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जातीय जनगणना के मुद्दे पर नीतीश कुमार और बीजेपी की दूरियां लगातार बढ़ती जा रही हैं. नीतीश कुमार के पुराने सहयोगी बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री और बीजेपी सांसद सुशील मोदी ने भी सुप्रीम कोर्ट में दिए केंद्र सरकार के हलफनामे के आधार पर साफ कह दिया है कि केंद्र सरकार के लिए अब जातीय जनगणना कराना संभव नहीं है. अगर राज्य सरकारें चाहें तो अपने स्तर पर जातिगत जनगणना करा सकती हैं.
सुशील मोदी ने गुरुवार को विपक्ष पर हमला बोलते हुए कहा कि आरजेडी के लोग कहते हैं कि सिर्फ एक कॉलम जोड़ देना है. लेकिन ऐसा नहीं है, सिर्फ एक कॉलम जोड़ देने भर से जातीय जनगणना नहीं हो सकती. सुशील मोदी ने सलाह देते हुए कहा कि राज्य सरकार जातीय जनगणना कराने के लिए स्वतंत्र है. यानी सुशील मोदी ने सीधे तौर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नसीहत दी है. कभी नीतीश कुमार के खास कहे जाने वाले और हमेशा उनके पक्ष में खड़े रहने वाले सुशील मोदी की बातों से बीजेपी का स्टैंड बिल्कुल साफ नजर आ रहा है.
इससे पहले बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल भी बोल चुके हैं कि जातिगत जनगणना कराना प्रैक्टिकल नहीं है. जिसके जवाब में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि अगर कोई कहता है कि 2011 की Socio Economic Caste Census की रिपोर्ट सही नहीं थी तो जातीय जनगणना नहीं हो सकती, ये बात उचित नहीं है. नीतीश कुमार केंद्र सरकार से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने की भी मांग कर चुके हैं.
देश के तमाम राज्यों में राजनीतिक दल जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं. बिहार में तो सभी पार्टियां एक सुर में जातिगत जनगणना की मांग लेकर पीएम मोदी से मिल भी चुकी हैं. खुद बीजेपी के भी कई नेता जातिगत आधार पर जनगणना के पक्ष में बोल चुके हैं. तेजस्वी यादव ने तो इसके आधार पर पिछड़ों का आरक्षण बढ़ाने तक की भी मांग की हुई है. दरअसल राजनीतिक विश्लेषक इसके पीछे देश की राजनीति में पिछड़ों की महत्वपूर्ण भूमिका बड़ी वजह बता रहे हैं.
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक देश के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लगभग 17.24 करोड़ परिवारों में से 44.4 फीसदी परिवार ओबीसी हैं. तमिलनाडु, बिहार, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, केरल, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ के गांवों में तो ओबीसी परिवारों की संख्या 50 फीसदी से भी ज्यादा है. जबकि शहरी इलाकों में भी ओबीसी अच्छी-खासी तादाद में रहते हैं. ऐसे में देश और प्रदेशों के राजनीतिक समीकरण में ओबीसी सबसे ज्यादा अहम हो जाते हैं. जानकार मानते हैं कि राजनीतिक दल जातिगत जनगणना के जरिए देश में पिछड़ों की असली संख्या जानने और उसके आधार पर अपनी राजनीतिक रणनीतियां बनाने को लेकर ज्यादा उत्सुक दिखाई पड़ रहे हैं.
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