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मैं सच कहूंगी मगर फिर भी हार जाऊंगी
वो झूठ बोलेगा और ला-जवाब कर देगा
अना-परस्त है इतना कि बात से पहले
वो उठ के बंद मिरी हर किताब कर देगा
जब लड़कियों को घरों के मसअलों में भी बोलने की इजाजत भी नहीं थी...उस दौर में एक नयी सोच, बेबाक लहजा और खूबसूरत आवाज अदबी महफिलों में गूंजा करती थी. वो आवाज थी 'खुश्बू की शायरा' कही जाने वाली उर्दू कलमकार परवीन शाकिर (Parveen Shakir) की. उनके जज्बातों की गहराई और शायरी की नजाकत को देखते हुए उर्दू शायर बशीर बद्र (Bashir Badr) ने परवीन शाकिर को मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) की बेटी कहा था.
परवीन शाकिर की पैदाइश 24 नवंबर 1952 को पाकिस्तान में हुई. शायरी का शौक उन्हें अपने वालिद शाकिर हुसैन से विरासत में मिला था. जो बिहार के जिला दरभंगा के रहने वाले थे और पाकिस्तान स्थापना के बाद कराची चले गए.
1982 में परवीन शाकिर ने पाकिस्तान का सेंट्रल सिविल सर्विसेज एग्जाम पास किया. वो अपने एक इंटरव्यू में कहती हैं कि उन्होंने पहली प्रिफरेंस पर फॉरेन सर्विसेज और दूसरी पर डिस्ट्रिक्ट मैनेजमेंट रखा लेकिन तत्कालीन हुकूमत ने सिर्फ औरत होने के नाते दोनो ही पद देने से इनकार कर दिया और परवीन शाकिर को सेकंड सेक्रेटरी सेंट्रल बोर्ड ऑफ रेवेन्यू नियुक्त किया गया. वो बाद में बतौर डिप्टी कलेक्टर पाकिस्तानी प्रशासन का हिस्सा बनीं.
उन्होंने बताया था कि उस जमाने में जब एक औरत का आदेश सुनना लोगों को मंजूर नहीं था बतौर ऑफिसर काम करना आसान नहीं था लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी और आने वाले दिनों में औरतों के लिए नये रास्ते खोले.
इसके अलावा सदबर्ग, खुद कलामी, इंकार, कफ-ए-आइना और माहे जैसी उनकी तमाम कई रचनाएं काफी मशहूर हैं.
परवीन शाकिर एक इंटरव्यू में बताती हैं कि एक बार उन्हें एक ऐसे शख्स का खत आया, जिसे फांसी की सजा सुनाई जा चुकी थी और उसकी आखिरी ख्वाहिश परवीन शाकिर की किताब पढ़ने की थी. उस खत को पढ़ने के बाद उन्होंने उस शख्स को जवाब में अपनी किताब भेजी.
परवीन शाकिर ने प्रोफेशनल लाइफ के अलावा निजी जिंदगी में भी मुश्किलों का सामना किया. उनकी शादी सफल नहीं रही और तलाक हुआ, जिसका असर उनकी गजलों में देखने को मिलता है.
जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा
उस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई
मैं तो उस दिन से हिरासां हूं कि जब हुक्म मिले
ख़ुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई
कोई आहट कोई आवाज़ कोई चाप नहीं
दिल की गलियां बड़ी सुनसान हैं आए कोई
परवीन शाकिर ने तन्हाई में भी जिंदगी गुजारी. उनकी नज्मों में इस अकेलेपन का असर साफ पर देखा जा सकता है.
वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा
मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा
हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा
क्या ख़बर थी कि रग-ए-जां में उतर जाएगा
वो हवाओं की तरह ख़ाना-ब-जां फिरता है
एक झोंका है जो आएगा गुज़र जाएगा
परवीन शाकिर की शायरी में फूल,रंग, खुश्बू, तितली, हवा, बारिश, शाम की लाली, रात, मौसम, जुगनू, चांद का जिक्र देखने को मिलता है.
गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह
दिल पे उतरेंगे वही ख़्वाब अज़ाबों की तरह
राख के ढेर पे अब रात बसर करनी है
जल चुके हैं मिरे ख़ेमे मिरे ख़्वाबों की तरह
परवीन शाकिर ने अपने अशआर के जरिए नई पीढ़ी को संदेश देने की कोशिश की है और औरत पर पुरुषों के एकाधिकार को ललकारते हुए महिलाओं के जज्बातों को अपनी नज्मों का हिस्सा बनाया है.
कू ब कू फैल गई बात सनासाई की
उसने खुश्बू की तरह मेरी पंजीराई की
कैसे कह दूं कि उसने छोड़ दिया है मुझको
बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की
दिसंबर 1994 की एक सुबह दफ्तर की ओर जाते हुए उर्दू गजल की मुमताज शायरा परवीन शाकिर का कार ऐक्सिडेंट हो गया और अदबी दुनिया की बेबाक आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गयी. लेकिन दुनिया से उनके चले जाने के बाद भी परवीन शाकिर के असआर कभी वक्त की बेड़ियों में नहीं बंधे. आज भी उनके कलम का नूर लोगों के दिलों को रोशनी से भर देता है.
उन्होंने लिखा है....
मर भी जाऊं तो कहां लोग भुला ही देंगे,
लफ्ज मेरे, मेरे होने की गवाही देंगे
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