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कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव, खड़गे, थरूर और पार्टी को नफा, नुकसान

Congress President Election: Mallikarjun Kharge और Shashi Tharoor में से कोई जीते, गैर गांधी अध्यक्ष होगा

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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नए अध्यक्ष के चुनाव (Congress President Election) में 9000 से ज्यादा डेलिगेट्स ने भाग लिया. उन्हें राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और केरल के तिरुवनंतपुरम से तीन बार के सांसद शशि थरूर के बीच से किसी एक को चुना है.

चुनाव का कांग्रेस को फायदा भी है और कुछ नुकसान भी.

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फायदे

एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव (कुल मिलाकर)

ज्यादातर ऐसा लगता है कि चुनाव कुल मिलाकर स्वतंत्र और निष्पक्ष रहा है. निश्चित रूप से यह आलोचना की गई है कि खड़गे सिर्फ 'अनौपचारिक' उम्मीदवार हैं जिन्हें गांधी परिवार के साथ-साथ पार्टी के ज्यादातर दिग्गजों का समर्थन मिला हुआ है. फिर थरूर ने कहा भी है कि यह ‘अनइक्वल प्लेइंग फील्ड’ है और पार्टी की कई इकाइयों ने उनके साथ सहयोग नहीं किया था.

लेकिन अन्य दलों की तुलना में कांग्रेस अभी भी अपेक्षाकृत अधिक लोकतांत्रिक दिख रही है. जब कांग्रेस की चुनाव प्रक्रिया चल रही थी, दो महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों ने अपने अध्यक्ष चुने- बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने एक और कार्यकाल दे दिया. उधर अखिलेश यादव को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष के रूप में एक और कार्यकाल मिला. दोनों पार्टियों में चुनाव जैसी चीज़ हुई ही नहीं.

20 से अधिक वर्षों के बाद एक चुनाव और गांधी परिवार से इतर एक अध्यक्ष

20 से ज्यादा वर्षों बाद कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हो रहा है. आखिरी चुनाव 2000 में सोनिया गांधी और जितेंद्र प्रसाद के बीच एक असमान मुकाबला था.

खड़गे और थरूर में से कोई भी जीते, 1999 के बाद वह पहला ऐसा अध्यक्ष होगा, जो गांधी परिवार से ताल्लुक नहीं रखता. 1999 में सोनिया गांधी ने सीताराम केसरी को हटाने के बाद अध्यक्ष पद संभाला था.

सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों बहुत साफ हैं. वे चाहते हैं कि परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति अध्यक्ष बने. अब वे अपने आलोचकों का मुंह बंद करना चाहते हैं कि गांधी परिवार सत्ता की लालच छोड़ नहीं सकता. इस तरह उनका मकसद पूरा हो जाएगा.

पार्टी की एकता

ऐसा लगता है कि चुनाव ने पार्टी में एकता को मजबूत किया है. खड़गे को तत्कालीन जी-23 सदस्यों में से अधिकांश का समर्थन मिला, जो अभी भी कांग्रेस में हैं. उनमें से कई उनके प्रस्तावक भी बने.

थरूर भी जी-23 का भी हिस्सा थे. वह लगातार कहते आए हैं कि पार्टी की एकता जरूरी है और यह भी कि "जीते कोई भी, कांग्रेस जरूर जीतेगी."

एक तरफ अध्यक्ष चुनाव, दूसरी तरफ भारत जोड़ो यात्रा की ऊर्जा- ये दोनों पार्टी में एकता का शुभ संकेत देती है, खासकर वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद सहित कई नेताओं के पार्टी छोड़ने के बाद.

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दोनों उम्मीदवारों के अपने फायदे हैं

शुरूआती में अशोक गहलोत चहेते थे, और वह शायद एक बेहतर उम्मीदवार होते. उनके पास व्यापक जनसमर्थन, मुख्यमंत्री पद का अनुभव और हिंदी भाषी क्षेत्र से जुड़ाव की थाती थी.

हालांकि, खड़गे और थरूर दोनों के अपने फायदे भी हैं. खड़गे आठ बार विधायक, तीन बार सांसद और राज्य और केंद्रीय स्तर पर मंत्री रह चुके हैं. वह कांग्रेस का एक महत्वपूर्ण दलित चेहरा भी हैं और बहुभाषी होने के लिए जाने जाते हैं. अध्यक्ष के रूप में उनका चुनाव कर्नाटक जैसे महत्वपूर्ण राज्य में कांग्रेस की मदद कर सकता है, जहां 2023 की गर्मियों में चुनाव होने हैं.

दूसरी तरफ थरूर, भले खड़गे जितने वरिष्ठ नहीं हैं लेकिन वह एक पब्लिक फिगर हैं और मीडिया में कांग्रेस का चेहरा भी. तिरुवनंतपुरम में प्रोफेशनल्स और शहरी मिडिल क्लास के बीच खासे लोकप्रिय हैं और तिरुअनंतपुरम में उनका अपना आधार है.

नुकसान

राजस्थान का तमाशा

शुरुआत में कहा गया कि अशोक गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए पसंदीदा शख्सीयत हैं लेकिन इससे राजस्थान सरकार के भीतर खलबली मच गई. इसके चलते प्रमुख मंत्री विधायकों को एक साथ इकट्ठा कर रहे थे, वह भी जब आलाकमान ने प्रतिनिधियों से मिलना तय किया था. उनका विरोध इस बात पर था कि गहलोत की जगह सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है.

इसे विद्रोह के तौर पर देखा गया और कुछ ने इसके लिए गहलोत पर आरोप लगाया.

इस पूरे प्रकरण में कांग्रेस आलाकमान और उसके वरिष्ठतम क्षेत्रीय नेता के बीच समीकरण बिगड़ता नजर आ रहा है. राजस्थान के 'विद्रोह' पर कोई कार्रवाई होगी या नहीं, इसका फैसला कांग्रेस का नया अध्यक्ष कर सकता है.

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एक ऐसी कवायद जिसका महत्व पार्टी को भी समझ नहीं आ रहा

मल्लिकार्जुन खड़गे और शशि थरूर के बीच जो भी जीतेगा, वह गोपाल कृष्ण गोखले, जवाहरलाल नेरु, सरदार वल्लभभाई पटेल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सरोजिनी नायडू, के कामराज जैसे दिग्गजों के पद पर आसीन होगा.

लेकिन क्या पार्टी के नेता खुद इस स्थिति की गंभीरता को समझते हैं? शायद ऩही.

आइए इन मामलों को लेते हैं.

  • कई पार्टी इकाइयों की दलीलों के बावजूद राहुल गांधी ने इस पद से इनकार कर दिया, हालांकि वे स्पष्ट रूप से भारत जोड़ो यात्रा में पार्टी का मुख्य चेहरा बने हुए हैं.

  • राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उस पार्टी के अध्यक्ष बनने की तुलना में एक और साल के लिए राजस्थान का मुख्यमंत्री रहना पसंद किया, जिसमें वे लगभग 50 सालों से सदस्य हैं.

  • कमलनाथ ने अपना नामांकन दाखिल करने से इनकार कर दिया और राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की बजाय मध्य प्रदेश कांग्रेस कमिटी के प्रमुख होने को प्राथमिकता दी.

  • सूत्रों का कहना है कि मुकुल वासनिक से भी पार्टी नेतृत्व ने पूछा था लेकिन वह अनिच्छुक थे. भूपिंदर सिंह हुड्डा से जी-23 के कुछ नेताओं ने पूछा लेकिन उन्होंने भी इनकार कर दिया.

  • मल्लिकार्जुन खड़गे ने कई वरिष्ठ नेताओं के आग्रह और खुद के संतुष्ट होने के बाद ही अपना नामांकन दाखिल करने का फैसला किया.

  • कांग्रेस के कम्यूनिकेशंस इन-चार्ज जयराम रमेश ने अध्यक्ष पद के चुनाव को 'साइड शो' करार दिया.

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चुनाव 2024 के लिए रोडमैप नहीं देता

आदर्श रूप से, चुनाव का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह होना चाहिए था कि पार्टी 2024 में बीजेपी को कैसे हराने की योजना बना रही है. लेकिन दोनों उम्मीदवारों में से किसी ने भी इसका रोडमैप नहीं दिया कि वे इसके बारे में क्या योजना बना रहे हैं. थरूर के पास कम से कम एक घोषणापत्र था, जबकि खड़गे ने कहा था कि 'उदयपुर घोषणा' उनका घोषणापत्र होगा.

मजे की बात यह है कि पार्टी के मुताबिक, भारत जोड़ो यात्रा भी 2024 के चुनावों के मकसद से नहीं की जा रही है.

यह थोड़ा अजीब है कि पार्टी की दो सबसे कवायदों में 2024 को बहुत सावधानी से नहीं देखा जा रहा है.

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चुनाव 2024 के लिए रोडमैप नहीं देता

आदर्श रूप से, चुनाव का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह होना चाहिए था कि पार्टी 2024 में बीजेपी को कैसे हराने की योजना बना रही है. लेकिन दोनों उम्मीदवारों में से किसी ने भी इसका रोडमैप नहीं दिया कि वे इसके बारे में क्या योजना बना रहे हैं. थरूर के पास कम से कम एक घोषणापत्र था, जबकि खड़गे ने कहा था कि 'उदयपुर घोषणा' उनका घोषणापत्र होगा.

मजे की बात यह है कि पार्टी के मुताबिक, भारत जोड़ो यात्रा भी 2024 के चुनावों के मकसद से नहीं की जा रही है.

यह थोड़ा अजीब है कि पार्टी की दो सबसे कवायदों में 2024 को बहुत सावधानी से नहीं देखा जा रहा है.

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