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सआदत हसन मंटो: जमाने के इस दौर को 'नाकाबिल-ए-बर्दाश्त' कहने वाले अफ्साना-निगार

Manto पर कई कहानियों के लिए मुकदमे भी चले. इसमें 'काली सलवार', 'ठंडा गोश्त', 'बू' और 'धुआं' शामिल हैं.

मोहम्मद साक़िब मज़ीद
साहित्य
Published:
<div class="paragraphs"><p>Saadat Hasan Manto:&nbsp;जमाने के इस दौर को 'नाकाबिल-ए-बर्दाश्त' कहने वाले अफ्साना-निगार</p></div>
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Saadat Hasan Manto: जमाने के इस दौर को 'नाकाबिल-ए-बर्दाश्त' कहने वाले अफ्साना-निगार

(फोटो- विभूषिता सिंह/क्विंट हिंदी)

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"हम एक अर्से से ये शोर सुन रहे हैं. हिंदुस्तान को इस चीज़ से बचाओ. उस चीज़ से बचाओ, मगर वाक़िया ये है कि हिन्दुस्तान को उन लोगों से बचाना चाहिए जो इस क़िस्म का शोर पैदा कर रहे हैं. हिंदुस्तान को इन लीडरों से बचाओ जो मुल्क की फ़िज़ा बिगाड़ रहे हैं और अवाम को गुमराह कर रहे हैं."

कलम के ये बोल बेखौफ उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो (Saadat Hasan Manto) के हैं, जिनको झूठी दुनिया का सच्चा अफ्साना-निगार कहा गया. एक ऐसे अफ्साना-निगार, जिन्होंने जिंदगी को एक बाजी की तरह खेला और हार कर भी जीत हासिल की. लोग उर्दू शायरी (Urdu Poetry) को अगर गालिब (Mirza Ghalib) के हवाले से जानते हैं, तो फिक्शन के लिए सआदत हसन मंटो का नाम सबसे पहले आता है. वो हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे (India-Pakistan Partition) पर सबसे बेहतरीन लिखने वालों में से एक रहे, लेकिन उसके बाद भी सआदत हसन मंटो को एक बदनाम और बेशर्म लेखक क्यों कहा गया?

इंकलाब, त्रासदी और मजलूमों का दर्द लिखने वाले लेखक

11 मई 1912 को पंजाब के लुधियाना में जन्मे सआदत हसन को एक बदनाम, बेशर्म और बेखौफ लेखक कहा गया. इसकी वजह थी कि उन्होंने अपनी कलम हमेशा सीधी रखी और कभी किसी के तारीफों के पुल नहीं बांधे. इंकलाब के अफसाने लिखे, बंटवारे की त्रासदी के क़िस्से लिखे और औरत से लेकर मजलूमों के दुःख-दर्द और उनकी मजबूरियां भी उनकी कहानियों का हिस्सा हैं.

मंटो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने के बाद साल 1936 में मुंबई चले गए. वो खुद को 'चलता-फिरता बॉम्बे' कहा करते थे, लेकिन 1947 में हुए बंटवारे के बाद उन्हें बॉम्बे छोड़ना पड़ा और उन्होंने पाकिस्तान का रुख किया.

मंटो ने हिंदुस्तान के बंटवारे की तारीख को अपनी कलम से बेहद शानदार तरीके के बयान किया है. वो लिखते हैं...

मेरे लिए ये तय करना नामुमकिन हो गया है, कि दोनों मुल्कों में अब मेरा मुल्क कौन-सा है. बड़ी बेरहमी के साथ हर रोज जो खून बहाया जा रहा है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है? अब आजाद हो गए हैं लेकिन क्या गुलामी का वजूद खत्म हो गया है? जब हम गुलाम थे तो आजादी के सपने देख सकते थे, लेकिन अब हम आजाद हो गए हैं तब हमारे सपने किसके लिए होंगे?

अश्लीलता फैलान के आरोप में जेल गए

सआदत हसन मंटो के ऊपर कई कहानियों को लेकर मुकदमे भी चले. इस लिस्ट में उनकी कहानी 'काली सलवार', 'ठंडा गोश्त', 'बू', 'धुआं' और 'ऊपर, नीचे और दरमियां' शामिल हैं. उन पर कई बार अश्लीलता के मुकदमे चले और पाकिस्तान में 3 महीने की कैद और 300 रुपया ज़ुर्माना भी हुआ.

दायर मुकदमों से लड़ते-लड़ते मंटो की जिंदगी निकल गई, लेकिन ये मुश्किलें ना तो उनका हौसला तोड़ सकीं और ना ही उनकी कलम खामोश हुई. मंटो कहते थे कि हर उस चीज के बारे में लिखा जाना चाहिए जो हमारे आस-पास हो रही हैं.

कहा जाता है कि मंटो एक ही बैठकी में एक कहानी पूरी कर देते थे. उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन में 270 अफसाने यानी कहानियां, 100 से ज्यादा ड्रामे, फिल्मों की कहानियां, संवाद और ढेरों नामवर और गुमनाम शख्सियात के रेखा चित्र लिखे.

मंटो ने 'ठंडा गोश्त' पर चलने वाले मुकदमे की पूरी जानकारी 'ठंडा गोश्त' नाम से छपने वाले कहानी संग्रह की प्रस्तावना में 'ज़हमत मेहर दरख़्शां' के नाम से लिखा है.

जब मैं भारत की नागरिकता छोड़कर जनवरी 1948 में लाहौर आया, तो मेरी मानसिक स्थिति तीन महीने तक अजीब रही. मुझे समझ में नहीं आता था कि मैं कहां हूं? भारत में या पाकिस्तान में. बार-बार दिमाग में उलझन पैदा करने वाला सवाल गूंजता, क्या पाकिस्तान का साहित्य अलग होगा? यदि होगा, तो कैसे होगा?"
सआदत हसन मंटो
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मंटो कहते हैं कि "वह सब कुछ जो अविभाजित भारत में लिखा गया है, उसका मालिक कौन है? क्या इसका भी बंटवारा किया जाएगा? क्या भारतीयों और पाकिस्तानियों की बुनियादी समस्याएं एक जैसी नही हैं? क्या हमारा देश धार्मिक देश है? देश के तो हम हर हाल में वफादार रहेंगे, लेकिन क्या हमें सरकार की आलोचना करने की इजाजत होगी? क्या आजादी के बाद, यहां के हालात गोरों की सरकार के हालात से अलग होंगे?"

जलियांवाला बाग नरसंहार का आंखों देखा हाल

कहा जाता है कि मंटो, जलियांवाला बाग में घंटों बैठकर अंग्रेजी हुकूमत के तख्तापलट के ख्वाब देखा करते थे. इसकी वजह ये थी कि मंटो ने सात साल की उम्र में जलियांवाला बाग खूनी नरसंहार का नजारा देखा और उसको अंदर ही अंदर कहीं महसूस किया. वक्त गुजरा और बदला लेकिन शायद मंटो के अंदर से वो दर्द नहीं निकल सका. जब उन्होंने कलम उठाई तो इसी पर आधारित पहली कहानी ‘तमाशा’ लिखी.

'तमाशा' में वो लिखते हैं...

दो तीन रोज से तय्यारे स्याह उकाबों यानी बाज की तरह पर फुलाए खामोश फिजा में मंडला रहे थे. जैसे वो किसी शिकार की जुस्तुजू में हों सुर्ख आंधियां वकतन फवकतन किसी आने वाली खूनी हादसे का पैगाम ला रही थीं. सुनसान बाजारों में मुसल्लह पुलिस की गश्त एक अजीब हैबतनाक समां पेश कर रही थी. वो बाजार जो सुबह से कुछ अर्सा पहले लोगों के हुजूम से पुर हुआ करते थे, अब किसी नामालूम खौफ की वजह से सूने पड़े थे. शहर की फिजा पर एक पुरअसरार खामोशी मुसल्लत थी. भयानक खौफ राज कर रहा था.

हिंदी सिनेमा के कलाकार सुंदर श्याम चड्ढा और मंटो के बीच अच्छी दोस्ती थी. उनकी दोस्ती के किस्से आज भी सुने जाते हैं.

साल 1951 में श्याम 'शबिस्तान' फिल्म की शूटिंग कर रहे थे. शूटिंग के दौरान ही घोड़ों के गिरने की वजह से उनकी मौत हो गई थी. उनकी मौत पर मंटो को बहुत दुःख और उन्होंने लिखा कि....
अप्रैल की तेईस या चौबीस थी. मुझे अच्छी तरह याद नहीं रहा. पागलखाने में शराब छोड़ने के ‎सिलसिले में जेर-ए-इलाज था कि श्याम की मौत की खबर एक अखबार में पढ़ी. उन दिनों एक ‎अजीब-ओ-गरीब कैफियत मुझ पर तारी थी. बेहोशी और नीम बेहोशी के एक चक्कर में फंसा ‎हुआ था. कुछ समझ में नहीं आता था कि होशमंदी का इलाका कब शुरू होता है और मैं बेहोशी ‎के आलम में कब पहुंचता हूं. दोनों की सरहदें कुछ इस तरह आपस में गड मड हो गई थीं कि ‎मैं खुद को 'नो मेंस लैंड' में भटकता महसूस करता था."

सआदत हसन मंटो ने अपने दोस्त की मौत पर तो लिखा ही, इसके अलावा उन्होंने अपने मौत के साल पहले ही खुद की कब्र पर लिखने के लिए लाइनें लिखीं, जो दर्दभरी होते हुए भी बहुत प्यारी थी...इसमें वो लिखते हैं...

यहां सआदत हसन मंटो लेटा हुआ है और उसके साथ कहानी लेखन की कला और रहस्य भी दफन हो रहे हैं. टनों मिट्टी के नीचे दबा वह सोच रहा है कि क्या वह खुद से बड़ा कहानी लेखक नहीं है."

सआदत हसन मंटो को और बेहतर तरीके से समझने के लिए हमने बात की JCB अवार्ड से सम्मानित उर्दू उपन्यासकार और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में उर्दू के प्रोफेसर खालिद जावेद (Khalid Jaweb) से. वो कहते हैं कि सआदत हसन मंटो ना सिर्फ उर्दू कहानी का सबसे बड़ा और इंकलाबी नाम है बल्कि भारत की जितनी जबाने हैं उन सबमें रिच कहानीकार हैं. किसी भी भाषा ने इतना अजीबोगरीब कहानी लिखने वाला नहीं पैदा किया.

मंटो की दुनिया के अंदर सिर्फ मजदूर और किसान नहीं हैं बल्कि ज्यादा गिरे पड़े वो लोग हैं, जिनको समाज ने आज तक कोई इज्जत नहीं दी है. इसमें वैश्याएं, दलाल और जानवर हैं. उन्होंने पहली बार हमें यह बताया कि वैश्या भी एक इंसान है. ये चीज उनकी कहानी 'काली सलवार' में पढ़ने को मिलता है.
प्रो.खालिद जावेद, उर्दू उपन्यासकार और जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी में उर्दू के प्रोफेसर

"मंटो के पढ़ने से हमें अपने गुनाह याद आ जाते हैं"

प्रोफेसर खालिद जावेद आगे कहते हैं कि मंटो के अफसाने में ये है कि वो वैश्या आपकी बहन, बेटी, बीवी और मां भी हो सकती है. जो कहानियां मंटो ने विभाजन पर लिखी है, वो हमें झगझोर देती हैं.

अब तक भारत-पाकिस्तान बंटवारे पर हिंदुस्तान की किसी भी भाषा में जितनी भी कहानियां लिखी गई हैं, अगर उनमें से पांच या छः को अगर सेलेक्ट करें तो उनमें मंटो की कहानी शामिल होगी. मंटो ने उस वक्त जो कुछ भी लिखा था, वो सिर्फ उस वक्त के लिए नहीं था बल्कि सौ सालों के लिए था.

प्रोफेसर खालिद जावेद आगे कहते हैं कि मंंटो के जमाने में लोग उन्हें नहीं पढ़ते थे. उनकी किताब लोग आलमारी में छिपा के रखते थे और अखबार में लपेटकर रखते थे. लेकिन आज ये हाल है कि मंटो के बिना लोग निवाला नहीं तोड़ सकते हैं. आज मंटो एक इंडस्ट्री बन गए हैं. मंटो की इंसानों से हमदर्दी और मोरल सिस्टम पर सवाल खड़ा करना और मोरल वैल्यू को कटघरे में खड़ा कर देना, जिसमें में हम अपने गुनाहों को याद करने लगते हैं. सआहद हसन मंटो एक अकेले ऐसे अफ्साना-निगार या कहानीकार हैं, जिनको पढ़कर हमें अपने गुनाह याद आ जाते हैं, दूसरों के नहीं.

सआदत हसन मंटो ने साल 1955 की 18 जनवरी को आखिरी सांस ली. उनको गुजरे हुए जमाने बीत गए लेकिन वो अपनी बातों और बागी लहजे के आज भी हमारे बीच जिंदा हैं.

“जमाने के जिस दौर से हम गुजर रहे हैं, अगर आप उससे वाकिफ नहीं तो मेरे अफसाने पढ़िए और अगर आप इन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि जमाना नाकाबिल-ए-बर्दाश्त है.”
सआदत हसन मंटो

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