महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी की सरकार संकट में है. शिवसेना नेता और मंत्री एकनाथ शिंदे का दावा है कि 40 विधायक उनके साथ हैं. अगर दावे में सच्चाई है तो अबकी बार उद्धव ठाकरे बड़ी मुश्किल में हैं, क्योंकि दल बदल विरोधी कानून से बचने के लिए 37 विधायकों की ही जरूरत पड़ेगी. लेकिन महा विकास अघाड़ी सरकार पर बागी विधायकों के बादल क्यों मंडराने लगे? आधे से ज्यादा विधायक अपनी ही पार्टी से बगावत क्यों कर बैठे? चार कारण हो सकते हैं जिसकी हम यहां चर्चा कर रहे हैं.
महाराष्ट्र में जो हो रहा है उसकी पृष्ठभूमि फरवरी 2021 से तैयार होने लगी थी. जब अंबानी के घर एंटीलिया के पास स्कॉर्पियो में विस्फोटक मिले थे. जांच की आंच महा विकास अघाड़ी की सरकार तक पहुंची. एनसीपी नेता और महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख को मंत्री पद से इस्तीफा तक देना पड़ गया. परमबीर सिंह, सचिन वझे और अनिल देशमुख को लेकर जो कहानियां सामने आईं, उससे महा विकास अघाड़ी सरकार की काफी आलोचना हुई. शिवसेना और उद्धव सरकार पर भी सवाल उठे.
1. एजेंसियों का दबाव-बीजेपी की प्रेशर पॉलिटिक्स हिट
बीजेपी की प्रेशर पॉलिटिक्स एक बड़ा फैक्टर है, जिसकी वजह से महाराष्ट्र सरकार संकट में है. इसे महाराष्ट्र सरकार को दो मंत्रियों नवाब मलिक और अनिल देशमुख के उदाहरण से समझ सकते हैं. दोनों जेल में हैं. राज्यसभा चुनाव और विधान परिषद के चुनाव में वोट तक नहीं दे पाए.
एनसीपी नेता अनिल देशमुख के खिलाफ अप्रैल 2021 में सीबीआई ने वित्तीय भ्रष्टाचार के आरोप में केस दर्ज किया. 100 करोड़ की रिश्वतखोरी का आरोप लगा. फिलहाल वो जेल में हैं. नवाब मलिक के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला है. गैंगस्टर दाऊद इब्राहिम और उसके कुछ करीबी सहयोगियों के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी ने 23 फरवरी को मलिक को गिरफ्तार कर लिया.
अनिल देशमुख और नवाब मलिक को जेल होने के बाद विपक्ष के नेताओं में शायद एक मैसेज तो जरूर गया होगा कि बीजेपी के साथ हैं तो सुरक्षित हैं और अगर उसके खिलाफ हैं, विरोधी पार्टियों के साथ हैं तो एजेंसियों का खतरा बना रहेगा.
2. कांग्रेस के बजाय शिवसेना की बीजेपी से वैचारिक निकटता
महाराष्ट्र में बीजेपी से अलग होने के बाद शिवसेना के सामने सबसे बड़ा सवाल था कि वह कांग्रेस के साथ विचारधारा के स्तर पर कैसे अडजस्ट करेगी. लेकिन जब महा विकास अघाड़ी की सरकार बनी, तब धीरे-धीरे शिवसेना की सॉफ्ट हिंदुत्व की नई छवि दिखने लगी. यही वह रास्ता था, जिसके जरिए शिवसेना अपने नए साथियों एनसीपी-कांग्रेस के साथ सरकार में रह सकती थी. उम्मीद के मुताबिक सरकार तो ठीक-ठाक चली, लेकिन शिवसेना के अंदर समस्या दिखने लगी. जमीन पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को सॉफ्ट हिंदुत्व वाली छवि से तालमेल बैठाना मुश्किल होने लगा. शायद यहीं एकनाथ शिंदे को मौका मिल गया-
हम किसी पार्टी में शामिल नहीं होंगे. हम शिवसेना में ही रहेंगे. हम बाला साहेब और आनंद दिघे साहब की विचारधारा पर चलेंगे. सत्ता के लिए समझौता नहीं करेंगे. जय महाराष्ट्र. गर्व से कहो हम हिंदू हैं. हिंदुत्व के मुद्दे पर समझौता नहीं करेंगे.एकनाथ शिंदे
राजनीतिक गलियारों में ये भी खबर उड़ी कि शिंदे ने उद्धव ठाकरे को मैसेज भिजवाया है कि हिंदुत्व के मुद्दे पर बीजेपी के साथ जाना चाहिए. कहा जाता है कि एकनाथ शिंदे उन नेताओं में से हैं, जिन्होंने शिवसेना का कांग्रेस के साथ सरकार बनाने के फैसले का विरोध किया था.
3. महाराष्ट्र में हिंदुत्व की राजनीति का वैक्यूम-नए प्लेयर से डर?
जब से शिवसेना कांग्रेस-एनसीपी के साथ गई है, तब से महाराष्ट्र में हिंदुत्व की राजनीति का एक वैक्यूम पैदा हो गया है. राज ठाकरे अपने बयानों और कार्यक्रमों से इस वैक्यूम को भरने में लगे हैं. ऐसे में शिव सैनिकों को शायद ये लग रहा हो कि कहीं राज ठाकरे सफल हो गए तो उनकी तो बुनियाद ही खिसक जाएगी. क्योंकि कांग्रेस और एनसीपी तो गठबंधन के बाद भी अपनी विचारधारा के साथ है, लेकिन शिवसेना ने कहीं न कहीं समझौता किया है.
4. शरद पवार सरेंडर?
महाराष्ट्र की राजनीति को लेकर जब शरद पवार से पूछा गया कि क्या एनसीपी बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना सकती है, तब उन्होंने कहा कि इस सवाल का कोई मतलब नहीं है. सरकार गिरती है तो एनसीपी विपक्ष में भी बैठ सकती है.
शरद पवार के बयान से दो बातें समझ में आती हैं. पहली कि उन्होंने एक हारे हुए खिलाड़ी जैसा रिएक्ट किया. ये वही शरद पवार हैं, जिन्होंने हर बार सरकार गिरने से बचाया, लेकिन अबकी बार विपक्ष में बैठने तक की बात कह डाली. दूसरी कि क्या उन्हें पहले से अंदेशा था कि महाराष्ट्र में ऐसा कुछ हो सकता है? ये सवाल इसलिए क्योंकि उन्होंने पूरे घटनाक्रम में कहा कि ये शिवसेना के 'अंदर का मामला' है.
बिल्कुल शिवसेना के अंदर का मामला है लेकिन इस 'अंदर के मामले' से फर्क सीधे तौर पर महा विकास अघाड़ी की सरकार पर पड़ेगा. सरकार गिर सकती है. शरद पवार को भी ये बात पता है, लेकिन अबकी बार वह प्रो-एक्टिव नजर नहीं आ रहें. उन्हें शायद ये बात पता हो कि अब शिवसेना को साथ लेकर चलना मुश्किल है. उद्धव ठाकरे भले ही राजी हो जाए, लेकिन पार्टी के अंदर एक धड़ा हमेशा से कांग्रेस के साथ सरकार बनाने के विरोध में रहा है. ऐसे में उद्धव ठाकरे भी मजबूर हैं. सबूत सामने हैं. नाक के नीचे से आधे से ज्यादा विधायक बागी नेता एकनाथ शिंदे के साथ चले गए.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)