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महाराष्ट्र (Maharashtra) की प्रमुख पार्टियों में से एक शिवसेना (Shiv Sena) पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. पार्टी टूटने के कगार पर पहुंच गई है. ऐसा नहीं है कि शिवसेना पहली बार इस तरह के संकट से जूझ रही है. इससे पहले भी कई बार पार्टी को अंतर्कलह का सामना करना पड़ा है. कहा जा रहा है कि बाला साहेब (Bal Thackeray) की शिवसेना और उद्धव (Uddhav Thackeray) की शिवसेना में बहुत कुछ बदल गया है. पार्टी कमजोर और अपनी आक्रामक छवि खोती दिख रही है.
मराठियों के हक की आवाज बुलंद करते हुए बाल ठाकरे ने साल 1966 में शिवसेना का गठन किया था. दरअसल, 60 के दशक में मुंबई में बड़े कारोबार पर गुजरातियों का कब्जा था. वहीं छोटे कारोबार में दक्षिण भारतीयों और मुस्लिमों की हिस्सेदारी ज्यादा थी. इसके खिलाफ बाला साहेब ने विरोध का बिगुल फूंक दिया.
दक्षिण भारतीयों के खिलाफ बाला साहेब ने ‘पुंगी बजाओ और लुंगी हटाओ' का नारा दिया. ठाकरे तमिल भाषा का उपहास करते हुए उन्हें ‘यंडुगुंडू’ कहते थे. बाला साहेब अपनी पत्रिका मार्मिक के हर अंक में उन दक्षिण भारतीय लोगों के नाम छापा करते थे जो मुंबई में नौकरी कर रहे थे और जिनकी वजह से स्थानीय लोगों को नौकरी नहीं मिल पा रही थी.
बाला साहेब ठाकरे का कहना था कि महाराष्ट्र में वहां के युवाओं के हितों की रक्षा करना सबसे जरूरी काम है. इस आंदोलन के साथ ही बाला साहेब और शिवसेना की लोकप्रियता बढ़ती गई. बड़ी संख्या में युवा शिवसेना से जुडे़.
1985 के बीएमसी चुनावों ने महाराष्ट्र में राजनीति की दिशा बदल दी. शिवसेना अपने दम पर नगर निकाय में सत्ता में आई. उसके बाद से शिवसेना मुंबई और महाराष्ट्र की सियासत में हावी होने लगी.
समय के साथ शिवसेना ने अपने एजेंडे में थोड़ा बदलाव भी किया. बाल ठाकरे ने मराठी मानुस के साथ हिंदुत्व की विचाराधारा को अपनाया. 80 और 90 के दशक में शिवसेना को इसका फायदा भी मिला.
इसके बाद बाला साहेब ने बीजेपी के साथ हाथ मिलाया. 1989 के लोकसभा चुनाव के पहले पहली बार BJP और शिवसेना के बीच गठबंधन हुआ. चुनावों में शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में ही रही. 1990 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना 183 सीटों पर लड़ी और 52 पर जीत हासिल की, जबकि BJP ने 104 सीटों पर लड़कर 42 सीटों पर जीत दर्ज की. उस वक्त शिवसेना के मनोहर जोशी विपक्ष के नेता बने.
1991 में बाल ठाकरे के करीबी नेताओं में से एक माने जाने वाले छगन भुजबल (Chhagan Bhujbal) ने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया. भुजबल के नेतृत्व में 18 विधायकों ने शिवसेना-बी नाम की पार्टी बनाने का ऐलान किया. पार्टी की स्थापना के बाद ये पहला मौका था जब किसी ने बाल ठाकरे से बगावत की थी.
6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ. इस घटना के बाद शिवसेना का नाम राष्ट्रीय पटल पर लिया जाने लगा. मराठा पहचान और परिधि वाली पार्टी के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी. उत्तर भारत में रामजन्मभूमि के आंदोलन में शिवसेना का नाम विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल के साथ पहली पंक्ति में शामिल था.
शिवसेना आज भी हिंदुत्व के एजेंडे को लेकर बाला साहेब की राह पर है. 2018 में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने राम मंदिर को लेकर नया नारा दिया था. नारे में कहा गया, "हर हिंदू की यही पुकार, पहले मंदिर फिर सरकार."
वहीं इस साल 16 जून को अयोध्या दौरे पर आदित्य ठाकरे (Aditya Thackeray) ने कहा कि अयोध्या पवित्र भूमि है हम सबकी आस्था की जगह है. 2018 में जब हम यहां आए तब नारा दिया कि पहले मंदिर फिर सरकार. शिवसेना के नारे के बाद मंदिर निर्माण का रास्ता साफ हुआ है.
1995 विधानसभा का चुनाव BJP और शिवसेना ने साथ मिलकर लड़ा था. इस चुनाव में शिवसेना ने 73, तो BJP ने 65 सीटों पर कब्जा किया था. बालासाहेब ठाकरे ने फॉर्मूला दिया था कि जिस पार्टी के पास ज्यादा सीटें होंगी, मुख्यमंत्री उसका होगा. इसी आधार पर मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बने थे और BJP के गोपीनाथ मुंडे को डिप्टी CM बनाया गया था.
इसके बाद 2004 के चुनाव में शिवसेना को 62 और BJP को 54 सीटों पर जीत मिलीं. 2009 में दोनों पार्टियों की सीटें कम हुईं, लेकिन BJP को पहली बार शिवसेना से ज्यादा सीटें हासिल हुईं. BJP ने इस दौरान 46 सीटें और शिवसेना ने 45 सीटें जीतीं.
भारत के अन्य राज्यों से मुंबई आकर बसने वाले लोग बाल ठाकरे के निशाने पर रहते थे. खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार से आने वाले लोगों के खिलाफ वो तीखी बयानबाजी करते थे.
वहीं मार्च 2010 में महाराष्ट्र के राज्यपाल के. शंकरनारायण ने कहा था कि मुंबई में कोई भी रह सकता है. उनके इस बयान पर बाल ठाकरे ने शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' में लिखा था, "मुंबई धर्मशाला बन गई है, बाहरी लोगों को आने से रोकने का एकमात्र तरीका है कि परमिट सिस्टम लागू कर दिया जाए."
साल 2014 में बीजेपी और शिवसेना के रिश्ते में एक बड़ा मोड़ आया. 1989 के बाद ये पहला मौका था जब दोनों पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ने का फैसला किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह (Amit Shah) के नेतृत्व में बीजेपी विस्तार पर जोर दे रही थी. वहीं, शिवसेना में भी बाल ठाकरे युग का अंत हो चुका था और कमान उनके पुत्र उद्धव ठाकरे के भी हाथ में आ चुकी थी.
इसके बाद 2019 का विधानसभा चुनाव शिवसेना और बीजेपी ने साथ मिलकर लड़ा. बीजेपी को 105 और शिवसेना को 56 सीटें मिलीं. लेकिन मुख्यमंत्री को लेकर दोनों पार्टियों में विवाद हो गया. बीजेपी चाहती थी कि देवेंद्र फडणवीस ही सीएम रहें, लेकिन शिवसेना को ये मंजूर नहीं था. दोनों पार्टियों में तल्खियां बढ़ गई. शिवसेना ने बीजेपी का साथ छोड़ एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिला लिया. उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन गए. ढाई साल से वह इस पद पर हैं. लेकिन एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद उनकी कुर्सी पर तलवार लटक रही है.
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Published: 24 Jun 2022,09:13 PM IST