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साल 1971 की बात है, जब एक 20 का दुबला-पतला जोधपुर का नौजवान बांग्लादेशी शरणार्थियों के शिविर में उनकी सेवा में लगा था. उसी समय इंदिरा गांधी की नजर उस नौजवान पर पड़ी. इंदिरा ने उसे राजनीति में आने का न्योता दिया. यह वो समय था जब इंदिरा और संजय गांधी, युवा कांग्रेस को दक्षिण पंथी जनसंघ और उसके सहयोगी संगठन से मुकाबले के लिए तैयार कर रहे थे. उस समय कांग्रेस में युवाओं की टोली का नेतृत्व संजय गांधी कर रहे थे. इंदिरा गांधी के कहने पर संजय गांधी ने उस नौजवान को राजस्थान ईकाई का NSUI अध्यक्ष नियुक्त कर दिया. फिर उस नौजवान ने राजनीति में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. हम बात कर रहे हैं, राहुल और प्रियंका गांधी के 'जादूगर' अंकल अशोक गहलोत की.
अशोक गहलोत एक बार फिर से देश की सियासी चर्चा के केंद्र बिंदु में हैं. वजह है, देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव. इसके लिए अशोक गहलोत प्रबल दावेदार माने जा रहे हैं. कार्यकर्ताओं को उम्मीद है कि गांधी परिवार की तीन पीढ़ियों के साथ काम कर चुके गहलोत अपनी जादूगरी से कांग्रेस में जान फूंकने में कामयाब होंगे. क्योंकि, गहलोत अपनी जादूगरी का प्रमाण कई बार दे चुके हैं. और अपने सियासी चक्रव्यूह में विरोधियों को फंसाने में कामयाब रहे हैं. माली समाज से आने वाले गहलोत को जादूगर इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि उनके पिता लक्ष्मण सिंह गहलोत जादूगर हुआ करते थे और उनके कार्यक्रमों में गहलोत भी जाया करते थे.
70 साल की उम्र पार कर चुके गहलोत ने अपना पहला चुनाव 70 के दशक में लड़ा था. जोधपुर के जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने के दौरान उन्होंने छात्रसंघ सचिव पद का चुनाव लड़ा था, लेकिन इस चुनाव में वो हार गए थे.
यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष रहने के दौरान ही गहलोत और संजय गांधी के बीच करीबी बढ़ने लगी थी. इमरजेंसी खत्म होने के बाद 1977 में देशभर में आम चुनाव हुए. लेकिन, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं में डर था कि चुनाव में जनता इमर्जेंसी के खिलाफ अपना आक्रोश जरूर दिखाएगी. राजस्थान में विधानसभा चुनाव के लिए जोधपुर की सरदारपुरा सीट से युवा अशोक गहलोत को टिकट मिल गया. इसकी वजह ये थी कि टिकट के लिए मारा-मारी नहीं थी.
इमर्जेंसी के प्रति जनआक्रोश की आशंका से सहमे हुए तमाम नेता चुनावी समर में उतरना ही नहीं चाहते थे और गहलोत के पास खोने के लिए कुछ नहीं था. वह पूरे दम-खम से चुनाव लड़े. चुनाव के लिए उन्हें अपनी प्रिय मोटरसाइकल तक बेचनी पड़ी. लेकिन, वह चुनाव हार गए. जनता पार्टी के माधव सिंह ने उन्हें करीब 4 हजार वोटों के अंतर से हरा दिया.
आपसी कलह से जुझ रही जनता पार्टी की सरकार 3 साल भी नहीं चल सकी. नतीजतन साल 1980 में मध्यावधि लोकसभा चुनाव हुआ. तब गहलोत को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि 3 साल बाद उनकी किस्मत बदलने या यूं कहें कि चमकने वाली है. 1980 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने जोधपुर संसदीय सीट से अशोक गहलोत को उम्मीदवार के रूप में चुना. तब 29 साल के गहलोत ने बड़े अंतर से जीत हासिल की. इंदिरा गांधी दोबार सत्ता में लौंटी तो कायास लगाए जाने लगे कि राजस्थान के कद्दावर नेता मोहन लाल सुखाड़िया को इंदिरा गांधी केंद्रीय गृह मंत्री बना सकती हैं. लेकिन, सुखाड़िया इंतजार करते रह गए और गहलोत इंदिरा गांधी के मंत्रिपरिषद में शामिल हो गए.
वह जल्द ही इंदिरा के करीबियों और कुछ बेहद भरोसेमंद लोगों में गिने जाने लगे थे. जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो तब भी गहलोत उनके मंत्रिमंडल का हिस्सा थे. बाद में राजीव गांधी ने ही गहलोत को केंद्र के बजाय राज्य की राजनीति में रुचि लेने को प्रेरित किया था. जब गहलोत ने राज्य की राजनीति में एंट्री की तो उस समय कांग्रेस में बड़े-बड़े नेता थे, जिनका प्रदेशव्यापी आधार था. गहलोत ने उन सभी को सियासी मोर्चे पर शिकस्त दी. गांधी परिवार के विश्वास के दम पर ही कोई उनके सामने नहीं ठहरा.
क्योंकि, गहलोत सियासत की नब्ज समझ गए थे कि अगर राजनीति में लंबा टिकना है तो पार्टी हाईकमान तक सीधी पहुंच और विश्वास होना जरूरी है. गहलोत ने इन्हीं दो सूत्रों पर हमेशा काम किया. राजीव गांधी की हत्या के बाद भी गहलोत गांधी परिवार के विश्वासपात्र बने रहे. यही वजह है कि गहलोत सोनिया और राहुल के भी उतने ही भरोसेमंद हैं, जितने कभी इंदिरा और राजीव गांधी के हुआ करते थे.
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