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महाराष्ट्र (Maharashtra) की राजनीति अब अदालत के फेर में फंसी है. शिवसेना (Shiv Sena) के उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) और एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) के बीच “असली कौन” के मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में 20 जुलाई को हुई. सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों को 26 जुलाई तक अपनी बात लिखित रूप में देने की बात कह कर सुनवाई की अगली तारीख 1 अगस्त ठहराई है.
“असली कौन” के फेर में फंसी शिवसेना (Shivsena) के दोनों गुट, एक- दूसरे से बहुत दूर हो चुके हैं. ठाकरे गुट के प्रवक्ता संजय राऊत और ठाकरे कुलदीपक आदित्य ठाकरे जिस तरह से बयान दे रहे हैं, उससे नहीं लगता कि दोनों गुट एक हो सकेंगे. इन दोनों नेताओं के बयान, दोनों गुटों के बीच की दूरी को लगातार बढ़ा रहे हैं. बयानबाजी में जिस तरह की भाषा का प्रयोग हो रहा है तो निसंदेह बागी गुट की भावनाओं को आहत करने का काम कर रही है.
शिवसेना के अंदरूनी झगड़े में एक बात गौर करने वाली है कि शिंदे गुट ने कभी भी यह नहीं कहा है कि उन्होंने और उनके समर्थकों ने शिवसेना छोड़ी है. वे लगातार कह रहे हैं कि उद्धव ठाकरे ही हमारे नेता हैं. शिंदे गुट के वकील हरीश साल्वे की यह दलील बहुत महत्वपूर्ण है कि पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल होना बगावत (दलबदल) होता है. पार्टी में रहकर ही विरोध में आवाज उठाना दलबदल नहीं है.
पार्टी छोड़ने पर ही दलबदल कानून लागू होता है. शिंदे गुट चाहता है कि कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की महा विकास आघाडी से शिवसेना नाता तोड़ ले और भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाए. इसके साथ ही शिंदे गुट चाहता है कि उद्धव संजय राउत पर भी लगाम कसें. उन्हें उनको खामोश करें.
ठाकरे और शिंदे गुट में चल रही है अदालती लड़ाई से दोनों ही गुटों में से किसी को कुछ हासिल नहीं होना है. लड़ाई का नतीजा इतिहास में ही दर्ज होगा. जमीनी तौर पर ठाकरे और शिंदे गुट के हाथ खाली ही रहने हैं. यदि ठाकरे जीतते हैं तो उनके पास क्या रहेगा और एकनाथ शिंदे जीते हैं तो उनके पास क्या रहेगा? यदि फैसला ठाकरे के पक्ष में होता है तो मध्यावधि चुनाव की संभावनाएं बढ़ जाएंगी और यदि शिंदे जीतते हैं तो BJP के साथ उनका सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो उन्हें ढाई साल के लिए सरकार चलाने का मौका मिलेगा. लेकिन यह सब “किंतु- परंतु” है.
इस समय बड़ी समस्या यह है कि ठाकरे को अपना राजनीतिक वर्चस्व और अस्तित्व बचाना है. लेकिन उनके लड़ने का तरीका ही उनकी हताशा को बताता है. जिस तरह से उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और अपनी गुफा “मातोश्री” में चले गए वह बताता है कि मैदानी लड़ाई में वे कमजोर हैं. ठाकरे के पास अच्छे दमदार, समझदार राजनीतिक सलाहकारों की कमी साफ नजर आती है.
सवाल यह उठता है कि शिवसेना के नेतृत्व में इतनी अकड़ क्यों है कि वह अपने राजनीतिक अस्तित्व की भी चिंता नहीं कर रहा है. इसकी जड़ शिवसेना के संगठनात्मक ढांचे में है. कहने को तो यह लोकतांत्रिक पार्टी है लेकिन सारा काम राजशाही ठाठ से चलाया जाता है. सारे फैसले शिवसेना प्रमुख करते हैं. जब किसी विषय पर चर्चा न हो, कोई बहस न हो और बहस की इजाजत ही न हो तो अच्छे नतीजों की उम्मीद कैसे की जा सकती है? शिवसेना और BJP के बीच मतभेद 2014 के पहले से भी थे. 2014 के विधानसभा चुनाव में एक- दूसरे के खिलाफ लड़ने के बावजूद बाद में दोनों ने मिलकर सरकार बनाई थी. शिवसेना ने इस सरकार को परेशान करने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
2019 में चुनाव पूर्व गठबंधन करने के बाद शिवसेना ने जो रवैया अपनाया था, उससे विधायक नाराज थे यह बागी विधायकों ने ढाई साल बाद दिखा दिया. तात्कालिक लाभ और BJP को सत्ता से दूर रखने की व्यक्तिगत खुन्नस के कारण उद्धव ठाकरे ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस का साथ जो गठबंधन बनाया था वह बेमेल होने के साथ ही शिवसेना के राजनीतिक सिद्धांतों के खिलाफ भी था. सत्ता के इस गठबंधन का असली लाभ तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने उठाया. कांग्रेस दूसरे स्थान पर लाभार्थी रही और शिवसेना का तो सब कुछ लुट गया. विधायक भी गए, सांसद भी गए और सत्ता भी हाथ से निकल गई.
इस समय सबसे बड़ी बात यह है कि शिवसेना को जमीनी स्तर पर बनाए रखने के लिए कौन से कदम उठाएं जाएं और कौन से उपाय किए जाएं? अंदाज यही है कि अदालती लड़ाई के नतीजों की उपलब्धि शिवसेना के लिए ज्यादा लाभकारी नहीं होगी. उद्धव को अपने पार्टी को जनता के बीच मजबूत बनाने और फिर से स्थापित करने की पुरजोर कोशिश करनी होगी.
महा विकास आघाडी के कारण शिवसेना के हिंदुत्व पर सवालिया निशान लग चुका है. इस निशान को मिटाने की कोशिश उन्हें करनी होगी. “फेसबुक लाइव” “व्हाट्सएप” और दूसरे अन्य आभासी मीडिया से यह लक्ष्य हासिल नहीं होगा. इसके लिए जनता के बीच जाना होगा. पूरे महाराष्ट्र का दौरा कर शिवसैनिकों की खोई हुई आस्था, प्रेम, स्नेह और विश्वास को फिर से पाना होगा. अपने आसपास की “चौकड़ी” को दूर करना होगा और “चापलूसी” से छुटकारा पाना होगा. शिवसेना विधायकों और नेताओं की शिकायत थी कि ये “चाटुकार” उन्हें उद्धव से मिलने नहीं देते हैं. यह शिकायत दूर करनी होगी. कार्यकर्ताओं, नेताओं, जनप्रतिनिधियों के लिए वे आसानी से उपलब्ध हो सकें तो बिगड़ी बात बन सकती है.
'सिंहासन' पर बैठकर शिवसैनिकों से बात करने की आदत छोड़नी होगी. 2 दिन पहले उद्धव का साथ छोड़ने वाले रामदास कदम ने कहा था कि मुझे अपने से छोटे आदित्य ठाकरे को भी साहब कहना पड़ता था. उद्धव ठाकरे को याद रखना चाहिए कि वे बाल ठाकरे नहीं हैं, जिन्होंने शिवसेना की स्थापना की थी. समय बदल चुका है परिवारवाद की चौखट से शिवसेना बाहर निकलेगी तभी उसे जनता का विश्वास फिर हासिल होगा.
राजनीति में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. सत्ता भी आती जाती रहती है. BJP भी हार के बाद 2 से 200 तक पहुंची थी. लेकिन इसके लिए लड़ना होता है, संघर्ष करना पड़ता है. याद रखना होगा कि असली शिवसेना विवाद के अदालती फैसले का असर किसी भी गुट के लिए अस्थायी रहेगा. महत्वपूर्ण यह है कि मध्यावधि चुनाव हो या 2024 का चुनाव हो,जो जनता का विश्वास जीतेगा वही सिकंदर होगा.
(विष्णु गजानन पांडे महाराष्ट्र की सियासत पर लंबे समय से नजर रखते आए हैं. वे लोकमत पत्र समूह में रेजिडेंट एडिटर रह चुके हैं. आलेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं और उनसे दी क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है)
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