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Mohammed Zubair को बेल देते हुए दिल्ली अदालत ने जो कहा वो पुलिस के लिए सबक है

Mohammed Zubair केस में कोर्ट ने अभिव्यक्ति की आजादी के महत्व पर जोर दिया और दिल्ली पुलिस के दावों को नहीं माना

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मोहम्मद जुबैर (Mohammed Zubair) अभी भी रिहा नहीं हुए हैं. भले ही उनके खिलाफ लगाए गए मामले में इतने बड़े छेद हैं कि उनके भीतर से बड़ा विमानवाहक पोत निकल जाए. उनको लगातार कैद में रखने के शर्मनाक मामले में बस अब इतनी सी अच्छी बात हुई है कि दिल्ली पुलिस ने साल 2018 के जिस ट्वीट को लेकर उन्हें गिरफ्तार किया था उसमें अब दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने उन्हें जमानत दे दी है. और अब उनको जेल में रखे जाने के लिए दिल्ली के कोर्ट पर ठीकरा नहीं फोड़ा जा सकता है.

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अभिव्यक्ति की आजादी के लिए अहम चेतावनी

जुबैर की वकील वृंदा ग्रोवर और सरकारी वकील की दलीलों को सुनने के बाद, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश देवेंद्र कुमार जांगला ने एक संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण संदर्भ के साथ इस मुद्दे पर अपना विश्लेषण रखा.

दिल्ली पुलिस ने इस मामले को ट्वीट को धार्मिक और राजनीतिक अशांति पैदा करने की पूर्व सुनियोजित व्यापक साजिश बताया. इसमें एफसीआरए उल्लंघनों का भी अजीब सा जिक्र है. इसके अलावा सरकारी वकील ने कुछ 'गुमनामों' तत्वों के बारे में भी जिरह की और दलीलें रखी कि जुबैर को जब तक गिरफ्तार नहीं किया जाता है तब तक उन ‘गुमनाम’ लोगों के बारे में कुछ पता नहीं चल पाएगा. लेकिन केस को उलझाने की तमाम कोशिशों के बाद भी आखिर नतीजा क्या है. एक ट्वीट.. जिसमें जो कुछ लिखा गया था वो वास्तव में कहीं से भी आपराधिक नहीं था. बस इसे एक व्यक्ति को हिरासत में रखने का बहाना बनाया गया. एक ऐसे शख्स को जेल में रखने की कोशिश हुई जो नफरत और गलत सूचना के खिलाफ ताकतवर आवाज है. इसके जरिए देश में हजारों लोगों को डराने के कोशिश की गई. सेशंस कोर्ट ने ये टिप्पणियां की और अपने विश्लषेण में अभिव्यक्ति की आजादी की अहमियत के बारे में भी बताया-

लोकतंत्र में सरकार लोगों की खुली चर्चा से चलती है. अगर लोग अपने विचार साझा करने के लिए बाहर नहीं आते हैं तो लोकतंत्र न तो काम कर सकता है और न ही समृद्ध हो सकता है. भारत के संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (ए) अपने नागरिक को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है. निस्संदेह अभिव्यक्ति की आजादी एक लोकतांत्रिक समाज की सही नींव है. विचारों का एक स्वतंत्र आदान-प्रदान, बिना किसी रोक-टोक के सूचना का प्रसार, ज्ञान का प्रसार, अलग-अलग नजरिए को बताना, उन पर बहस करना और अपने विचारों को बनाना और उन्हें बताना, एक स्वतंत्र समाज के लिए बुनियादी बाते हैं. यह स्वतंत्रता ही लोगों के लिए अपना सही विचार तैयार करने में उन्हें सक्षम बनाती है ताकि वो एक स्वतंत्र समाज में अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों का सोच समझकर इस्तेमाल करना जानें.
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कोर्ट कैसे अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खड़ा हो सकता है?

ये दिल्ली पुलिस ही थी जिसने फैक्ट जांच करने वाले Mohammed Zubair के खिलाफ 4 साल पहले की एक ट्वीट में FIR दर्ज करके उन्हें गिरफ्तार किया था. दिल्ली में उनके खिलाफ दर्ज एक दूसरे मामले में उन्होंने पहले ही कोर्ट से किसी भी दंडात्मक कार्रवाई से बचने के लिए सुरक्षा ले ली थी. उत्तर प्रदेश में भी उनके खिलाफ कुछ मामले थे, लेकिन यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि उन्हें उनमें से किसी में भी गिरफ्तार नहीं किया गया था, क्योंकि ये मामले इतने बेबुनियाद थे कि पुलिस जानती थी कि कोई भी कोर्ट उन्हें हिरासत में भेजने की अनुमति नहीं देगा.

कम से कम आप तो यही सोचेंगे कि अदालतें एक निराधार मामले में क्या फैसला लेगी. लेकिन दुर्भाग्य से दिल्ली की अदालत ने न केवल जुबैर को पुलिस हिरासत में भेजा, बल्कि जमानत देने से भी इनकार कर दिया. इसके बाद उन्हें 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया. इस मोड़ पर फिर यूपी की अदालतों ने भी उन्हें हिरासत में भेज दिया. ऐसा लग रहा था कि उनका टाइम चला गया लेकिन फिर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें यूपी के उन मामलों में से एक में बेल दे दिया पर दिल्ली, यूपी की अदालतों से राहत नहीं मिली. इसका साफ मतलब था कि वो जेल से छूट नहीं सकते, अभी भी फिलहाल यही सूरत है जबकि दिल्ली की अदालत ने उन्हें जमानत भी दे दी है, लेकिन यूपी के मामलों को लेकर वो जेल में ही रहेंगे.

अगर हम सेशंस कोर्ट के आदेश को देखें तो समझ सकते हैं कि आखिर कैसे कानून को किसी व्यक्ति की आजादी की रक्षा करना चाहिए, कोर्ट कैसे अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खड़ा हो सकता है, कैसे कोर्ट उस पुलिस को फटकार लगा सकता है जो किसी भी तरह से व्यक्ति को सलाखों के भीतर रखना चाहती है.
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राजनीतिक दल किसी आलोचना से ऊपर नहीं

शायद पुलिस को ये समझ में आ गया था कि इस मामले में धारा 295ए काम नहीं करेगा. इसलिए उन्होंने जुबैर पर आईपीसी की धारा 153ए जिसमें विभिन्न समुदायों के बीच दुश्मनी/घृणा भड़काने में केस दर्ज किया.

चूंकि उनके ट्वीट में किसी भी धर्म का जिक्र नहीं था और इसे किसी धर्म का अपमान नहीं माना जा सकता था. इसलिए पुलिस को यह दिखाने के लिए दूसरा मामला लाना पड़ा कि जुबैर ने दो समुदायों और धर्मों में दुश्मनी भड़काई थी. लेकिन जज ने माना नहीं और कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में स्पष्ट रूप से कहा था कि किसी दूसरे समुदाय का संदर्भ होना चाहिए. फिर दिल्ली पुलिस ने देश की सत्ताधारी पार्टी के कैडर का कार्ड खेला. इसमें उन्होंने कहा कि दुश्मनी भड़काने की कोशिश जुबैर के लिखे कैप्शन में है. इसमें साल 2014 का हवाला देते हुए लिखा गया था कि पहले जो हनीमून होटल था वो 2014 के बाद हनुमान होटल हो गया. अब ये साफ था कि ये उस साल की बात है जब नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने क्लीन स्वीप किया था. लेकिन जैसा कि इस मामले में जज ने नोटिस किया और कहा कि सरकारी वकील ने भी ‘2014 से पहले’ और ‘2014 के बाद’ वाली बात की तरफ इशारा किया. साफ है जो सत्ताधारी पार्टी है ये उसके संदर्भ में है.

लेकिन फिर सवाल है कि सरकार की आलोचना क्यों सेक्शन 153 A के तहत गुनाह होना चाहिए ?

जब बीजेपी खुद को देश में हिंदू भावनाओं को मजबूत करने और इसका रक्षक बताती है तो फिर क्यों किसी नागरिक को किसी चुटकुले के लिए गिरफ्तार किया जाना चाहिए?

सेशंस कोर्ट के जज ने एक बार फिर पुलिस के उठाए गए इस एंगल को खारिज करने में अपनी ठोस समझ का परिचय दिया. जज ने माना – भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की आलोचनाएं की जा सकती हैं.. " नीतियों की आलोचना के लिए राजनीतिक दल जनता से मुंह नहीं चुराती हैं, किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए असंतोष की आवाज को जगह मिलना जरूरी है. इसलिए, केवल किसी भी राजनीतिक दल की आलोचना के लिए धारा 153 ए और 295 ए आईपीसी को लागू करना उचित नहीं है " .

सेशंस कोर्ट के जज की ये सलाह देश भर की पुलिस को पढ़ना चाहिए क्योंकि वो किसी राजनीतिक दल की आलोचना के लिए मामले दर्ज करते हैं और नेताओं के दबाव में बेबुनियाद मामलों में भी गंभीर धाराएं लगाते हैं. और यह सिर्फ बीजेपी की ही परेशानी नहीं है .

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सेक्शन 295 A में कार्रवाई के लिए दुर्भावनापूर्ण इरादा जरूरी

जुबैर को जेल में डालने वाली FIR में शिकायतकर्ता ने कहा था कि ट्वीट हिंदू भगवान हनुमान के अनुयायियों का अपमान था.

इस समस्या को सुलझाने के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) का जो इस्तेमाल दिल्ली पुलिस ने किया वो सवालों से घिरा हुआ है. FIR में IPC की धारा 295 के तहत फैक्टचेकर को बुक किया जो धारा 295 ए के बजाय पूजा स्थल की बेअदबी और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने से जुड़ा हुआ है.

बाद में उन्होंने देर से कहा कि वे धारा 295 ए के उल्लंघन के लिए उनकी जांच कर रहे थे. लेकिन यह साबित करना हमेशा मुश्किल था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने 1957 में रामजी लाल मोदी मामले में साफ तौर पर कहा था कि इस धारा का मतलब है कि-

" जो लोग जानबुझकर और दुर्भावना के इरादे से किसी वर्ग, धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करें तो फिर सजा देनी चाहिए."

News18 के पत्रकार अमीश देवगन के खिलाफ कई FIR को जोड़कर अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में दोहराया था कि धारा 295A का इस्तेमाल किसी भी "दुर्भावनापूर्ण इरादे" से किए गए भाषण पर सख्ती करने के लिए होता है, ना कि "आपत्तिजनक भाषण" पर कंट्रोल करने के लिए. इस तरह जानबूझकर या दुर्भावनापूर्ण इरादे के बिना किसी धार्मिक अपमान के मामले किसी को सजा नहीं होनी चाहिए चाहे वो अनजाने में या फिर लापरवाही से.

यह बहुत महत्वपूर्ण है खासकर भारत के लिए जहां कोई भी आजकल किसी भी चुटकुले से धार्मिक भावनाएं आहत होने का दावा करता है.

जुबैर के मामले में जिस ट्वीट पर उन्हें गिरफ्तार किया गया वो दरअसल 1983 में रिलीज और सीबीएफसी से प्रमाणित एक पुरानी फिल्म ‘किसी से ना कहना’ का एक वीडियो क्लिप से लेकर दिखाया गया था. इस दृश्य को लेकर आज तक कहीं कोई शिकायत नहीं मिली है . इसमें एक होटल जिसे पहले 'हनीमून होटल' कहा जाता था, बाद में उसका नाम बदलकर 'हनुमान होटल' कर दिया गया, ये दिखाया गया है.

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि क्विंट ने ये बताया था कि पुलिस उस शख्स की पहचान को भी साबित नहीं कर पाई जिसने ट्वीट के बारे में टैग करके दिल्ली पुलिस से शिकायत की थी. सेशंस कोर्ट ने इस बात का संज्ञान लिया और साथ ही ये भी ऑब्जर्व किया कि पुलिस इस बात का भी कोई बयान किसी से ले नहीं पाई थी जो उस 2018 की ट्वीट से आहत हुआ हो , इसके अलावा जज ने इस बात को भी ध्यान में रखा कि ट्वीट साल 2018 से पब्लिक डोमेन में है. इसके बावजूद किसी ने ट्वीट के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई .

सेशंस कोर्ट के जज ने धारा 295ए की एक साफ और ठोस समझ दिखाई है. क्योंकि ये धारा काफी विवादास्पद है क्योंकि अगर इसका सावधानी से इस्तेमाल नहीं किया जाए तो यह एक ईशनिंदा विरोधी कानून बन जाता है. लेकिन जज ने दिखाया है कि निचली अदालतें भी कैसे अपने दिमाग का इस्तेमाल कर सकती हैं और बिना किसी पैनिक में जाए किसी पुलिस के दावे को स्वीकार करने से इनकार कर सकती है.

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जबकि हम अक्सर रिमांड देने और जमानत से इनकार करने के लिए निचली अदालतों की आलोचना करते हैं (जो कि इस मामले में मजिस्ट्रेट ने भी किया था), यह आदेश वास्तव में दिखाता है कि कोर्ट अपने दिमाग का इस्तेमाल करके क्या कुछ कर सकता है. डीयू के प्रोफेसर रतन लाल को उनके खिलाफ धारा 295ए के तहत दर्ज मामले में भी जमानत मिली थी. उस मामले में अदालत ने कानून और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी स्पष्टता दी थी.

पिछले साल दिशा रवि के मामले में भी, दिल्ली पुलिस के 'टूलकिट' के दावों पर सवाल रहने के बाद भी मजिस्ट्रेट ने दिशा रवि को पुलिस रिमांड में भेजा था. लेकिन सत्र अदालत का फैसला इस मामले में साफ था. सत्र अदालत ने ना सिर्फ दिशा रवि को जमानत दिया बल्कि पुलिस के बड़े बड़े दावों पर भी यकीन नहीं किया.

हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि ज्यादा से ज्यादा सत्र अदालतें और शायद मजिस्ट्रेट भी कानून की एक समान समझ और उचित संकल्प दिखाएंगे. जब हमारी पुलिस और नेता स्पष्ट रूप से नागरिकों की अधिकारों की रक्षा और आजादी का इरादा नहीं रखते तो कोर्ट भारतीय नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सामने से डटकर खड़े रहेंगे.

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अदालत ने पुलिस को लोकतंत्र का मतलब समझाया

इनमें से कोई भी नई और क्रांतिकारी बातें नहीं हैं. लेकिन यह एक उपयोगी याद रखने लायक बात है जब हर कोई इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि कैसे पुलिस कभी भी उनके शब्दों का गलत अर्थ निकाल सकती है या इंटरनेट पर वैसा कुछ नहीं होना चाहिए. कभी भी ऐसा किसी ने नहीं सोचा था कि भारत में चीजें ऐसी हो जाएंगी.

हमें किसी भी ऑनलाइन ट्रोल की चिंता किए बिना राजनीति और यहां तक कि धर्म (हां, धर्म भी) के बारे में चर्चा करने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए. इस बात की बिल्कुल ही परवाह नहीं की जानी चाहिए थी कि कोई वैसी चीजों को पुलिस को टैग करके हमें गिरफ्तार कराने की कोशिश कर सकता है.

जब तक कोई अभद्र भाषा, या पीड़ित समुदाय को चोट नहीं पहुंचाते या ऐसा कुछ हम नहीं करते हैं तब तक हमें नेताओं, सरकार और यहां तक कि धर्मों के बारे में भी चुटकुले सुनाने और बनाने से रोका नहीं जाना चाहिए . क्योंकि स्वतंत्र लोगों से यही अपेक्षा होती है. एक स्वतंत्र और स्वस्थ समाज सब कुछ खुलकर करता है.

निश्चित तौर पर पुलिस को कथित अपराधों के बारे में मिली शिकायतों की जांच करनी होगी.. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें किसी भी शिकायत को आंख बंद करके सही मान लेना चाहिए. और हां उन्हें किसी एक ट्वीट के बारे में निराधार शिकायत लेने की जरूरत नहीं है. इसे एक बड़ी साजिश रचने की कोशिश का मामला नहीं बनाना चाहिए.

पुलिस को यह समझना चाहिए कि उन्हें नागरिकों के अधिकारों की भी रक्षा करनी चाहिए, न कि केवल उन लोगों के पीछे हाथ धोकर पड़ जाना चाहिए जिन्हें सरकारें पसंद नहीं करती हैं. और अगर वे ऐसा नहीं करेंगे, तो अदालतों को ऐसा करना होगा.

लेकिन अदालतों को भी ऐसा करने के लिए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की अहमियत समझनी होगी - कुछ ऐसी समझ जो जुबैर के मामले में मजिस्ट्रेट ने नहीं दिखाई लेकिन शुक्र है कि सत्र न्यायाधीश ने उसकी अहमियत समझी और काम किया.
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FCRA के झूठे मामले में फंसाने की कोशिश

आखिर दिल्ली पुलिस ने उन पर FCRA का आरोप भी जबरदस्ती लगाने की कोशिश की ..क्योंकि उन्होंने ट्वीट को लेकर जिस तरह की बेबुनियाद बातें की उसको देखते हुए ये समझना बहुत मुश्किल नहीं है. उन्होंने यह कहने की कोशिश की कि जुबैर के ट्वीट्स की जांच के दौरान, उन्होंने पाया कि ऑल्ट न्यूज़ को विदेशों से धन प्राप्त हो रहा था, जिससे विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम का उल्लंघन हुआ क्योंकि उसके पास विदेशी चंदा प्राप्त करने के लिए आवश्यक अनुमति नहीं थी. पुलिस का यह आरोप हताशा से भरा हुआ था. वो यह दिखाने की कोशिश कर रही थे कि कि वे जुबैर के खिलाफ कार्रवाई सिर्फ एक ट्वीट की वजह से नहीं कर रहे थे. (यूपी पुलिस ने भी उनकी दूसरी ट्वीट्स पर इसी तरह की कोशिश की, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने गैरजरूरी बता दिया) .

हालांकि, भले ही यह जांच के लिए एक वास्तविक मुद्दा हो सकता था, यहां भी, पुलिस ने कई गफलत कर डाली.

जैसा कि सुनवाई के दौरान बताया गया था, पुलिस आईपी पते और दानदाताओं के फोन नंबरों को खंगाल कर ये तर्क देने की कोशिश कर रही थी कि तथ्य-जांच करने वाला आउटलेट विदेशों से पैसे ले रहा था.. लेकिन भारतीयों या भारतीय बैंक खाता रखने वालों को ऑल्ट न्यूज़ जैसे संगठन के लिए पैसे देने पर कोई रोक नही हैं, भले ही वे देश में मौजूद न हों.

जब तक पेमेंट विदेशी बैंक खातों से नहीं होता, तब तक कानून का उल्लंघन नहीं होता और दिल्ली पुलिस इसे साबित नहीं कर पाई. इसके बजाय, जुबैर ने कोर्ट को ये रिकॉर्ड दिखाया कि किस तरह से उन्होंने विदेशों से मिलने वाले पैसे को रोकने के लिए कदम उठाए. पेमेंट गेटवे रेजरपे ने भी स्वीकार किया कि विदेशी पेमेंट उन्होंने हासिल नहीं किया.

नतीजतन, भले ही विदेशों से कुछ पैसे आने की बात रही हो लेकिन ये जरूरी नहीं कि इसके बारे में जुबैर को पता हो. इसलिए उन्हें एफसीआरए की धारा 39 के अनुसार कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता. FCRA के मामले में केस चलाने को लेकर भी दिल्ली पुलिस और सरकारी वकील के दावों के दरकिनार करते हुए कोर्ट ने अपनी समझदारी दिखाई है. कोर्ट ने इस बात की परवाह नहीं की कि जैसा कि सरकारी वकील दावा कर रहे थे कि अगर जुबैर बाहर आ गया तो गुमनाम लोग का राज कभी सामने नहीं आ पाएगा.

जज इस बात को लेकर भी साफ थे कि चूंकि अब डिवाइस को भी फैक्टचेकर के पास से ले लिया गया है इसलिए अब उन्हें हिरासत में रखने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि सभी सबूत जुटा लिए गए हैं.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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