जिस शख्सियत के कई खास पहलुओं से आप प्रभावित रहे हों, वो व्यक्ति एक दिन आपके बीच से हमेशा के लिए चला जाए, तो आप का अंदर से आहत हो जाना स्वाभाविक है. विनोद दुआ (Vinod Dua) नहीं रहे, यह जानकर मुझ पर भी कुछ ऐसा ही आघात हुआ, क्योंकि उन्होंने मुझे अपने साथ काम करने का मौका देकर सही मायने में टीवी पत्रकारिता की समझ दी थी.
दो दशक पहले दूरदर्शन के बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम ‘परख’ के जनक थे विनोद दुआ और तब बिहार से न्यूज-स्टोरी जुटाने का जिम्मा उन्होंने मुझ पर सौंपा था.
उसी दौरान उनके बहुआयामी व्यक्तित्व से परिचय हुआ. संगीत से लेकर व्यंजन तक में सिर्फ रुचि ही नहीं, उनकी बारीकियों की भी जानकारी रखना और साथ ही जटिल या गंभीर मसलों पर खबरों की प्रस्तुति को भी बड़ी सहजता से अंजाम देना उनकी विशेषता थी.
‘परख’ में विनोद दुआ का अनोखा अंदाज
‘परख’ को देश की पहली टेलीविजन समाचार पत्रिका माना गया था, जिसके दर्शक करोड़ों में थे. इसमें राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों को विनोद दुआ ऐसे अनोखे अंदाज में पिरोते थे, कि देखने वाला मोहित हो जाए.
मुझे याद है कि इस कार्यक्रम के लिए बिहार की न्यूज स्टोरी तय करते समय उनसे मेरी बहुत संक्षिप्त बातें होती थीं. लेकिन, मेरी भेजी हुई रिपोर्ट को पेश करते समय वह अपनी तरफ से जो आरंभिक टिप्पणी जोड़ते थे, उसमें स्टोरी का पूरा मर्म/निचोड़ झलक उठता था.
टेलीविजन पर लाइव प्रस्तुतियों में शब्दों के लिए नहीं अटकना, भाषा को सहज प्रवाह देने के लिए बोलचाल वाली शैली अपनाना, बिल्कुल ठहर-ठहर कर समझने-समझाने के अंदाज में बातें करना, ये सारी खूबियां उनमें थीं.
खरी-खरी बातें मुंह पर कह देने और कभी-कभी कटु टिप्पणियां कर बैठने संबंधी उनकी फितरत ने उन्हें मुश्किलों या आलोचनाओं में भी डाला लेकिन, उनकी बेबाकी ज्यादा प्रशंसित हुई. उनकी पत्रकारिता में सियासत के पाखंड पर चोट से लेकर वंचितों और पीड़ितों के गुनहगारों पर खुलकर रोष तक की तल्खियां साफ दिखती थीं.
पारखी नजर, साहित्यिक दृष्टि और शौकीन मिजाजी
उनके साथ काम करते हुए मैंने कई बार महसूस किया कि साहित्य की विभिन्न विधाओं में जो कुछ उल्लेखनीय उभरता है, उस पर भी उनकी पारखी नजर होती है. यह गुण बहुत कम पत्रकारों में पाया जाता है.
एक बार बिहार के मुजफ्फरपुर में रह रहे प्रसिद्ध कवि जानकीवल्लभ शास्त्री और उनके पड़ोस में बसे रेडलाइट एरिया पर मैंने एक विशेष टीवी रिपोर्ट तैयार की थी. इस रिपोर्ट में एक बड़े कवि का आवास और गणिकाओं की बस्ती का बिल्कुल पास-पास होने जैसी स्थिति पर रोचक विश्लेषण था. विनोद दुआ ने इस रिपोर्ट की सराहना करते हुए कविताओं और मानवीय संबंधों/सरोकारों पर जितनी बातें मुझे बताईं, वो उनकी साहित्यिक दृष्टि की गहराई बयां कर रही थीं.
उनकी जीवन-शैली में शौकीन-मिजाजी देख कर सिर्फ उन्हें उसी सीमित दायरे में नहीं समझा जा सकता. यह भी देखना होगा कि उनकी प्रतिभा कहां-कहां लोकहित के सवालों पर एक निष्पक्ष और मजबूत आवाज बन कर मुखर होती थी.
स्वाभिमान त्याग कर व्यक्तिगत लाभ के लिए विनोद दुआ कभी समझौतावादी बन गए हों, यह मुझे नहीं मालूम. लेकिन, इतना तो सब को मालूम है कि बतौर पत्रकार उन्होंने ताकतवर सियासी हस्तियों को भी सवालों के कठघरे में खड़ा कर देने जैसा साहस अपने जीवन के अंतिम काल में भी नहीं छोड़ा.
सबसे बड़ी बात कि अपनी लोकप्रियता और पद-पैसा के गुमान या घमंड में चूर रहते हुए किसी सफेदपोश जैसा वह कभी नहीं दिखे. जब भी मिले, यार-दोस्त के रूप में सड़कों पर, महफिलों में या घुमक्कड़ों की तरह भीड़ में एक अलबेला और मस्तमौला साथी की तरह.
(मणिकांत ठाकुर वरिष्ठ पत्रकार हैं और बीबीसी के साथ काम कर चुके हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं.)
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