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The climate change dictionary में आज हम बात कर रहे हैं 'क्लाइमेट फाइनेंस' की. फाइनेंस मतलब पैसा
तो क्लाइमेट फाइनेंस का मतलब है दुनिया भर में चल रही जलवायु समस्या या ‘क्लाइमेट क्राइसिस’ से निपटने के लिए जरूरी धनराशि यानी की पैसा.
क्लाइमेट क्राइसिस से निपटने के लिए उठाए गए कदमों को ‘क्लाइमेट एक्शन’ कहा जाता है. इसमें दो बड़ी चीजें शामिल होती हैं - एडेप्टेशन यानी अनुकूलन और मिटिगेशन यानी शमन.
अब आप सोचेंगे… पर यहां कौन किसे फाइनेंस कर रहा है? क्लाइमेट फाइनेंस क्या है?
इसकी जरूरत क्या है? वगैरह-वगैरह…
इससे कहीं ज्यादा मुद्दे की बात ये है कि ये पैसा कहां से आता है? और इसे कौन देता है?
यहां है इस मसले की असल राजनीति
अब इस राजनीति की कहानी को बिल्कुल जीरो से शुरू करते हैं...एक बार की बात है…सालों पहले…. दरसल इतना पहले भी नहीं… ये बातचीत आधिकारिक तौर पर जून 1992 में शुरू हुई, रियो डी जेनेरियो में चल रही ‘Earth Summit’ यानी पृथ्वी शिखर सम्मेलन में. यहां UNFCCC या संयुक्त राष्ट्र का फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज का मसौदा तैयार किया गया. यहां ये शब्द पहली बार सामने आया था.
पेरिस समझौता क्या था, ये हमने आपको अपने पिछले वीडियो में बताया था . वैसे मोटे तौर पर पेरिस समझौते में 196 देशों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया जहां विकसित देशों ने विकासशील देशों से तीन बड़े वादे किए.
सबसे पहले, तकनीक को विकसित करने में सहायता दूसरा, क्षमता बढ़ाने में सहायता और तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण-- आर्थिक सहायता
एक बात सबने मानी की यूके और अमेरिका जैसे विकसित देश भारत और दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील देशों को क्लाइमट चेंज से निपटने के लिए पैसे देंगे क्योंकि अगर विकासशील देश क्लामेंट चेंज रोकने के लि ए कदम नहीं उठाएंगे तो इसका प्रभाव पूरी पृथ्वी को झेलना पड़ेगा.
अब आप सोच रहे होंगे कि हम अपने क्लाइमेट एक्शन के पैसे खुद क्यों नहीं भर सकते?
--क्योंकि हमारे पास पैसे हैं ही नहीं!
--और दूसरी बात ये की पूरी दुनिया ने मिल-जुलकर एक समझ बना ली है कि क्लाइमेट चेंज की ज्यादा जिम्मेदारी विकसित देशों की है.
विकसित राष्ट्रों को ऐतिहासिक प्रदूषक कहा जाता है क्योंकि उन्होंने औद्योगिक क्रांति के दौरान और उसके बाद भी काफी वक्त तक पृथ्वी को प्रदूषित करने में जरूरत से कहीं ज्यादा योगदान दिया… तो जब ज्यादा गलती उनकी है, तो ज्यादा जिम्मेदारी भी उन्हें ही उठानी पड़ेगी. तो एक बार ये तय हो गया था कि विकसित देश पैसा देंगे, इसके बाद का सफर आसान होना चाहिए था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
पहले तो ये समझ लें की जिस पैसे की बात कर रहे हैं वो बहुत ज्यादा है. मेरा मतलब है कि हम लाखों…अरबों…खरबों डॉलर की बात कर रहे हैं. ये रकम सभी विकासशील देशों के लिए, करीब 6 ट्रिलियन डॉलर है. वो भी साल 2030 तक.
विकसित देश ये पैसा देने में नाक-मुंह सिकोड़ते रहे हैं, और इस पैसे के बिना विकासशील देश अब कोई भी कदम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं.
अब बात करते हैं अपने ही देश की
अब, सभी ने सोचा कि भारत ने जिन लक्ष्यों की घोषणा की है ये हमारे NDC या राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान होंगे. पर हमें पता चला की ऐसा है ही नहीं! भारत ने कहा कि हम इन लक्ष्यों को अपने NDC के रूप में तभी अपनाएंगे जब हमें ये एक ट्रिलियन डॉलर दिए जाएंगे, वरना नहीं.
तो ये सारा पैसा कहां से आएगा?
ये सब सुनिश्चित करने के लिए कई फंड और कई समितियां स्थापित की गईं, लेकिन इन सब से कुछ खास हासिल नहीं हुआ. मसलन अमेरिका हमेशा से ही पैसे देने में सबसे ज्यादा आनाकानी करता रहा है. 2015 में जब पेरिस समझौते पर सहमति हो रही थी, तो अमेरिका ने कहा की भैया, इससे उन्हें कोई लेना-देना नहीं. उनके राजदूत जॉन केरी ने कहा, "विकसित दुनिया को इससे बाहर निकालिए. याद रखिए, ये पृथ्वी की समस्या है. आप इस समस्या का अकेले क्या करेंगे?”
हालांकी काफी ना-नुकुर के बाद अमेरिका अब समझौते का हिस्सा है पर मुद्दा ये है की जेब ढीली करने में सबको दिक्कत है.
अब अगर इन देशों को पेरिस समझौते के हिसाब से 2025 तक हर साल 100 बिलियन डॉलर देने में पहले से ही इतनी दिक्कत है तो 2025 के बाद इसे बढ़ाने में कि तने पसीने छूटेंगे, ये आप सोच ही सकते हैं. फिलहाल क्लाइमेट फाइनेंस के तहत दिया जा रहा पैसा बहुत ही कम है और काफी ज्यादा रहस्य में डूबा हुआ है.
विकसित देश कहते रहते हैं कि लगातार दिया जाने वाला पैसा बढ़ते जा रहे है, पर बाकी सभी को लगता है कि वो हमें बेवकूफ बनाने के लिए सिर्फ "अकाउंटिंग ट्रिक्स" खेल रहे हैं. और जब हम कहते हैं वो- तो हमारा मतलब अमेरिका के नेतृत्व में चल रहे विकसित देश हैं.
यानी अपने ही मुंह मियां मिट्ठु… और वो भी बढ़ा-चढ़ा कर. और जो पैसा ये देते भी हैं उसका एक बड़ा हिस्सा कर्ज की तरह देते हैं. या पहले से दिए हुए कर्ज की ब्याज दर कम कर देते हैं. जैसे अगर कर्ज 10% ब्याज पर दिया था, तो ब्याज कम करके 9% कर देंगे और कहेंगे कि 1% क्लाइमेट फाइनेंस मान लीजिए.
ये मान लीजिए क्या होता है, ऐसे कैसे मान लें?
ये तो वही बात हो गयी की चलो हमने आपस में तय किया की आप मुझे पैसे देंगे. अब मैंने मान लिया की ये पैसे मेरे हैं, मुझे मिलने वाले हैं. इसी हिसाब से मैंने खर्च करना शुरू किया. पर आप ये पैसे दे ही ना और जब मैं आपसे मांगू तो आप कहें… ओहो, तुम्हें पैसे की जरूरत है, कोई बात नहीं, अभी मुझसे ले लो बाद में वापस कर देना. अब ऐसे में मैं तो आपसे चिढ़ ही जाऊंगी ना. और अमेरिका सभी को चिढ़ाने में सबसे आगे है, बिल्कुल अव्वल.
COP26 से सब को काफी उम्मीदें थीं कोई कि मजबूत स्टैंड लिया जाएगा, डिफॉल्टरों के कान खींचें जाएंगे और क्लाइमेट फाइनेंस पर कुछ ठोस निकलकर सामने आएगा. लेकि न ऐसा कुछ नहीं हुआ. अमेरिका बड़ी मौज में निकल गया.
लेकिन अब, क्लाइमट फाइनेंस की इस पूरी राजनीति में हमारे जैसे देश एक ऐसी दुनिया में बैकफुट पर आ जातें है, जहां कार्बन लगभग एक वस्तु या कमोडिटी है. और इस से जुड़ी राजनीति पर स्पष्टता की कमी की वजह से ही असमानता का माहौल और आधार बनता हैं, जो ‘carbon colonialism’ यानी 'कार्बन उपनिवेशवाद' जैसे शब्दों को जन्म देते हैं. इसके बारे में हम अपने अगले स्टोरी में बताएंगे.
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