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"छुपकर जीना पड़ता है": गर्भपात पर 24 सप्ताह की लिमिट तय करने वाला कानून बना रहा 'मजबूर' मां?

मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी कानून के अनुसार, 24 सप्ताह से अधिक का गर्भपात केवल राज्य-स्तरीय मेडिकल बोर्ड की सिफारिश के बाद ही संभव है.

तेजस्विता उपाध्याय
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>महिला का कोख पर हक बनाम अजन्मे बच्चे का अधिकार</p></div>
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महिला का कोख पर हक बनाम अजन्मे बच्चे का अधिकार

फोटो: क्विंट हिंदी

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"अगर कोर्ट का फैसला मेरे पक्ष में आया होता तो मेरी जिदंगी आज बिल्कुल अलग होती. एक ही शहर में घर होने के बावजूद मुझे अपने परिवार से छुप कर जीना नहीं पड़ता है."

श्वेता (बदला हुआ नाम) 19 साल की अविवाहित महिला हैं. 8 दिसंबर, 2023 को दिल्ली हाई कोर्ट (Delhi High Court) ने श्वेता की 26 सप्ताह की गर्भावस्था को खत्म करने की याचिका खारिज कर दी. 

श्वेता ने कोर्ट के सामने दलील दी कि वह एक स्टूडेंट हैं और अविवाहित हैं. इसके अलावा उनके पास आय का कोई स्रोत नहीं है. साथ ही यह भी कहा कि प्रेगनेंसी जारी रखने से उन्हें 'सामाजिक कलंक' और उत्पीड़न को झेलना पड़ेगा. श्वेता ने याचिका में कहा कि अगर वह बच्चे को जन्म देती हैं तो उनका करियर और भविष्य खतरे में पड़ जाएगा. 

लेकिन अदालत ने श्वेता की याचिका पर फैसला सुनाते हुए MTP कानून के तहत प्रावधानों का हवाला दिया और याचिका खारिज कर दी.

अब श्वेता बच्चे को जन्म दे चुकी हैं और उसका पालन-पोषण अकेली करती हैं. ऐसे ही 20 साल की एक याचिकाकर्ता की याचिका पर फैसला सुनाते हुए 5 फरवरी को दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद (Justice Subramonium Prasad) ने मेडिकल रिपोर्ट देखने के बाद अपने फैसले में कहा, "चूंकि भ्रूण पूरी तरह से सामान्य है और याचिकाकर्ता को प्रेगनेंसी जारी रखने में कोई खतरा नहीं है, इसलिए भ्रूणहत्या न तो नैतिक है और न ही कानूनी तौर पर स्वीकार्य है."

MTP कानून भारत में गर्भपात कानून का ढांचा है. मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (MTP) संशोधन अधिनियम 2021 के अनुसार, 24 सप्ताह से अधिक का गर्भपात केवल राज्य-स्तरीय मेडिकल बोर्ड की सिफारिश के बाद ही संभव है. लेकिन, हाल के अदालती फैसलों ने इस सीमा से परे गर्भपात की मांग करने वाली महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों पर ध्यान खींचा है.

महिला की प्रजनन स्वायत्तता (Right of Reproductive Autonomy) यानी महिला का अपनी कोख पर हक और अजन्मे बच्चे का अधिकार (Right of Unborn Child) को लेकर देश में काफी समय से एक बहस छिड़ी हुई है. दिल्ली हाई कोर्ट और केरल हाई कोर्ट ने ऐसे ही कुछ मामलों पर फैसला दिया है. इन सभी मामलों में जो बात समान है वह यह कि दायर याचिका में 24 सप्ताह से ज्यादा की गर्भधारण की हुई महिलाएं शामिल हैं. 

24 सप्ताह से ज्यादा समय से इन गर्भवती महिलाओं ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (MTP) अधिनियम के तहत गर्भपात के लिए कोर्ट से मंजूरी मांगी, जिसे खारिज कर दिया गया.

प्रमुख मामलों पर एक नजर

केस नंबर 1: 5 फरवरी, 2024 को दिल्ली हाई कोर्ट ने 20 साल की अविवाहित महिला की 28 सप्ताह के गर्भ गिराने की याचिका को खारिज कर दिया. कोर्ट ने इस फैसले को सुनाते हुए MTP Act के तहत प्रावधानों का हवाला दिया. जिसके बाद याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. फिलहाल मामला सुप्रीम कोर्ट में है.

केस संख्या 2: इसी तरह, 26 साल की विधवा को 29 सप्ताह का गर्भ गिराने की अनुमति देने के बाद दिल्ली HC ने लगभग 20 दिन बाद, 23 जनवरी 2024 को अपना आदेश वापस ले लिया. इस केस की भी सुनवाई जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद कर रहे थे और याचिका खारिज करने की भी वजह यही थी कि भ्रूण समान्य हो चुका है और मां उसे जन्म देने के लिए फिट है.

इस मामले में कहा गया कि महिला को अपनी गर्भावस्था समाप्त करने की अनुमति दी जानी चाहिए क्योंकि पति की मौत से उसे बहुद दुख पहुंचा था और वो सुसाइड की प्रवृत्ति दिखा रही थी. बच्चे को जन्म देने की अनुमति से महिला की मानसिक स्थिरता खराब हो सकती है.

इन दोनों मामलों से इतर इस साल एक ऐसे मामला का फैसला सामने आया जिसने सबको हैरान कर दिया.

केस संख्या 3: 12 साल की नाबालिग ने केरल कोर्ट के सामने यह याचिका लगाई थी कि उसे चिकित्सीय तौर पर गर्भपात की इजाजत दी जाए. बच्ची के अपने नाबालिग भाई से संबंध थे और वह 34 सप्ताह की गर्भवती थी. लड़की की उम्र देखते हुए ये उम्मीद जताई गई की फैसला उसके पक्ष में आएगा लेकिन केरल हाई कोर्ट ने यहां भी MTP Act का हवाला देते हुए याचिका को खारिज कर दिया.

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'फैसला मेरे पक्ष में होता तो मेरी जिंदगी अलग होती'

क्विंट हिंदी से बात करते हुए श्वेता ने बताया कि उनके परिवार के किसी भी सदस्य को उनकी प्रेगनेंसी या उनके बच्चे के बारे में मालूम नहीं है. परिवार के कड़े रुख और बदनामी के डर से वो अपने घरवालों या दोस्तों को अपने हालात के बारे में बताने की हिम्मत अब तक नहीं जुटा पाई हैं. इसके अलावा प्रेंगनेंसी को लेकर जैसे ही मामला कोर्ट तक पहुंचा, उनके पार्टनर ने उनसे रिश्ता खत्म कर लिया. उनके बीच कोई बातचीत नहीं है. इस मोड़ पर श्वेता आर्थिक, सामाजिक और मानसिक तौर पर बिल्कुल अकेली हैं.

हालांकि, श्वेता के पास कोर्ट द्वारा दिया यह विकल्प था कि वह बच्चे के जन्म के बाद उसे गोद लेने के लिए दे दें. लेकिन श्वेता ने यह विकल्प नहीं चुना.

"बच्चे को जन्म देने के बाद उसे किसी और के हवाले करना मेरे लिए मुश्किल था. मैंने लोगों से सुना है कि बाल गृह में बच्चों कि देख−भाल अच्छे से नहीं होती है. अपने बच्चे को वहां भेज कर मैं पूरा जीवन इसी डर में जीती कि मेरा बच्चा सुरक्षित है या नहीं. इसलिए शुरुआत में बच्चे को एडॉप्शन में भेजने का अपना फैसला मैंने उसके जन्म के बाद बदल दिया."

दिल्ली हाईकोर्ट में श्वेता की ओर से पेश हुए वकील डॉ. अमित मिश्रा ने क्विंट हिंदी को बताया, "आर्टिकल 21 जीवन जीने के अधिकार और अपने चुनाव की स्वतंत्रता देता है. यह फैसले कहीं न कहीं इस अधिकार को कॉमप्रोमाइज करते हैं. किसी भी मां के लिए अपने प्रेगनेंसी को टर्मिनेट करवाने का फैसला आसान नहीं होता, फिर भी अगर ऐसे मामले कोर्ट में आते हैं तो उनकी नाजुकता को समझते हुए कोर्ट को अपने फैसले सुनाने चाहिए."

डॉ. अमित मिश्रा केस संख्या एक और केस संख्या दो के याचिकाकर्ता के भी वकील हैं.

श्वेता ने हाल ही में 12 वीं का एग्जाम पास किया है. वह बताती हैं कि जन्मे बच्चे का अकेले पालन-पोषण और अपनी आगे की पढ़ाई को जारी रखना उनके लिए काफी मुश्किल साबित हो रहा है.

श्वेता ने हाल ही में 12 वीं का एग्जाम पास किया है.

क्विंट हिंदी/प्रतीकात्मक तस्वीर 

वकील अमित मिश्रा कहते हैं, "महिलाओं के मामले में अदालतों के लगातार ऐसे फैसले दूसरी महिलाओं का कोर्ट के प्रति विश्वास कमजोर कर सकता है जो अपनी ऐसी ही स्थिति से निपटने के लिए कोर्ट का सहारा लेना चाहती हैं. अंत में यह फैसले देश में असुरक्षित और गैरकानूनी गर्भपात को बढ़ावा देंगे."

क्या 24 सप्ताह के बाद गर्भपात कराना संभव?

कानून के मुताबिक भारत गर्भपात के लिए एक उदार देश है. MTP Act के अनुसार अगर कोई महिला 20 सप्ताह से कम गर्भवती हैं, तो केवल एक चिकित्सक को यह तय करना होगा कि गर्भपात सुरक्षित है या नहीं. अगर गर्भावस्था 20 से 24 सप्ताह के बीच है, तो दो डॉक्टर यह फैसला करेंगे की गर्भपात किया जा सकता है या नहीं.

20-24 सप्ताह के बीच गर्भपात के विकल्प का उपयोग केवल कुछ महिलाएं ही कर सकती हैं, जैसे बलात्कार पीड़िता, नाबालिग, मानसिक या शारीरिक रूप से बीमार महिलाएं. लेकिन अगर भ्रूण 24 सप्ताह से ज्यादा हो तो भी कानून कुछ खास परिस्थिती के तहत ही गर्भपात की अनुमति देता है.

कानून कहता है कि अगर सरकारी मेडिकल बोर्ड को भ्रूण में पर्याप्त असमान्यता मिलती हैं, तो 24 सप्ताह के बाद भी, गर्भपात कराया जा सकता है. इसके अलावा, ऐसे मामले जहां डॉक्टर का मानना है कि गर्भवती महिला के जीवन को बचाने के लिए गर्भावस्था को तुरंत समाप्त करना जरूरी है, तो ऐसे में गर्भपात की अनुमति बिना मेडिकल बोर्ड की राय के भी किसी समय दी जा सकती है.

मानसिक स्वास्थ्य का क्या?

हिमानी कुलकर्णी दिल्ली में प्रैक्टिस कर रही एक मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल हैं. हिमानी ने क्विंट हिंदी से बातचीत में अनचाही प्रेगनेंसी का महिला के मेंटल वेलबिंग पर होने वाले असर को लेकर कहा, "यह महिलाओं पर किया गया ‘अन्याय’ है."

हिमानी कहती हैं कि, "क्योंकि यह दोनों (केस संख्य 1 और 2) महिलाएं और एक नाबालिग, सभी अपनी आर्थिक स्थिती के लिए दूसरों पर निर्भर हैं तो ऐसे वक्त में क्या कोर्ट की यह जिम्मेदारी नहीं बनती की अपने फैसलों के दौरान वह आने वाले बच्चे की क्वालिटी ऑफ लाइफ भी सुनिश्चित करे."

12 साल की बच्ची को हम यह अधिकार भी नहीं देते की वह अपनी जिंदगी के फैसले ले सके तो ऐसे में उसपर बच्चे को जन्म देने की जिम्मेदारी थोपना उसे जीवन भर के लिए आघात पहुंचा सकता है... ऐसे फैसले अगर महिलाओं के पक्ष में होते तो उनके लिए अपने अतीत से आगे बढ़ने और अपने जीवन को बेहतर तौर पर जीने का प्रोसेस आसान हो जाता.
- हिमानी, केस संख्या तीन का जिक्र करते हुए

मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हुए क्या कभी गर्भपात के पक्ष में फैसले सुनाए गए?

6 अक्टूबर 2021 को बॉम्बे हाई कोर्ट (Bombay HC) ने 18 साल की अविवाहित लड़की को 26 सप्ताह के गर्भ को मेडिकल रूप से समाप्त करने की इजाजत दी थी. इस दौरान कोर्ट ने कहा कि प्रेगनेंसी का लड़की के मानसिक स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव होगा, इस बात को भी ध्यान में रखना होगा.

कोर्ट के निर्देश पर जांच के बाद डॉक्टर्स ने कोर्ट को बताया कि भ्रूण पूरी तरह से स्वस्थ है. उसकी प्रेगनेंसी से उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को कोई खतरा नहीं होगा. जिसपर कोर्ट ने कहा कि कम उम्र में बच्चा पैदा करने के लिए मजबूर करना लड़की के साथ उसके पूरे परिवार के लिए विनाशकारी हो सकता है. लेकिन दुर्भाग्य से मेडिकल बोर्ड ने रिपोर्ट में इस बातों पर ध्यान नहीं दिया.

इसके साथ ही पीठ ने लड़की के 26 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति दे दी.

वहीं, 21 जुलाई 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने एक 25 वर्षीय महिला को सहमति से बनाए संबंध के कारण पैदा हुए 24 सप्ताह के गर्भ को गिराने की अनुमति दे दी. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को ऐतिहासिक माना गया. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अनुच्छेद 21(Article 21) के तहत प्रजनन की स्वायत्तता गरिमा और गोपनीयता का अधिकार एक अविवाहित महिला को ये हक देता है कि वह विवाहित महिला के समान बच्चे को जन्म दे या नहीं.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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