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जनसंख्या नियंत्रण पर एक बार फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) का बयान सुर्खियां बटोर रहा है. सीएम योगी ने लखनऊ में विश्व जनसंख्या दिवस (World Population Day) के मौके पर 'जनसंख्या स्थिरता पखवाड़ा' की शुरुआत करते हुए कहा कि जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम सफलतापूर्वक आगे बढ़े, लेकिन जनसांख्यिकी असंतुलन की स्थिति भी न पैदा हो पाए.
योगी आदित्यनाथ ने कहा कि
केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने भी कहा कि सभी धर्मों के लिए जनसंख्या नियंत्रण कानून समान होना चाहिए. जनसंख्या नियंत्रण पर बहस के बीच संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी कहा है कि सिर्फ खाना और जनसंख्या बढ़ाना तो जानवर भी करते हैं.
जाहिर तौर पर सीएम योगी आदित्यनाथ ने सीधे तौर पर किसी भी समुदाय विशेष का नाम नहीं लिया. लेकिन आलोचकों का मानना है कि दोनों का इशारा अल्पसंख्यक समुदाय की ओर था. भारत में दक्षिणपंथी नेता कई बार जनसंख्या विस्फोट के लिए मुस्लिम समुदाय पर आरोप लगाते रहे हैं. सवाल है कि इन दावों में कितनी सच्चाई है. इसका जवाब हम खुद सरकार के आंकड़ों में खोजने की कोशिश करते हैं.
मुसलमानों पर राइट-विंग आरोप लगाता रहा है कि वे बहुत अधिक बच्चे पैदा करते हैं जो भारत में जनसंख्या विस्फोट और जनसांख्यिकीय संतुलन को बिगाड़ने का कारण बन गया है. हालांकि सरकारी आंकड़ों में ही कुल प्रजनन दर/TFR ( एक महिला द्वारा अपने जीवनकाल में बच्चों को जन्म देने की औसत संख्या) पर एक नजर डालने से पता चलता है कि मुस्लिम समुदाय में उच्च प्रजनन तो है, लेकिन यह अन्य समुदाय की तुलना में बहुत अधिक नहीं है. इतना ही नहीं पिछले दो दशकों में सभी धार्मिक समुदायों में मुसलमानों की प्रजनन दर (fertility rate) में सबसे तेजी से गिरावट देखी गई है.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के पांचवें चरण (NFHS-5) की रिपोर्ट से पता चला है कि 2019-21 में मुस्लिम समुदाय में प्रजनन दर/TFR 2.36 थी. यह सही है कि दूसरे समुदाय की अपेक्षा मुस्लिम समुदाय में अभी भी सबसे अधिक है क्योंकि NFHS- 5 में हिंदू समुदाय में प्रजनन दर 1.94 पर है, ईसाई समुदाय की प्रजनन दर 1.88, सिख समुदाय की 1.61, जैन समुदाय की 1.6 और बौद्ध और नव-बौद्ध समुदाय की 1.39 है.
वहीं दूसरी तरफ हिंदू महिलाओं में 1992-93 के पहले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे में प्रजनन दर 3.3 थी जो 2019-2021 में गिरकर 1.94 हो गयी. यानी हिंदू महिलाओं में इस दौरान प्रजनन दर में 1.36 अंक की कमी आई.
राइट विंग के दावों के अनुसार बाल विवाह केवल मुसलमानों के बीच लोकप्रिय प्रथा है. इसका एक कारण है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ 15 साल की उम्र के बाद पुरुषों और महिलाओं के लिए भी शादी की अनुमति देता है. हालांकि, जैसा कि NFHS-5 के नतीजों से पता चलता है, बाल विवाह के मोर्चे पर सिर्फ मुस्लिम समुदाय का रिकॉर्ड खराब नहीं है.
NFHS-5 के अनुसार एक मुस्लिम महिला की शादी की औसत उम्र 18.7 साल है. हिंदू महिलाओं में भी यह स्तर समान है- यानी 18.7 वर्ष. दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों में बात करें तो महिलाओं के लिए विवाह की औसत आयु 21 से अधिक है- सिख (21.2 वर्ष), ईसाई (21.7 वर्ष) और जैन (22.7 वर्ष) समुदाय में है.
संयुक्त राष्ट्र (UN) के जनसंख्या डिविजन ने विश्व जनसंख्या दिवस पर जनसंख्या अनुमानों का एक नया सेट जारी किया. इन अनुमानों से पता चलता है कि भारत वर्ष 2023 में चीन को पछाड़कर सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा. इससे पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि ऐसा 2027 तक होगा लेकिन अब आंकड़े बदल गए हैं.
हालांकि ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि भारत ने अपनी जनसंख्या नीति को सफलतापूर्वक लागू नहीं किया है, बल्कि इसलिए है कि चीन की प्रजनन क्षमता अनुमान से भी कम हो गयी है. वहां की सरकार के लिए अब यह मुसीबत बन गयी है. चीन बूढा हो रहा है.
अब चीन की हालत देखिए. वर्षों के कठोर जनसंख्या नियंत्रण के बाद जब चीन की आबादी में बुजुर्गों का प्रतिशत जरूरत से ज्यादा बढ़ने लगा तो 2016 में चीन ने दो बच्चों की अनुमति देने के लिए अपनी वन-चाइल्ड पॉलिसी में ढील दी. लेकिन जब उससे भी बात नहीं बनी तो फिर 2021 में तीसरे बच्चे को अनुमति देने के लिए और ढील दी गई.
अभी भारत की आबादी में युवाओं (15-29 वर्ष) की हिस्सेदारी 27.3 प्रतिशत है जो इसे दुनिया के सबसे युवा देशों में से एक बनाता है. लेकिन घटती प्रजनन क्षमता और जीवन-प्रत्याशा बढ़ने के कारण देश के जनसंख्या पिरामिड में बड़ा बदलाव आएगा. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अनुमान के अनुसार साल 2036 तक युवाओं की हिस्सेदारी कम होकर 22.7% हो जाएगी.
दूसरी तरफ जनसंख्या में बुजुर्गों का अनुपात 1991 में 6.8 % से बढ़कर 2016 में 9.2% हो गया और आगे 2036 में इसके 14.9% तक पहुंचने का अनुमान है.
यही कारण है कि कई एक्सपर्ट्स मानते हैं कि भारत में जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण के लिए सख्त चाइल्ड पॉलिसी की जगह जागरूकता बढ़ाना ज्यादा व्यवहारिक उपाय है, जिससे अचानक से भारत की वर्किंग ऐज पॉपुलेशन पर बुजुर्ग आबादी का भार नहीं बढ़े.
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