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सुरेश मेनन द हिंदू में लिखते हैं कि दर्द और पीड़ा के बीच देश मे संवेदनहीन टूर्नामेंट जारी है और इसे टीवी पर देखने से हो रहे अपराधबोध की गहराई को समझ पाना भी मुश्किल है. आईपीएल को स्पोर्ट्स समझने का भ्रम न पालें. यह टीवी पर एक लोकप्रिय खेल का वर्जन है जहां उत्पाद बेचे जाते हैं और जो किसी सीरियल का आइडिया भर है. 78 मीटर की लंबाई वाला छक्का या फिर मिडिल स्टंप उड़ाती यॉर्कर गेंद की कितनी बड़ी कीमत हम चुका रहे हैं, अगर हमारे आसपास खौफनाक तरीके से लोग मर रहे हैं और उम्मीदें टूट रही हैं?
किसी मित्र के मैसेज के हवाले से लेखक लिखते हैं कि कुछ समय बाद जब आईपीएल खत्म हो जाएगा तो मुश्किल घड़ी में खामोश यही प्रबंधन, खिलाड़ी अपना जख्मी दिल दिखाएंगे और चेक काटेंगे. बड़े-बड़े खिलाड़ी उन्हें ट्वीट करेंगे. लेखक ने ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी पीटर कमिंग्स की सराहना की है कि उन्होंने सबसे पहले ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए 50 हजार डॉलर की राशि देने की घोषणा की.
आईपीएल टूर्नामेंट भर नहीं है. यह बीसीसीआई के लिए खिलाड़ियों और टीमों पर नियंत्रण करने का प्लेटफॉर्म है. विराट कोहली और रोहित शर्मा जैसे खिलाड़ी अगर आर.अश्विन की राह पर टूर्नामेंट से दूर रहने का फैसला लेते तो कुछ असर दिख सकता था. लेकिन बीसीसीआई से पंगा कौन ले?
टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में सवाल उठाया है कि क्या भारत 16 साल बाद एक बार फिर से दूसरे देशों से मदद मांगने वाला ‘तीसरी दुनिया’ का देश बन गया है? वे कहते हैं इसका जवाब ‘हां’ भी है और ‘नहीं’ भी. ‘नहीं’ इसलिए क्योंकि भारत ने भी संकट की घड़ी में दुनिया के कई देशों की मदद की थी. ‘हां’ इसलिए कि इस आपातकालीन मदद की जड़ में है अक्षमता और असाधारण घपले. ‘सांस्थानिक कमजोरी’ तीसरी दुनिया की खासियत होती है. कई मायनों में भारत इस ओर लौटा है. चाहे वायरस हो या फिर डोकलाम- हमने बीच रास्ते में जीत का ऐलान किया. जब हार हुई तब भी जीत का जश्न मनाया चाहे वायरस का नया वैरिएंट हो या फिर देप्सांग.
बीते साल पीपीई के उत्पादन की तरह ही कहा जा रहा है कि एक महीने में मेडिकल ऑक्सीजन की सप्लाई 70 फीसदी बढ़ गई. सांस्थानिक और औद्योगिक क्षमताएं बरकरार हैं. 1962 की तरह सेना की भूमिका नहीं दिखी. तीसरी दुनिया की खासियत जवाबदेही से बचना भी होता है. मोदी सरकार कितनी जिम्मेदार है यह भविष्य तय करेगा और विपक्ष की सक्रियता की भी इसमें भूमिका होगी. लेकिन, इस वक्त जिम्मेदारी लेते प्रधानमंत्री नहीं दिख रहे हैं. ऑक्सीजन प्लांट समय पर नहीं बनाने वालों पर कोई कार्रवाई होती नहीं दिखी और न ही वैक्सीन की जरूरत का आकलन नहीं करने वालों पर.
रामचंद्र गुहा फाइनेंशियल टाइम्स में लिखते हैं कि कोविड-19 से निपटने के शाही तरीके, लापरवाह अंदाज और राजनीतिक अवसरों को साथ रखने की वजह से भारत में कोरोना की दूसरी वेव आयी है. वे प्रचार के भूखे इंग्लैंड के बोरिस जॉन्सन के नाम पर बने स्टेडियम की तुलना भारत में नरेंद्र मोदी स्टेडियम से करते हैं. एक का उद्घाटन फुटबॉल मैच से पहले और दूसरे का भारत-इंग्लैंड क्रिकेट मैच से पहले 24 फरवरी 2021 को हुआ था. कोविडकाल में 55 हजार की भीड़ अहमदाबाद में जुटी थी. नरेंद्र मोदी ने खुद को किम इल शुंग और सद्दाम हुसैन की श्रेणी में ला खड़ा किया.
वहीं, गुहा लिखते हैं कि कोविड टास्क फोर्स की बैठक 2021 के फरवरी-मार्च महीने में नहीं हुई, यह 11 अप्रैल को हुई. इस दौरान नरेंद्र मोदी-अमित शाह चुनावी तैयारियां करते रहे, कुंभ का आयोजन होता रहा. आईपीएल क्रिकेट भी समय पर हुआ. रैलियों में नरेंद्र मोदी विरोधियों पर उखड़ते रहे, जबकि टीवी पर संबोधनों में अभिभावक की तरह कोरोना से देश को बचाने की बात कहते रहे. रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि विपक्षी कांग्रेस की कमजोरियों ने इस किस्म के दुस्साहस को बढ़ाया. सुप्रीम कोर्ट तक ने आम लोगों के अधिकारों की हिफाजत नहीं की. दूसरे वेव ने मोदी सरकार की विफलता को दुनिया के सामने उजागर कर दिया है.
द टेलीग्राफ के संपादकीय बोर्ड ने लिखा है कि एक समय था जब भारत की राजनीति में नफरत वाली जंग नहीं थी. केंद्र और राज्य सरकारों में सहयोग था. राजीव गांधी ने जब देश में वैक्सीन क्रियान्वयन कार्यक्रम शुरू किया तो विपक्ष शासित राज्यों से खुलकर सहयोग मिला. बंगाल में ज्योति बसु, कर्नाटक में आरएम हेगड़े, आंध्र में एनटी रामाराव और केरल में ईके नयनार ने जितना उत्साह दिखाया उतना कांग्रेस शासित राज्य नहीं दिखा सके. तब दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो ने भी वैक्सीन कार्यक्रम को सफल बनाने में योगदान दिया.
संपादकीय बोर्ड लिखता है कि कांग्रेस मुक्त भारत का अभियान चलाते हुए कांग्रेस से सहयोग की उम्मीद कैसे की जा सकती है. फिर भी कांग्रेस शासन के अपने लंबे अनुभव के हिसाब से समय पर बहुमूल्य सुझाव देने में पीछे नहीं रही. लेकिन, सरकार की प्रतिक्रिया भद्दी थी. विदेश राज्य मंत्री मुरलीधरन आए दिन केरल की वाम मोर्चा सरकार की आलोचना करते रहते हैं. कोवैक्सीन उपकरण खराब रहने के मामले में उनकी प्रतिक्रिया खुद केंद्र सरकार को हलकान कर कर गयी, क्योंकि इसमें राज्य सरकार का योगदान कतई नहीं था.
असम में मुख्यमंत्री के दावेदार हेमंत बिस्वा शर्मा ने असम में कोरोना मरीज नहीं होने का ऐलान कर दिया. जमकर बीहू पर्व मनाया गया. नतीजा यह है कि तब एक्टिव केस 617 थे और आज 26 दिन बाद 23,826 हैं. कर्नाटक में 5 किलो राशन घटाकर 2 किलो कर देने पर एक किसान को मंत्री ने कहा, “जाओ और मर जाओ.” येदियुरप्पा ने हालांकि इसके लिए माफी मांगी.
पी चिदंबरम जनसत्ता में लिखते हैं कि टीकाकरण की औसत दर बढ़ने के बजाए अप्रैल महीने में गिर गई. 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिए टीके करण का ऐलान करने से पहले ही टीके की कमी पैदा हो गई है, तो इसके लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार है. केंद्र ने सीरम इंस्टीट्यूट, भारत बायोटेक और दूसरे निर्माताओं से करार नहीं किया. इसके अलावा वैक्सीन की जरूरत का अंदाजा लगाने और उत्पादन की पेशकश करने में सरकार पीछे रह गई.
सलाह देने वाले स्वास्थ्य अधिकारी टीवी पर अधिक दिखे. अच्छी योजना का अभाव, आत्मनिर्भरता पर अनुपयुक्त जोर और दो वैक्सीन निर्माताओं को सिर पर बिठा लेने से मुश्किलें बढ़ गयी. देश इन सबकी कीमत चुका रहा है. अब भी वक्त है. एक उच्चाधिकार प्राप्त समूह बनाया जाना चाहिए जिसकी सदस्य संख्या 9 या उससे कम हो और जिसमें विशेषज्ञ लोग शामिल हों. इस समूह का नाम आपदा प्रबंधन समूह नाम दिया जाए. चिदंबरम व्यंग्य करते हैं कि हॉर्वर्ड यही सिखाता है.
करन थापर हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि कोरोना वायरस की दूसरी वेव हमें हमेशा के लिए बदलने जा रही है. वे लिखते हैं कि वायरस की पहली वेव ने उन्हें अकेले रहना सिखाया. कुछ इस तरह कि मजाक में कह डालता था कि अपनी कंपनी को भी नहीं पहचानता. लंबी शामें पुस्तकों और संगीत में बीत जातीं. फिल्मों से दूरी हुई. और, हां अपने ही विचारों से डर लगने लगा. कुछ भी सोचने के लिए खुद को अनंतकाल तक छोड़ देता. मगर, दूसरी वेव कुछ और सीख दे रहा है. इस बार सभी सोच रहे हैं कि कुछ गलत हो सकता है, भयानक होने वाला है और नहीं पता कि कब यह सब होगा.
कई जानने वाले संक्रमित हैं. कई के लिए मुश्किल वक्त है. इस बार संक्रमण मौत की आहट लेकर आया है. हार्ट अटैक जैसी घटना सामान्य हैं. हम मौत की आशंका के बीच जीने लगे हैं. हम केवल जी नहीं रहे, जीवन में आनंद के तरीके भी ढूंढ रहे हैं. हमने जीवन बचाने का तरीका निकाला है, मनोरंजन के विकल्प खोजे हैं और कम में खुश रहना सीखा है.
बीती सदी में स्पैनिश फ्लू के गुजर जाने के बाद दुनिया ने राहत की सांस ली थी और खुशियां जतायी थीं. इतिहास खुद को हमेशा नहीं दोहराता. इस बार यह वक्त गुजर जाए तो हम सभी उत्सव मनाएंगे, लेकिन जो कुछ हुआ उसे भुलाना मुश्किल होगा.
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