advertisement
23 दिन जेल में रखे जाने के बाद आखिरकार फेक न्यूज की पड़ताल करने वाली वेबसाइट Alt News के को-फाउंडर और फैक्ट चेकर मोहम्मद जुबैर (Muhammad Zubair) को सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में दर्ज सभी 6 FIR मामलों में अंतरिम जमानत दे दी है. जुबैर पर उनके ट्वीट्स की वजह से दंगा भड़काने से लेकर धार्मिक भावनाएं आहत करने का आरोप लगाया गया था. लेकिन अब जुबैर आजाद हैं, और सवाल ये है कि जुबैर को एक दिन भी जेल में क्यों रखा गया?
एक सवाल और है कि क्या पत्रकार, कलाकार, समाजिक कार्यकर्ता जो भी सरकारी लाइन से हटा, जेल बना उसका पता? और ये सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि मोहम्मद जुबैर अकेले नहीं हैं. कफील खान (Dr. Kafeel Khan), विनोद दुआ, स्टूडेंट एक्टिविस्ट नताशा नरवाल, आसिफ तन्हा इन सबके केस में पुलिस और प्रशासन कटघरे में खड़ा नजर आता है? सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने जुबैर को जमानत देते हुए जो बातें कही हैं उसके बाद पूछना तो बनता है जनाब ऐसे कैसे?
जुबैर तिहाड़ जेल से बाहर आ चुके हैं. जुबैर को कुछ नफरती कथित धर्म गुरुओं को 'नफरती' कहने और 'विवादित तस्वीर' ट्वीट करने के लिए गिरफ्तार किया गया था. लेकिन जस्टिस DY चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकान्त और जस्टिस एएस बोपन्ना की बेंच ने कहा,
जुबैर को बेल देते वक्त अदालत ने क्या-क्या कहा वो जरूर बताएंगे लेकिन उससे पहले बैकग्राउंडर बताना जरूरी है.
दिल्ली पुलिस आगे बढ़ी तो उत्तर प्रदेश पुलिस पीछे कहां रहने वाली थी. जुबैर से जुड़े कुछ पुराने मामले में पुलिस सक्रिय हो गई.
बीजेपी की निलंबित प्रवक्ता नुपुर शर्मा की पैगंबर मुहम्मद के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी को उजागर करने वाले जुबैर के खिलाफ उत्तर प्रदेश में छह और दिल्ली में दो मामले दर्ज हैं.
चलिए अब आपको बताते हैं कि जुबैर को अंतरिम जमानत देते हुए अदालत ने क्या कहा-
अब जुबैर को हिरासत में रखने का कोई औचित्य नहीं है.
हमें जुबैर को आजादी से और वंचित रखने का कारण नहीं मिलता है.
हम जुबैर के ट्वीट्स की जांच के लिए यूपी सरकार की तरफ से बनाई गई एसआईटी को भी भंग करते हैं.
अगर भविष्य में जुबैर पर इसी मामले में कोई और FIR दर्ज होती है तो जुबैर अंतरिम जमानत पर रिहा रहेंगे.
ये सब तो अदालत ने कहा, लेकिन एक मौका ऐसा आया जब यूपी सरकार की तरफ से पेश एडिशनल एटवोकेट जनरल ने कहा कि मोहम्मद जुबैर को ट्वीट करने से रोका जाए.
हालांकि फिर जज ने जो कहा वो पूरे देश को सुनना चाहिए, और खासकर पुलिस और सरकारों को सुनना चाहिए. जस्टिस चंद्रचूड़ ने यूपी की एडिशनल एटवोकेट जनरल को कहा-
आप सोचिए सरकार चाहती है कि आप बोलें नहीं.. सोचिए कि जिस बजरंग मुनि ने महिलाओं के रेप करने की भद्दी बात कही हो उसे देश की अदालत में खड़े होकर एडिशनल सॉलिसिटर जनरल सम्मानित महंत कहते हैं. सोचिए कि एडिशनल सॉलिसिटर जनरल जुबैर को बेल न मिले इसके लिए अदालत में खड़े होकर तर्क देते हैं कि ‘नफरत फैलाने वाले’ को नफरती कहने से नफरती कथित धर्म गुरुओं के अनुयायी नाराज हो रहे हैं.
पुलिस बार-बार कानून की धज्जियां उड़ा रही है, जानबूझकर सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वालों को बेवजह के मामलों में जेल में रखकर प्रताड़ित कर रही है और फिर बार-बार अदालत से फटकार सुन रही है. पत्रकार विनोद दुआ ने कोविड लॉकडाउन की आलोचना की थी. लेकिन सरकार से आलोचना सही नहीं गई और विनोद दुआ के खिलाफ हिमाचल प्रदेश पुलिस ने सेडिशन का केस दर्ज कर लिया. राजद्रोह? फिर आखिर में सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि "सरकार की आलोचना चाहे वो सख्त भाषा में ही क्यों ना की गई हो, उसके आधार पर सेडिशन केस नहीं लगाया जा सकता."
ऐसा ही मामला गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज वाले डॉक्टर कफील के साथ भी हुआ था. डॉक्टर कफील खान पर नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में 13 दिसंबर 2019 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कथित रूप से भड़काऊ भाषण देने का आरोप लगाया गया था. उनपर तो NSA लगा था. करीब 7 महीने जेल में रखा गया. उस वक्त भी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि कफील खान का बयान नफरत या हिंसा को बढ़ावा देने वाला नहीं बल्कि राष्ट्रीय एकता और अखंडता का संदेश देने वाला था.
लेकिन फिर भी पुलिस नहीं सुधरी. सवाल ये भी है कि कब तक जुबैर की तरह आवाज उठाने वाले पत्रकारों, कलाकारों को हफ्तों-महीनों जेल में रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना होगा? क्यों निचली अदालतें मनगढ़ंत केसों पर खुद नहीं रास्ता निकाल रही हैं? क्यों नहीं अदालत ऐसे पक्षपाती पुलिस वालों पर एक्शन ले रही हैं? क्यों फ्रीडम ऑफ स्पीच को 'झूठी भावनाओं के आहत' के नाम पर कैद किया जा रहा है? अगर पुलिस, सरकार, अदालत या आम नागरिक अपनी जिम्मेदारी भूल जाएंगे तो हम पूछेंगे जरूर जनाब ऐसे कैसे?
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)