा जा सकता है. ऐसा करते हुए उन्होंने ऑफ मैनी हीरोज नामक पुस्तक ही लिख डाली.

लेखक बताते हैं कि रामायण में एक नायक हैं तो महाभारत में कई एक नायक. इसमें जो फर्क है इसी का इस्तेमाल भारत के संदर्भ में इतिहास को समझने में उन्होंने किया है. बीते 12 हजार साल के इतिहास को लिखने के लिए भारत ने एक समिति बनायी है. इस पर कई तरह के विरोध उभरे हैं. आरएसएस भारत को लेकर सनातन वैदिक का अलग नजरिया है. सर विलियम जोंस की इंडो-आर्यन थीसिस भी है. प्राचीन काल में हुए प्रवास को लेकर कोई ऐतिहासिक अध्ययन नहीं दिखता है. संस्कृत के जरिए भी इतिहास को देखने की कोशिश के समर्थक हैं.

1400 ईस्वी पूर्व से 600 ईस्वी पूर्व के विद्वानों के बीच वेदों की अहमियत सबसे ज्यादा देखने को मिलती है. मान्यताओं का भी भारतीय इतिहास में काफी महत्व रहा है. सदियों से भारतीय यह मानते आए हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में विविधता की कोई एक वजह नहीं है. लेखक का मानना है कि जब आप भारत का मूल एक से अधिक स्वीकार करेंगे तभी भारत की विविधता को समझा जा सकता है. अगर सरकार इस तथ्य की अनदेखी करती है तो यही माना जाएगा कि फुकुयामा की थीसिस सही है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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