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संडे व्यू: अनाज है तो भूखे क्यों बच्चे,मजबूत हुआ संघ का पूर्वाग्रह

संडे व्यू में पढ़ें पी चिदंबरम, रामचंद्र गुहा, टीएन नाइनन और एसए अय्यर के आर्टिकल.

क्विंट हिंदी
भारत
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संडे व्यू में पढ़ें अखबारों के बेस्ट आर्टिकल्स
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संडे व्यू में पढ़ें अखबारों के बेस्ट आर्टिकल्स
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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एकदलीय व्यवस्था की आशंका को नकारते ये कारण

एसए अय्यर द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखते हैं कि भारत में लोकतंत्र कमजोर जरूर हुआ है, लेकिन देश एक पार्टी व्यवस्था की ओर बढ़ गया हो, ऐसा नहीं है. बीते 12 विधानसभा चुनावों में से केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी को 11 में असफलता का सामना करना पड़ा है. हालांकि बीते 6 साल में भारत की राजनीति असहिष्णु और कम धर्मनिरपेक्ष जरूर हुई है. महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की मूर्ति लगाने की मांग उठने लगी है. स्वतंत्र संस्थाएं खत्म हुई हैं. कांग्रेसी राज में शुरू हुई यूएपीए के दुरुपयोग की घटनाएं अब और बढ़ चुकी हैं.

एसए अय्यर लिखते हैं कि बीजेपी शासित राज्यों में लव जिहाद के बहाने सांप्रदायिक राजनीति भी चरम पर है. इन सबके बावजूद भारत के सिविल सोसायटी, विपक्ष और स्वतंत्र संस्थाओं ने संघर्ष में वापसी की है और ऐसी कोई संभावना नहीं है कि एक दल का अधिनायकवाद स्थापित हो.

दिल्ली में 2020 का विधानसभा चुनाव सांप्रदायिक आधार पर जरूर हुआ, लेकिन इसमें बीजेपी को मात खानी पड़ी. ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के चुनाव नतीजे भी अहम रहे. तेलंगाना में एक ईसाई नेता जगन रेड्डी को जनता ने बहुमत दिया. एसए अय्यर बताते हैं कि 2019 का आम चुनाव बीजेपी ने सांप्रदायिक आधार पर नहीं जीता था, बल्कि उसके पीछे बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में हुई बढ़ोतरी प्रमुख वजह थी. सीएए-एनआरसी जरूर लागू किया गया लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों में छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किए. किसानों का विरोध प्रदर्शन एक और उदाहरण है जो देश में एकदलीय व्यवस्था की किसी आशंका को नकारता है.

गोदामों में अनाज हैं तो भूखे क्यों हैं बच्चे?

पी चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि गरीबी और बेरोजगारी में जीते हुए जिंदगी का संघर्ष खबरों की दुनिया से गायब हैं. 2002 से 2014 के बीच यूपीए सरकार में 27 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकाला गया था. वह स्थिति भी बदल चुकी है. गरीबी और बेरोजगारी के भयानक परिणाम जिस रूप में दिख रहे हैं, वह है बच्चों में बढ़ता कुपोषण. सरकार ने एकीकृत बाल विकास योजना, मध्याह्न भोजन योजना, पोषण अभियान जैसे कार्यक्रमों को खत्म कर दिया है. राष्ट्रीय पोषण संबंधित विस्तृत सर्वे के ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि बीते 5-6 सालों में कुपोषण की स्थिति बदतर हुई है. बच्चों में बौनापन, खून की कमी तेजी से बढ़ी है.

चिदंबरम लिखते हैं कि यह आश्चर्य की बात है कि खेतों में किसान रिकॉर्ड उत्पादन कर रहे हैं, अनाज की सरकारी खरीद भी हो रही है, एफसीआई के गोदामों में अनाज भी भरे पड़े हैं. फिर भी, देश के बच्चों के पेट में अन्न का दाना नहीं पहुंच रहा है.

पिछली आठ तिमाहियों से चली आ रही आर्थिक मंदी के बीच महामारी, बेरोजगारी, आजीविका के छिनते साधनों, पलायन आदि का असर बच्चों के पोषण के स्तर पर पड़ा है. कुपोषण सहित मानव विकास सूचकांक के स्तर पर स्थिति बहुत बुरी है. लेखक बच्चों माफी मांगते हैं. उम्मीद जताते हैं कि ये बच्चे उन्हें माफ कर दें.

मजबूत हुआ है संघ का पूर्वाग्रह

रामचंद्र गुहा ने द टेलीग्राफ में महात्मा गांधी के आखिरी सचिव प्यारेलाल की किताब से आरएसएस को लेकर महात्मा गांधी के विचारों को सामने रखा है और बताया है कि उन विचारों का महत्व इन दिनों बहुत अधिक है. तब के मुकाबले अब आरएसएस अधिक मजबूत और प्रभावशाली है.

प्यारेलाल ने लिखा है कि आरएसएस का घोषित उद्देश्य हिंदू राज की स्थापना करना है और उन्होंने नारा दिया था, “मुस्लिमों भारत से बाहर जाओ.” यह भावना पश्चिमी पंजाब से हिंदुओं और सिखों को खदेड़े जाने की प्रतिक्रिया में थी. 1950 के दशक में आरएसएस को यह अहसास हुआ कि यह व्यावहारिक नहीं है. तब उन्होंने अपनी सोच में यह बदलाव लाया कि वे इस देश में तब तक रह सकते हैं जब तक कि वे हिंदुओं की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्थानिक और नैतिक सर्वोच्चता को स्वीकार नहीं कर लेते.

गुहा लिखते हैं कि आरएसएस की विचारधारा और कार्यक्रम को छह शब्दों में समेटा जा सकता है- हम मुस्लिमों को उनकी जगह दिखाएंगे. हालांकि संघ का दावा है कि वह हिंदू गौरव की पुनर्प्राप्ति, पुनरुत्थान और पुनर्स्थापना के लिए लड़ रहा है, लेकिन वास्तव में पूर्वाग्रह से ग्रसित है.

केंद्र सरकार और बीजेपी शासित राज्यों में हाल की कार्रवाइयां इसके उदाहरण हैं. जम्मू और कश्मीर का राज्य के रूप में अंत, अयोध्या में मंदिर निर्माण का विजयी भाव, अंतर धार्मिक विवाह के खिलाफ कानून और, नागरिकता संशोधन विधेयक और शांतिपूर्ण तरीके से इसका विरोध करने वालों का उत्पीड़न- ये सभी अनिवार्य रूप से मुस्लिमों को उनकी जगह दिखाने की भावना से प्रेरित हैं.

प्यारेलाल के हवाले से लेखक बताते हैं कि आरएसएस के परोपकारी कामों की तुलना महात्मा गांधी ने फासीवादियों के परोपकारी कामों से की थी और आरएसएस को एक अधिनायकवादी दृष्टिकोण वाला सांप्रदायिक संगठन करार दिया था. 1947 के बाद 21वीं सदी में गांधी के इन विचारों का महत्व अब और भी बढ़ गया है.

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देश को पीछे ले जा रही हैं ये घटनाएं

तवलीन सिंह ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कई परिवर्तन ऐसा रहे हैं, जिसका फायदा देश को मिला है जिनमें समाज कल्याण योजनाओं में भ्रष्टाचार में कमी अहम है. डिजिटल इंडिया की सफलता भी ऐसा ही उदाहरण है जिस कारण लॉकडाउन में बच्चों की पढ़ाई रुकी नहीं. मगर, कई परिवर्तन मोदी सरकार में ऐसे हुए हैं जो देश को आगे ले जाने के कारण पीछे ले जा रहे हैं. तबलीगी जमात से जुड़े विदेशी मुसलमानों को अदालत ने बरी कर दिया. केंद्रीय गृहमंत्रालय के कहने पर इन्हें गिरफ्तार किया गया था, इस बात का भी खुलासा हुआ है. कोरोना का टेस्ट कराए जाते वक्त स्वास्थ्यकर्मियों पर थूकती तस्वीरें भी गलत साबित हुई थीं.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि मोदी के दूसरे दौर में हिंदुत्व के एजेंडे को प्राथमिकता दी गयी है. सनातन धर्म को कट्रपंथी इस्लाम का रूप दिया जा रहा है जिसे अच्छा नहीं कहा जा सकता. सनातन धर्म का सम्मान इसलिए है कि यह देवी-देवताओं से सवाल करने का अधिकार देता है जो इस्लाम या ईसाई धर्म में नहीं है.

लेखिका ने लव जिहाद को लेकर पिंकी का उदाहरण दिया है जिसके गर्भ को पुलिस की अभिरक्षा में नुकसान पहुंचा. वह आश्चर्य जताती हैं कि लव जिहाद कानून का विरोध करने के लिए वे महिलाएं क्यों आगे नहीं आईं जो ‘मी टू’ के दौरान आगे आ कर खुल कर बोल रही थीं. लेखिका की चिंता है कि लंबे संघर्ष के बाद भारतीय महिलाएं कई कुप्रथाओं से आजाद हुई थीं. लेकिन, अब एक बार फिर महिलाओं को बंधन में जकड़ा जा रहा है.

फेसबुक, गूगल जैसी धुरंधर कंपनियों को लेकर बदल रहा है नजरिया

टीएन नाइनन द बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि किसी जमाने में दुनिया भर में प्रशंसित ‘टेक जायंट्स’ मानी गईं फेसबुक, अमेजन, एप्पल नेटफ्लिक्स और गूगल जैसी कंपनियों के समूह के प्रति दुनिया भर की सरकारों का नजरिया बदला है. ये ‘टेक जायंट्स’ की धुरंधर कंपनियां रही हैं. इस समूह में ‘फांग’ अलग समूह के तौर पर रहा है जिसमें फेसबुक, अमेजन, एप्पल, नेटफ्लिक्स और गूगल शामिल हैं. नाइनन लिखते हैं कि अटलांटिक के दोनों ओर की सरकारें कमर कस चुकी हैं कि इन कंपनियों के परभक्षी व्यवहार, टैक्स देने से कतराने, आंकड़ों के दुरुपयोग जैसी बुराइयों से वह निपटेंगी. सर्च, ऑनलाइन शॉपिंग और डिजिटल विज्ञापनों वाले कारोबार के जरिए एक मजबूत कॉरपोरेट ताकत का जन्म हुआ है और यही तमाम बुराइयों का स्रोत है.

नाइनन लिखते हैं कि कोरोना काल के दौरान 2020 में ‘फांग’ समूह के शेयरों की कीमत में 50 फीसदी की उछाल आया है और इससे पहले के तीन वर्षों में इसके शेयरों में 75 फीसदी तक की वृद्धि हो चुकी है.

भारी दौलत के साथ ताकत भी आ जाती है. फेसबुक के मार्क जकरबर्ग को दुनिया का सबसे ताकतवर अनिर्वाचित व्यक्ति माना जाता है, जो अब राष्ट्रीय चुनावों की रक्षा करने की बात कह रहे हैं. विडंबना है कि खुद फेसबुक और गूगल पर खुद राजनीतिक शक्तियों से सांठगांठ करने के आरोप लग रहे हैं. इन घटनाओं ने ‘फांग’ कंपनियों के बारे में धारणा भी बदली है. ‘एटलांटिक’ पत्रिका की वेबसाइट पर एक लेख प्रकाशित हुआ है- ‘फेसबुक इज अ डूम्सडे मशीन’. इसमें लिखा गया है कि “यह (सोशल वेब के) दिवालियापन का केंद्र है... फेसबुक, कंपनी की जबरदस्त पहुंच इसका मूल तत्व है लेकिन यह मानवता के लिए भारी खतरा भी है.”

खूनी संडे का न हो इंतजार

मार्कण्डेय काटजू जनसत्ता में लिखते हैं कि भारतीय किसान आंदोलन का ऐतिहासिक महत्व है. एक अविकसित देश से विकसित राष्ट्र बनने का यह संक्रमण काल, वास्तव में जनसंघर्ष से ही संभव है जिसका शक्तिशाली ताकतें विरोध करेंगी. ऐसे में हमें एकता रखनी होगी. जाति और धर्म पर आधारित भारत में वर्तमान किसान आंदोलन लीक से हटकर है और इसी कारण इसका महत्व है. किसान आंदोलन का हल निकालने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अनुकूल माहौल बनाने का बुद्धिमत्तापूर्ण सुझाव दिया है और किसानों को भी ऐसा करना चाहिए.

काटजू लिखते हैं कि किसानों को भी यह समझना होगा कि प्रशासन का यह पहला सिद्धांत होता है कि दबाव में सरकार को आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिए. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट कानून को निरस्त करने की सलाह नहीं दे रहा है, बल्कि वह इसके क्रियान्वयन पर रोक की सलाह दे रहा है. सरकार इसके बाद किसान आयोग बना सकती है जिसकी पहल पर बैठकें आयोजित हो सकती हैं और सर्वसम्मति बनायी जा सकती है. ऐसा करना किसी पक्ष की हार या जीत नहीं होगी. गेंद केंद्र सरकार के पाले में है. वह अदालत के सुझाव को स्वीकार कर गतिरोध को खत्म कर सकती है.

लेखक को डर है कि कहीं ऐसा न हो कि न्यायालय के सुझाव न मानने से जनवरी 1905 में सेंट पीटसबर्ग में खूनी रविवार या अक्टूबर 1795 में वेंडेमीएरी की घटना फिर से दोहराने की स्थिति बन आए जब नेपोलियन के तोपों के गोलों के बौछार ने भीड़ को तितर-बितर कर दिया था.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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