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संडे व्यू: ‘राष्ट्रपति’ हो जाएंगे प्रधानमंत्री! गहरा न हो जाए अमेरिकी बैंक संकट

पढ़ें आज टीएन नाइनन, करन थापर, पी चिदंबरम, तवलीन सिंह और गोपाल कृष्ण गांधी के विचारों का सार.

क्विंट हिंदी
भारत
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<div class="paragraphs"><p>Sunday View</p></div>
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Sunday View

(फोटो: Altered by Quint Hindi)

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गहरा न हो जाए आर्थिक संकट

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि अमेरिकी कवि ऑग्डेन नैश ने केचप वाली बोतल से बाहर निकलने के बारे में जो बात कही थी उससे अमेरिकी वित्तीय संकट मेल खाता है, “पहले थोड़ा सा, फिर ज्यादा.“ 2008 का वित्तीय संकट भी बहुत कुछ ऐसा ही था. तब 2007 में सब प्राइम हाऊसिंग के लिए ऋण देने वालों ने दिवालिया होने का आवेदन देना शुरू किया था. 2008 में कंट्रीवाइड बैंक दिवालिया होने से इसलिए बचा था क्योंकि बैंक ऑफ अमेरिका ने उसका अधिग्रहण कर लिया था. दो महीने बाद ही बैंक बेयर स्टर्न्स बेहाल हुआ और उसे जेपी मॉर्गन चेज ने खरीद लिया. लीमन ब्रदर्स के साथ ही समूची पश्चिमी वित्तीय व्यवस्था ढहने के कगार पर पहुंच गयी. यानी शुरुआत से अंत तक दो वर्ष का समय लगा.

नाइनन लिखते हैं कि अमेरिका में इस वक्त जो हो रहा है वह नैश की बात के अनुरूप ही है. सिल्वरगेट, सिलिकन वैली बैंक और सिग्नेचर- ये तीनों मामले एक हफ्ते से कुछ अधिक समय में सामने आए हैं. इसके बावजूद सुनने में यही आ रहा है कि संक्रमण जैसी कोई स्थिति नहीं बन रही है.

खबर है कि अमेरिका के अन्य क्षेत्रीय बैंकों के शेयरों की कीमत लगातार गिर रही है. जमाकर्ताओं ने अपने पैसे निकालने की हड़बड़ी दिखानी शुरू कर दी है. रॉबर्ट आर्म्सस्ट्रॉंग ने शुक्रवार को फाइनेंशियल टाइम्स में लिखा है, “हम इस समय बैंकिंग को लेकर हल्की घबराहट के दौर में हैं लेकिन आगे चलकर काफी कुछ अजीब घटित हो सकता है.” भारत में आरबीआई ने रूढ़िवादी रुख अपनाया है और उसे बैंक के पास मौजूद तीन चौथाई से अधिक प्रतिभूतियों का समुचित मूल्यांकन करना चाहिए. यानी घाटे को छिपाया न जाए. संभव है हमारा मुद्रा भंडार कम रह जाए, मुद्रास्फीति में इजाफा हो और शेयर कीमतों में गिरावट आए. इन बातों के अलावा भारत सुरक्षित नजर आता है.

‘राष्ट्रपति’ हो जाएंगे प्रधानमंत्री!

पी चिदंबरम ने अमेरिकी संस्था ‘फ्रीडम हाऊस’ ने भारत को आंशिक रूप से आजाद लोकतंत्र का दर्जा दिया है. स्वीडन के ‘वी-डेम’ ने इसे निर्वाचित निरंकुश तंत्र के रूप में चिन्हित किया है. इकॉनोमिक इंटेलिजेंस यूनिट के लोकतंत्र सूचकांक में भारत फिसल कर तिरपनवें स्थान पर आ गया है. इस गिरावट में संसद के दोनों सदनों और उनके सदस्यों ने अपनी अहम भूमिका निभाई है.

चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि नियम 267 के तहत सदन में जरूरी सार्वजनिक महत्व के मसले पर चर्चा की जाती है. लेकिन, पिछले कुछ महीनों में चीनी घुसपैठ से लेकर हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट तक पर चर्चा की मांग पीठासीन पदाधिकारी ने खारिज कर दी. सदन के नेता के रूप में प्रधानमंत्री की ओर से राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस का जवाब देने के अलावा किसी अन्य हस्तक्षेप का उदाहरण नहीं मिलता. चिदंबरम लिखते हैं कि प्रधानमंत्री ‘राष्ट्रपति’ बन गये हैं.

चिदंबरम लिखते हैं कि ब्रिटेन में हाऊस ऑफ कॉमन्स 135 दिन बैठता है जबकि भारत में लोकसभा और राज्यसभा कुल मिलाकर 2022 में 56 दिन बैठी है. संसद में चीन-भारत युद्ध, बोफोर्स तोप, बाबरी मस्जिद जैसे विषयों पर बातचीत होती रही है. मगर, अब ये परंपरा पुरानी पड़ गयी है. लेखक आशंका जताते हैं कि भारत अब पीपुल्स रिपब्लिक बनने की ओर है. संसदीय लोकतंत्र कहीं अपने अंतिम पड़ाव पर न पहुंच जाए.

जनता की जरूरतों पर सियासी मुद्दे हावी

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि संसद के अंदर और बाहर पूरे हफ्ते हो हल्ला और हंगामा होता रहा. राहुल गांधी के संसद से माफी मांगने के सवाल पर टीवी में भी चर्चाएं होती रहीं. खुद प्रधानमंत्री ने कर्नाटक में बिना नाम लिए कांग्रेस पार्टी के वारिस की आलोचना की और फिर वरिष्ठ मंत्रियों की टोली तैयार की. उनसे कहलवाया कि राहुल गांधी ने न सिर्फ सदन को बदनाम किया है बल्कि देश को भी बदनाम किया है. गौतम अडानी के खिलाफ जांच की मांग को लेकर विपक्ष के सांसदों ने जब प्रवर्तन निदेशालय के दफ्तर का रुख किया तो उन्हें रोकने के लिए हजारों पुलिस बल के जवान आ धमके.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि निजी तौर पर उन्हें शर्मिंदगी होने लगी है कि जनता की जरूरतों से ज्यादा इन तमाशों को पत्रकार अहमियत देते हैं. इन दिनों लेखिका दिल्ली के स्कूलों और अस्पतालों का दौरा कर रही हैं. इसका जिक्र करते हुए वह लिखती हैं कि दिल्ली में स्कूल और अस्पताल बदल चुके हैं. मुहल्ला क्लीनिक हो या फिर स्कूल- बदलाव साफ दिख रहा है. ऐसे लोग भी लेखिका को मिले जिन्होंने कोविड के दौरान जान बच जाने के बाद अपना जीवन लोगों की जान बचाने में लगा दिया है.

तवलीन लिखती हैं, “पहली बार दिल्ली को ऐसी सरकार मिली है जो वास्तव में लोगों के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराने की कोशिश कर रही है जो सबसे जरूरी है.” लेखिका अपने इस विचार पर कायम है कि असली तौर पर विकसित देश भारत तब बनेगा जब इस देश के हर बच्चे को अच्छे स्कूल में पढने का मौका मिलेगा और जब देश के आम आदमी के लिए ऐसे अस्पताल बनाए जाएंगे जो वर्तमान भारत में सिर्फ धनवानों को नसीब होते हैं.

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पाकिस्तानियों से व्यवहार इतना खराब क्यों?

करण थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में सवाल रखा है कि अपने देश आने वाले पाकिस्तानी लोगों के प्रति हमारा व्यवहार इतना खराब क्यों है? यह सवाल उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाज उस्मान ख्वाजा को वीजा मिलने में हुई देरी की घटना पर किया है. ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट प्रशासन के हस्तक्षेप के बाद ही उस्मान ख्वाजा को वीजा मिल सका. इसकी वजह यह है कि उस्मान का जन्म पाकिस्तान में हुआ. बाद में वह ऑस्ट्रेलिया जा बसा. पाकिस्तानी वीजा के मामलों को निपटाने के तरीकों पर लिखते हुए करन थापर लिखते हैं कि जैसे ही किसी पाकिस्तानी का वीजा आता है उसे गृहमंत्रालय भेज दिया जाता है जहां इस पर निर्णय लेने में असीमित समय लग जाते हैं.

करण थापर लिखते हैं कि दुनिया में बड़े लोकतंत्र के रूप में जब हम खुद को पेश करते हैं तो उसके अनुरूप व्यवहार दिखाने में पीछे क्यों रह जाते हैं? लेखक खास तौर से इस बात का उल्लेख करते हैं कि उस्मान ख्वाजा के साथ ऐसा ही व्यवहार 2011 में भी हुआ था जब केंद्र में मनमोहन सरकार थी. इस तरह यह मामला पाकिस्तान के संदर्भ में भारतीयों की मानसिकता का है. इसमें संदेह नहीं कि हमें पाकिस्तान की सरकार से दिक्कत है. लेकिन, सच्चाई यह है कि हमें पाकिस्तानी लोगों से भी दिक्कत हो गयी है.

क्या हमें पाकिस्तानी लोगों और उनके शासकों के बीच फर्क नहीं करना चाहिए? सच्चाई यह है कि भले ही वीजा नहीं देने से पाकिस्तान के लोगों को बहुत फर्क नहीं पड़ता हो लेकिन भारत की सरकार और भारतीयों की छवि इस वजह से जरूर खराब हो रही है. ईश्वर के लिए यह सब रुकना चाहिए.

नंबूदरीपाद ने नेहरू को क्षमा क्यों किया?

गोपाल कृष्ण गांधी ने टेलीग्राफ में ईएमएस नंबूदरीपाद को उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए लेख लिखा है. वे लिखते हैं कि क्षमा वीरस्य भूषणम यानी क्षमा वीर पुरुषों का गहना होता है. यह देश में पहली कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त किए जाने के बाद नंबूदरीपाद की प्रतिक्रियाओं को लेकर है. जब 1957 में केरल में कम्युनिस्ट सरकार बनी थी तब यह दुनिया का ध्यान आकृष्ट करने वाली घटना थी. लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आने वाली कम्युनिस्ट सरकार के रूप में इस सरकार की प्रतिष्ठा बनी थी. आजादी की लड़ाई लड़ने वाली पार्टी कांग्रेस के केंद्र में सत्ता में होने के बावजूद यह घटना घटी थी. सत्ता में आने के बाद नंबूदरीपाद सरकार ने भूमि सुधार पर बड़ा काम किया. मगर, 1959 में नेहरू सरकार ने नंबूदरीपाद सरकार को असफल करार देते हुए बर्खास्त कर दिया. तब नंबूदरीपाद 50 साल के थे और पंडित नेहरू 70 साल के.

गोपाल कृष्ण गांधी लिखते हैं कि जब पत्रकारों ने केरल की सरकार बर्खास्त किए जाने के बाद ईएमएस नंबूदरीपाद से पूछा कि क्या आप नेहरू की सरकार को आश्चर्यजनक रूप से असफल कहेंगे? तब नंबूदरीपाद ने इसका जवाब नहीं दिया. इसका जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा, “ऐसा करना गलत होता अगर सरकार की कई उपलब्धियों के बावजूद बेहद साधारण जवाब दे दिया जाता”. नंबूदरीपाद ने नेहरू सरकार की तीन उपलब्धियों का जिक्र किया. पहली उपलब्धि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्गुट रुख, दूसरी उपलब्धि पंचवर्षीय योजना और तीसरी देश के व्यक्तित्व निर्माण में धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को अपनाना. लेखक ने प्रकाशित सामग्रियों के हवाले से बताया है कि नंबूदरीपाद ने कहा था कि आखिर इन उपलब्धियों को कैसे नकारा जा सकता है?

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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