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भारतीय विपक्ष और कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है हिंदुत्व के आक्रामक बीजेपी ब्रांड के विरुद्ध भिड़ने की और साथ ही एक संतुलित, मध्यम मार्गी, सर्वसमावेशी रास्ता अपनाने की. वैचारिक रूप से एक संतुलित फॉर्मूला बनाने की. जो कामचलाऊ भी हो सकता है, क्योंकि इस तरह के फॉर्मुलों का उपयोग चुनावों के दौरान ही किया जाता है. बाद में सभी दल एक रंग में रंग जाते हैं. जनता ऐसा ही सोचती है,और उसका सोचना अक्सर गलत नहीं रहता.
कांग्रेस के समक्ष ये चुनौती ज्यादा बड़ी है. पिछले करीब तीन दशकों से बीजेपी एक दृढ लक्ष्य के साथ राजनीतिक अखाड़े में अपने आप को मजबूत बनाती चली जा रही है. सही है कि बाकी विपक्ष और कांग्रेस बीजेपी की नीतियों के खिलाफ स्वयं को व्यक्त करते रहे हैं. उनके हिसाब से भारतीय जनता पार्टी का अस्तित्व आक्रामक हिंदुत्व पर आधारित है. पर हकीकत यही है कि देश के बहुसंख्य लोगों को इस ब्रांड में ज्यादा दोष नजर नहीं आ रहा, और ये भी है कि भारतीय राजनीति की इस फिसलन भरी पिच पर विपक्ष और कांग्रेस के लिए बैटिंग करना फिलहाल मुश्किल साबित हो रहा है.
ऐसा नहीं लगता है कि कांग्रेस पार्टी 1980 के दशक के मध्य से ही अपनी विचारधारा को लेकर भ्रमित रही है? शाह बानो वाले मामले में उसने मुस्लिम समुदाय को खुश करने की कोशिश की और अयोध्या में राम जन्म भूमि पर शिलान्यास की अनुमति देकर हिन्दुओं को खुश करने की कोशिश की. ये फैसले उसे काफी महंगे पड़े, वैचारिक और ज़मीनी दोनों स्तरों पर. एक तरफ कांग्रेस चुनावी जमीन खोती जा रही है, दूसरी तरफ उसके कुछ नेता किसी मध्यम मार्ग की वकालत करने और हिंदुत्व के खिलाफ लड़ाई की कोई विशेष, संतुलित संरचना बुनने की कोशिश में लगे हैं. ऐसी संरचना जिसमें अल्पसंख्यक, मुस्लिम और हिन्दू सभी खुश रहें.
ये दुविधा बड़ी पुरानी और उलझी भी हुई है. 2004 में प्रधान मंत्री के रूप में अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में मनमोहन सिंह ने कहा था.
"मैं सभी प्रकार के कट्टरवाद का विरोध करता हूं---चाहे वह वामपंथ का कट्टरवाद हो या दक्षिणपंथ का कट्टरवाद."
उनकी तटस्थता उस समय तो समझ में आती थी जब पार्टी में कई लोग बीजेपी के हमले का मुकाबला करने के लिए मध्यममार्गी रणनीतियां बनाने में लगे हुए थे. लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने बाद में वाम दलों के साथ-साथ अपनी ही पार्टी के उन लोगों को भी नाराज कर दिया था जो चाहते थे कि वो अपने हिंदुत्व विरोधी ब्रांड को ज्यादा आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाए.
दस साल बाद 2014 में जब कांग्रेस ने बुरी तरह हार के बाद अपनी सत्ता खो दी, तब पार्टी के वरिष्ठ नेता ए.के.एंटनी ने धर्मनिरपेक्षता के प्रति पार्टी की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाते हुए कहा था.
"लोगों ने पार्टी की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा में विश्वास खो दिया है. उन्हें लगता है कि कांग्रेस कुछ समुदायों, खासकर अल्पसंख्यकों के लिए लड़ती है."
एंटनी ने जोर देकर कहा कि वो केवल केरल का जिक्र कर रहे थे, लेकिन अधिकांश कांग्रेसियों ने इसका अर्थ यह निकाला कि वह देश की बात कर रहे थे.
इधर पिछले करीब आठ सालों से जब बीजेपी खूब अधिक फलने-फूलने लगी है, तो कई कांग्रेसियों ने अपनी निष्ठा को बीजेपी के खलीते में भी डाल दिया है. पिछले कुछ सालों में मुसलमानों और दलितों की लिंचिंग, गौरक्षा और 'लव जिहाद' अभियानों के साथ ही असहिष्णुता की बढ़ती घटनाओं के जवाब में हताश-सी, असहाय कांग्रेस को बीजेपी/आर एस एस के खिलाफ दुर्बल हमले करते हुए या बस हल्का विरोध जताते हुए देखा गया है.
उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के दौरान प्रियंका गांधी का ‘जय माता दी’ का नारा लगाना, माथे पर भस्म लगाना---ये सब उनकी पार्टी की भ्रमित, उलझी हुई स्थिति को अधिक, उनके आत्म विश्वास को कम दर्शा रहा था. माथे पर भस्म और नमाजी टोपी के बीच कांग्रेस और बाकी विपक्ष किसे चुने, ये फैसला ही नहीं हो पाया है. धर्मनिरपेक्षता पर कांग्रेस और बाकी विपक्ष अपने रुख को साफ नहीं कर पा रही. ये एक बड़ी राजनीतिक और सामाजिक सच्चाई है.
प्रणब मुखर्जी जब देश के राष्ट्रपति थे तब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय पर एक बयान दिया था, जिसे लेकर कांग्रेसी बड़े उद्वेलित हुए थे. उन्हें नागपुर के आर एस एस मुख्यालय में आमंत्रित किया गया था. अव्वल तो कुछ कांग्रेसियों ने उनसे कहा कि वे निमंत्रण स्वीकार ही न करें. पर प्रणब मुखर्जी गए भी और अपने भाषण में उन्होंने के बी हेडगेवार (K. B. Hedgewar) को “भारत माता का एक महान सपूत” भी बताया.
इस बयान के बाद कांग्रेस पार्टी में भ्रम की स्थिति और अधिक बढ़ गई. पार्टी ने दो वर्ष के लंबे अंतराल के बार इफ्तार पार्टी का आयोजन करके अल्पसंख्यकों को और अधिक उहापोह में डाल दिया कि आखिरकार पार्टी का रुख उनके प्रति है क्या. इस बीच आर एस एस (Rashtriya Swayamsevak Sangh) मुख्यालय पर दिए गए प्रणब मुखर्जी के बयान से उद्वेलित कांग्रेस नेताओं ने अपने आक्रोश को आवाज देने का काम पूर्व केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी पर छोड़ दिया. तिवारी ने प्रणब मुखर्जी को संबोधित करते हुए कहा.
“आप तो 1975 में और फिर 1992 में उस सरकार का हिस्सा थे जिसने आर एस एस पर प्रतिबंध लगाया था."
आप क्या सोचते हैं -आपको स्पष्ट करना चाहिए कि कैसे आर एस एस पहले बुरी थी और अब सदाचारी हो गई है?”
ये भी याद रहे कि राहुल गांधी ने, आरएसएस-बीजेपी गठबंधन के खिलाफ अपनी लड़ाई को लगातार एक "वैचारिक संघर्ष" बताया है. 1925 में आरएसएस के गठन के बाद से पार्टी की आधिकारिक लाइन के अनुरूप, अलग-अलग कांग्रेस सरकारों द्वारा संगठन पर तीन बार प्रतिबंध लगाया गया. 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद, आपातकाल के दौरान और 1992 में बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद. राहुल बार-बार यह स्पष्ट करने से नहीं चूकते कि कांग्रेस और बीजेपी के बीच एक गहरी खाई है जिसे भरा नहीं जा सकता, क्योंकि दोनों की विचाधाराएं बिलकुल विपरीत हैं. राहुल गांधी ने अपनी पदयात्रा के दौरान अलग अलग वर्ग और धर्म के लोगों के साथ मिलकर, पदयात्रा करते हुए अपनी पार्टी की सर्वसमावेशी विचारधारा को ही व्यक्त करने की कोशिश की.
पर गौरतलब है कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिख विरोधी दंगे, 1985 के शाह बानो कांड, 1986 में बाबरी मस्जिद के ताले खोलने, 1989 में अयोध्या में राम मंदिर के लिए शिलान्यास की अनुमति और 1992 में बाबरी मस्जिद को विनाश से बचाने में विफलता---ये सब कुछ कांग्रेस और बाकी विपक्ष की आंखों के सामने ही हुआ. इसके बाद भी पिछड़े वर्गों को समायोजित करने और हिंदुत्ववादी ताकतों का मुकाबला करने के लिए कोई भी सुविचारित रणनीति तैयार करने में पार्टी अक्षम रही, और इसी वजह से चुनावों में वह लगातार पीछे सरकते हुए दिखाई दे रही है. हकीकत ये है कि कांग्रेस देश भर में आरएसएस और उसके कई संगठनों द्वारा बनाई जा रही पैठ को प्रारंभिक दौर में देखने में ही विफल रही है.
खासकर 1998 और 2004 के बीच जब वाजपेयी सरकार सत्ता में थी. उदाहरण के लिए, 2003 में जब वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार थी, उस समय प्रणव मुखर्जी और शिवराज पाटिल ने एक संसदीय समिति के सदस्यों के रूप में संसद के सेंट्रल हॉल में वीर सावरकर का चित्र लगाने के फैसले पर आपत्ति नहीं की. कांग्रेस शर्मिन्दा थी और तत्कालीन लोकसभा उपाध्यक्ष पी.एम. सईद ने फरवरी 2003 में चित्र के अनावरण का बहिष्कार भी किया था.
हालांकि, राज्यसभा की उपसभापति नजमा हेपतुल्ला (Najma Heptulla) ने इस कार्यक्रम में भाग लिया. 2010 में, कांग्रेस के पूर्व महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विवादास्पद फैसले का स्वागत किया और कहा.
“कांग्रेस ने माना है कि विवाद को या तो बातचीत से सुलझाया जाना चाहिए या अदालत के फैसले को स्वीकार किया जाना चाहिए."
कोर्ट ने जो फैसला सुनायी है हमें उस फैसले का स्वागत करना चाहिए. कुछ दिनों बाद कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) ने जोर देकर कहा कि अदालत के फैसले ने मस्जिद के विध्वंस की निंदा नहीं की, और कहा.
"भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद शीर्षक मुकदमे के संबंध में न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान करती है. हालांकि, अब हमें सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार करना चाहिए जब और अपील दायर की जाएगी."
2017 के गुजरात विधान सभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी ने कई हिंदू मंदिरों का दौरा किया, यहां तक कि खुद को "शिव भक्त" के रूप में प्रस्तुत किया, और पार्टी के एक प्रवक्ता को उन्होंने खुद को "जनेउधारी ब्राह्मण" के रूप में दिखाने की अनुमति भी दी. इस संकेत ने दलितों, ओबीसी और मुसलमानों का भ्रम और भी बढ़ा दिया.
आज, कांग्रेस का मानना है कि वह 2024 में सोच समझ कर तैयार किए गए गठबंधन के माध्यम से बीजेपी को हरा सकती है. लेकिन क्या ये भारत के सौहार्द्रपूर्ण सामाजिक ताने-बाने को बनाए रखने के लिए काफी होगा? क्योंकि अगर पार्टी में इच्छाशक्ति, दृढ़ आत्मविश्वास या, बीजेपी से लड़ने के लिए बौद्धिक, वैचारिक ऊर्जा का अभाव रहता है, तो भारत का उदार, सर्वसमावेशी लोकतंत्र खतरे में बना रहेगा.
दुविधाग्रस्त और अस्पष्ट विपक्ष न सिर्फ अनुपयोगी है, बल्कि लोकतंत्र के लिए घातक भी है, तानाशाही के विकास के लिए ज़मीन को लगातार खाद-पानी देने का काम करता है. उम्मीद है कि कम से कम कांग्रेस पार्टी यह तोहमत अपने सर नहीं लेगी, और अपने तौर-तरीकों में सुधार लाएगी. ख़ास कर धर्मनिरपेक्षता के मामले में. उम्मीद है कि बचा-खुचा विपक्ष भी ऐसा ही करेगा. जितनी जल्दी वे ऐसा कर पाए, देश उनका उतना ही आभारी होगा.
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