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‘वी’ नहीं ‘डब्ल्यू’ आकृति वाला आर्थिक सुधार
शंकर आचार्य बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि अगस्त के अंत में 2021-22 में पहली तिमाही के अनुमान सामने आने के बाद इस बात पर बहस चल रही है कि क्या अंग्रेजी के वी अक्षर की आकृति वाले सुधार की ओर देश बढ़ रहा है? 2021-22 में तेज आर्थिक गिरावट के बाद अगली तीन तिमाहियों में बेहतर सुधार के जरिए तिमाही जीडीपी पुराने स्तर पर पहुंच सका है. तेज सुधार के बावजूद इसे वी आकृति का सुधार नहीं माना जा सकता. घातक जीडीपी के साथ दूसरी लहर फिर गिरावट लेकर आई. हालांकि यह पिछले वर्ष जैसी नहीं थी. इसने भी सुधार को बेअसर कर दिया. 2021-22 की दूसरी तिमाही में एक और मजबूत सुधार देखने को मिल सकता है. इसका मतलब यह हुआ कि वी के बजाए डब्ल्यू की आकृति वाला सुधार आता दिख रहा है.
ऐसा मानने वाले कहते हैं कि जीडीपी में करीब एक तिहाई योगदान करने वाले असंगठित गैर कृषि क्षेत्र को कोविड और लॉकडाउन के झटकों से उबरने में वक्त लगेगा. इस वर्ग की कमजोर आर्थिक स्थिति का असर निवेश पर पड़ेगा. तीसरी अहम बात यह है कि राजकोषीय घाटा बढ़ा है और सरकार का कर्ज-जीडीपी अनुपात भी 90 फीसदी हो गया है. चौथी बात यह है कि पहले से तनावग्रस्त वित्तीय तंत्र कोविड के कारण और अधिक प्रभावित हुआ है.
चुनाव और ‘वॉलेट अर्थशास्त्र’
टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि पंजाब में बीते चार वर्षों में 3.8 फीसदी की दर से आर्थिक वृद्धि हुई है. सालाना यह वृद्धि दर एक फीसदी से भी कम है. महामारी के बीच कुछ राज्यों ने बेहतर प्रदर्शन किया है. ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले बंगाल ने 2017-2021 के दौरान 19.1 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की. वहीं यूपी में प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद सिर्फ 0.4 फीसदी की दर से ही बढ़ी है. ये तस्वीरें राजनीतिक दावों से अलग हैं. प्रतिकूल आर्थिक आंकड़ों के बीच उम्मीद जताई जा रही है कि यूपी में बीजेपी और पंजाब में कांग्रेस राजनीतिक रूप से अच्छा प्रदर्शन कर सकती है.
राजस्थान में चार वर्षों के प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद कुल 1.3 फीसदी ही बढ़ा है. अन्य राज्यों में भी यह सालाना 10 फीसदी के आसपास रहे हैं. भारत में चुनावी नतीजे और वॉलेट अर्थशास्त्र के बीच तालमेल कम ही दिखता है. बेहतर प्रदर्शन करने वाली सरकार तमिलनाडु में बदल गयी जबकि मध्यम प्रदर्शन करने वाली वाममोर्चा सरकार केरल मे दोबारा सत्ता में आ गयी. बीते चार साल में प्रति व्यक्ति खपत कम रहने के बावजूद नरेंद्र मोदी लोकप्रिय बने हुए हैं.
बच्चियों से कम असुरक्षित नहीं हैं बच्चे
ललिता पणिक्कर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि कोविड-19 की महामारी के दौरान बच्यों के साथ यौन हिंसा की घटनाओं में बढ़ोतरी पर बात होती रही है लेकिन इसी दौरान बच्चों के साथ ऐसे ही दुर्व्यवहार की आशंकाओं पर उतनी बात नहीं हुई है. बच्चे-बच्चियों के साथ यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं जितनी इन दिनों हुई हैं उतनी पहले कभी नहीं हुई. पॉक्सो कानून रहने के बावजूद बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार के मामले सामने नहीं आ पा रहे हैं.
राष्ट्रीय स्तर पर 2007 में बच्चों के साथ अपराध पर हुए पहले देशव्यापी सर्वेक्षण में यह बात सामने आयी थि कि बच्चियों की तरह बच्चे भी यौन अपराध के शिकार हो रहे हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो डाटा के अनुसार 2018 में बच्चे-बच्चियों के साथ हुए 21,605 अपराधों में 204 मामले लड़कों से संबंधित थे. मुंबई में सक्रिय एनजीओ का कहना है कि समाज लड़कों और पुरुषों को या तो अपराधी के तौर पर देखता है या फिर रक्षक के तौर पर. उन्हें पीड़ित के रूप में कोई नहीं देखता. स्कूल और आसपास के इलाकों में ऐसे आयोजन किए जाने चाहिए जिससे लड़के और लड़कियां दोनों का बचाव हो सके. बच्चों को समझाना होगा कि उनके साथ उचित व्यवहार क्या है और क्या नहीं.
यूएस कैपिटोल पर सुनियोजित था हमला!
न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने संपादकीय में लिखा है कि 6 जनवरी की घटना जितन भयावह दिखती है उससे यह कहीं अधिक खतरनाक थी. यूएस कैपिटोल पर हमला सुनियोजित था. संपूर्ण अमेरिका संवैधानिक संकट के दौर में था. घंटों यह स्थिति बनी रही तो सिर्फ इसलिए नहीं कि हिंसा और नरसंहार की घटनाएं हो रही थीं और भीड़ में शामिल लोग राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थक थे. बल्कि, स्वयं डोनाल्ड ट्रंप जो कर रहे थे, उस कारण यह अधिक खतरनाक हो गयी. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, वाइस प्रेजिडेन्ट माइक पेंस और वकील जॉन इस्टमैन मिलकर अमेरिकी जनता की इच्छा को बदलने की कोशिशों में जुटे हुए थे.
अब अमेरिकियों के सामने यह चुनौती है कि वे लोकतंत्र को बचाने के लिए वे संघीय चुनाव कानून में सुधार करे. सुधार ऐसा होना चाहिए कि भविष्य में कभी कोई चुनाव नतीजों को अपने मुताबिक हांक कर नहीं ले जा सके. 130 साल पुराना कानून नाटकीय विवाद का कारण है. यह कानून 1876 में बना था. तब पॉपुलर वोट में प्रतिदंवंद्वी डेमोक्रैट से पिछड़ जाने के बावजूद रिपब्लिक रदरफोर्ट हेस चुनाव जीत गये थे. घटना की जांच के लिए 10 सदस्यीय आयोग बना था. पांच सुप्रीम कोर्ट के जज थे. इनमें से दो को डेमोक्रैट्स ने नामांकित किया था जबकि तीन को रिपब्लिकन्स ने. रिपब्लिकन उम्मीदवार हेस ने सभी विवादास्पद वोट जीत लिए थे. यह साफ है कि विवाद के मौकों पर कांग्रेस को चाहिए कि वह स्पष्ट दिशा निर्देश के साथ काम करे.
बेचैन कर रही है बढ़ती बेरोजगारी
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि दस या इससे ज्यादा कर्मचारी रखने वाली भारतीय कंपनियों में रोजगार बढ़ने को 1947 के बाद से सामान्य घटना के रूप में देखा जाता रहा है. 2013-14 के बाद से भी ऐसा ही हुआ है.मगर, असल सवाल यह है कि हर साल दो करोड़ रोजगार देने का प्रधानमंत्री के दावे का क्या हुआ? इस हिसाब से बीते 7 साल में 14 करोड़ रोजगार होने चाहिए.
हाल में श्रम और रोजगार मंत्रालय ने नौ क्षेत्रों में दस या इससे ज्यादा कर्मचारी रखने वाली कंपनियों के सर्वे की रिपोर्ट जारी की. रिपोर्ट में बताया गया है कि 2013-14 में दो करोड़ सैंतीस लाख रोजगार का आंकड़ा बढ़कर 3 करोड़ 8 लाख हो चुका है मतलब 71 लाख रोजगार बढ़े हैं. दूसरे क्षेत्रों को शामिल करने पर यह आंकड़ा 84 लाख पहुंच जाता है.
अगस्त 2021 में श्रम बल भागीदारी की दर और रोजगार की दर में उल्लेखनीय गिरावट आयी है. बड़ी संख्या में लोग श्रम बाजार से बाहर हो गये. लेखक इस बात से भी चिंतित हैं कि ग्रामीण इलाकों में नौकरियां तेजी से छूटी हैं. कृषि कार्यों में लगी आबादी भी अचानक बढ़ गयी है जो छिपी हुई बेरोजगारी बढ़ने का संकेत देता है.
‘हाई कमांड’ की सियासत
तवलीन सिंह ने लिखा है कि जो तमाशा पिछले दिनों पंजाब में हमने देखा है दरअसल उसका दायरा पंजाब से कहीं ज्यादा बड़ा है. एक मुख्यमंत्री को जलील कर एक ऐसे व्यक्ति को ‘हाई कमांड’ ने तरजीह दी जो छोटे बच्चों की तरह जिद्दी है. देश की सबसे पुरानी पार्टी ने न हार से कुछ सीखा है और न अतीत में गलतियों से. ‘हाई कमांड’ सेनाओं में हुआ करते हैं राजनीतिक दलों में नहीं. लोकतंत्र इतना कमजोर हुआ है कि हाईकमांड के सामने दिग्गज नेता भी बौने बन जाते हैं. तभी तो राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस कार्यकारिणी ने सोनिया गांधी को नेतृत्व सौंपने का प्रस्ताव पारित कर लेती है. भले ही तब सोनिया गांधी को हिन्दी तक नहीं आती थी.
लेखिका लिखती हैं कि असत्य को सत्य बताना भी भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस से सीखा है. यूएन में चाय बेचने वाले के तौर अपना बखान करने और भारतीय लोकतंत्र को बेहतर बनाने का दावा करते हुए प्रधानमंत्री ने जो संदेश देना चाहा उससे उलट वे अपने देश में एक देवता की तरह रोज पूजे जाते खुद को देखने में जुटे हैं.
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