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बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था का भविष्य मैन्युफैक्चरिंग में नहीं, सर्विस सेक्टर में है. वे ध्यान दिलाते हैं कि नीति निर्माताओं में मैन्युफैक्चरिंग को लेकर गहरा आक्रोश है. आत्मनिर्भर भारत इस बात की परोक्ष स्वीकारोक्ति है कि मैन्युफैक्चरिंग पिछड़ा हुआ है और बगैर संरक्षण के यह उबर नहीं सकता. मगर, वक्त आ चुका है जब यह समझा जाए कि भारत पूर्वी एशियाई देशों की तरह निर्यात आधारित मैन्युफैक्चरिंग की राह पर नहीं चल सकता.
2012 के बाद से मैन्युफैक्चरिंग को जीडीपी में सबसे बड़ा भागीदार बनाने का मकसद रहा है, लेकिन घरेलू बाजार पर केंद्रित रहा है. महंगा उत्पाद का बोझ उपभोक्ता उठाते रहे हैं. भारत वैश्विक कारोबार में अपनी मौजूदगी सेवा क्षेत्र से जताता रहा है. भारत के मामले में यह 60 फीसदी है. श्रम निर्यात के संदर्भ में देखें तो यह भागीदारी और बढ़ जाती है.
कंज्यूमर डिजिटाइजेशन प्रोसेस में भारत सबसे तेज गति से आगे बढ़ने वाला देश है. प्रति मोबाइल सब्सक्राइबर भारत में डाटा यूज चीन से भी आगे है और यह दक्षिण कोरिया को चुनौती दे रहा है. भारत में बड़ी संख्या में यूनीकॉर्न हैं और निवेशकों के धन का प्रवाह भी बढ़ा है. इस आधार पर बन रही इकनॉमी में भारत में व्हाइट कॉलर काम और नौकरी की संभावना बढ़ी है. निश्चित रूप कम शिक्षित लोगों को इसका फायदा नहीं मिलेगा और धन कुछ लोगों के हाथों में इकट्ठा होगा. वित्त मंत्री के पास चुनौती है कि निचले स्तर तक नकद प्रवाह को कैसे बढ़ाएं.
द टाइम्स ऑफ इंडिया में अमूल्या गोपालकृष्णन सवाल उठाती हैं कि मुनव्वर फारूकी क्यों जेल में हैं? उनका दोष क्या है? इंदौर में बीजेपी विधायक के बेटे का वीडियो है कि वह मंच पर चढ़कर हास्य कलाकार से बदतमीजी करता है. ऐसे लोगों पर कार्रवाई होने के बजाए पुलिस फारूकी और उनके साथियों को गिरफ्तार करती है. सदाकत खान को एक अन्य वीडियो में देखें जो बस फारूकी को बचाने जाता है. पुलिस के सामने उसकी पिटाई की जाती है.
आश्चर्य है कि इंदौर पुलिस के पास इस बात के कोई सबूत नहीं रहने पर भी कि किसी देवी-देवता का अपमान किया गया है, एसपी इंदौर कहते हैं, “वह ऐसा कहने वाला था”. और, मुनव्वर फारूकी की बेल इसलिए रद्द कर दी जाती है क्योंकि पुलिस ने केस डायरी लाने में रुचि नहीं दिखाई. अब किसी अन्य मामले में यूपी पुलिस भी मुनव्वर की हिरासत चाहती है.
अमूल्या चिंता जताती हैं कि आज भीड़ और सरकार की कार्रवाई खास संस्कृति को बढ़ावा दे रही है. भीड़ की हिंसा नयी नहीं है लेकिन अब ‘गोली मारो *#$! को’ कहकर भीड़ को भड़काया जा रहा है. इस तरह कुछ लोगों के लिए अभिव्यक्ति की आजादी है और बाकी लोगों को जेल, परेशानी और हिंसा का शिकार होने की स्थिति. जामिया, जेएनयू, यूपी में सीएए विरोधी प्रदर्शन के दौरान पुलिस की अलग भूमिका दिखी है. मुहाल लोगों को राष्ट्रगान गाने को विवश करने वाली तस्वीर को भी याद कर लें. वकील महमूद प्राचा की गिरफ्तारी एक अन्य उदाहरण है. कानून व्यवस्था का नया मतलब कुछ लोगों को सुरक्षा और कुछ लोगों को इससे दूर रखना हो गया लगता है.
द इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदंबरम लिखते हैं कि देश में निर्णय प्रक्रिया और राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर उच्च स्तर पर लिए जाने वाले फैसलों को लेकर चिंता बढ़ गयी है. एक टीवी चैनल, एक पत्रकार कतई महत्वपूर्ण नहीं है और न ही चिदंबरम बतौर लेखक चाहते हैं कि किन्हीं को बदनाम करें. असल सवाल यह है कि अहम फैसले लेने वाले क्या ‘ऑफिशियल सीक्रेट्स’ की जद में आएंगे?
WhatsApp चैट लीक को जकरबर्ग के लिए बैड न्यूज बताते हुए लेखक लिखते हैं कि गोपनीयता के तमाम दावों की पोल खुल गई है. दो व्यक्ति के बीच व्यक्तिगत बातचीत सार्वजनिक हो चुकी है.
निश्चित रूप से किसी ने संवेदनशील और संरक्षित सूचनाओं को साझा किया. वह व्यक्ति कौन है? लेखक बताते हैं कि वे आश्वस्त हैं कि निर्णय प्रक्रिया में केवल प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, एनएसए, थल और वायुसेना प्रमुख और पश्चिम एअर कमांड के कमांडर होते हैं. यहां तक कि हमला करने वाले पायलट को भी कुछ घंटे ही बताया जाता है.
चिंता की बात यह है कि किसी से भी सूचना साझा करने का मतलब पाकिस्तान के लिए खुफियागिरी हो सकती है. दूसरी चिंता बातचीत में ‘अन्य’ को लेकर है. सुरक्षा को लेकर जानकारी हासिल करने की उसकी क्या योग्यता है? चिदंबरम ने WhatsApp चैट में अरुण जेटली की मौत को लेकर सतर्कता को लेकर भी चिंता जताई है और इसे असंवेदनशील करार दिया है.
एनपीआर में डोमेनिको मोंटानेरो की प्रकाशित रिपोर्ट समेत कई सर्वे आर्टिकल के हवाले से जनसत्ता ने बताया है कि अमेरिका की आधी आबादी मानती है कि डोनाल्ड ट्रंप असफल राष्ट्रपति थे. ट्रंप के राष्ट्रपति रहते हुए कराए गए एक सर्वे में यह बात सामने आयी है. एनपीआर/पीबीएस/मैरिस्ट के सर्वे में 47 फीसदी लोगों ने माना कि ट्रंप अमेरिका के सबसे खराब राष्ट्रपति रहे. 13 फीसदी ने उन्हें औसत से नीचे माना.
सीएनएन/एसएसआरएस के पोल में 55 फीसदी लोगों ने ट्रंप को सबसे खराब बताया. ओबामा के लिए 34 फीसदी लोगों ने ऐसी ही राय रखी. जबकि जॉर्ज डब्ल्यू बुश को 68 फीसदी लोगों ने सबसे खराब राष्ट्रपति बताया था. टुडे/सफोल्क यूनिवर्सिटी के सर्वे में 50 फीसदी लोगों ने ट्रंप को असफल बताया था. ओबामा के लिए यह राय 23 फीसदी जताई गयी थी.
एबीसी के सर्व में 40 फीसदी लोगों ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को फेल बताया था. हालांकि यह बात चौंकाने वाली है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था को संभालने के मामले में लोगों ने ट्रंप को अच्छा बताया. मैरिस्ट के पोल में 51 फीसदी लोगों की यह राय थी. केवल 38 फीसदी लोग हैं जो ट्रंप को हर मायने में अच्छा मानते हैं. सीएनएन के पोल के मुताबिक 41 फीसदी लोग ट्रंप को अच्छा मानते हैं जबकि 47 फीसदी खराब.
हिंदुस्तान टाइम्स में रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि सुभाषचंद्र बोस विभिन्न धर्मों के बीच विश्वास को मजबूत करने में विश्वास रखते थे. कुआलालंपुर में सुभाषचंद्र बोस पर 1992 में प्रकाशित एक पुस्तक के हवाले से इंडियन नेशनल आर्मी (INA) से मुस्लिम, हिंदू, सिख और ईसाई हर धर्म के लोग जुड़े रहे और बोस की सेना सही मायने में भारतीय थी.
रूद्रांशु मुखर्जी रचित इस पुस्तक में जिस दूसरे पहलू की ओर ध्यान दिलाया गया है वह है लिंग समानता. कैप्टन लक्ष्मी सहगल के नेतृत्व में रानी लक्ष्मी रेजीमेंट का गठन INA में किया गया था. तीसरी प्रमुख बात थी कि INA में महात्मा गांधी के लिए भारी प्रशंसा का भाव था.
INA की ब्रिगेड के नाम गांधी, मौलाना आजाद और नेहरू के नाम पर रखा जाना महत्वपूर्ण है. लेखक बताते हैं कि यह झूठ भी फैलाया जाता है कि नेहरू और उनकी कांग्रेस सरकार ने बोस और उनकी स्मृति के लिए कुछ नहीं किया. जबकि, सच यह है कि राष्ट्रीय संग्रहालय बताता है कि बोस के निधन के बाद नेहरू की सरकार ने बोस की विधवा को कई सालों तक पेंशन दिए. 1961 में नेताजी की बेटी के भारत आगमन पर उनका जोरदार स्वागत और देश के कई राज्यों में राजकीय सम्मान भी उल्लेखनीय है. सुभाषचंद्र बोस की उर्दू उनकी अंग्रेजी से भी अच्छी थी. इसी पुस्तक से पता चलता है क INA की फंडिंग करने वालों में सबसे ज्यादा मुसलमान थे.
जनसत्ता में जस्टिस (रि.) मार्कण्डेय काटजू ने लिखा है कि सआदत हसन मंटो ने विभाजन का विरोध किया था. इसलिए उन्हें पागल कहा गया. फिल्मों के लिए लेखन करते वक्त खतरनाक धमकियों के बाद मंटो को भारत छोड़कर पाकिस्तान जाना पड़ा. साहित्यकार उपेंद्र नाथ अश्क के हवाले से काटजू ने मंटो के बारे में बताया है कि वे बेहद सरल, भावनात्मक, गुस्सैल और संवेदनशील व्यक्ति थे. ऑल इंडिया रेडियो में अश्क और मंटो साथ काम किया करते थे.
लेखक बताते हैं कि मंटो का कहना होता था, “लोग मेरी कहानियों को गंदा कहते हैं लेकिन ऐसा है कि क्योंकि आपका समाज गंदा है. मैं केवल सच कहता हूं.”
मंटो की दोस्ती फैज अहमद फैज, नासिर काजमी, अहमद राही, अहमद नदीम कासमी और दूसरे लेखकों से पाकिस्तान में हुई. विभाजन के बारे में मंटो की कहानियां ‘ठंडा गोश्त’, ‘तिथवाल का कुत्ता’, ‘टोबा तेक सिंह’ आदि में मनुष्य के भयानक पशुवत व्यवहार को उजागर करता है, जो सांप्रदायिक घृणा से भरे हुए थे. अंकल सैम के नाम लिखे पत्र पाकिस्तान पर मंटो के व्यंग्य का संग्रह है. महज 43 साल की उम्र में मंटो की मौत हो गयी.
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