बर्बादी के मुहाने पर खड़ी दुनिया ने एक बार फिर सच्चाई से आंख चुराई है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा हर साल आयोजित होने वाले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (Climate Change Summit) की 26वीं बैठक (COP-26) में जहां सभी देशों ने धरती की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित करने का संकल्प जताया, वहीं ग्लोबल वॉर्मिंग के लिये जिम्मेदार जीवाश्म ईंधन (कोयला तेल और गैस) के प्रयोग पर किये गये कमजोर और अनमने फैसलों के लिये विकसित देशों की आलोचना हो रही है.
संकल्प दिखा लेकिन कदम नहीं
पिछले दो हफ्ते से चल रही COP-26 शनिवार को यूके के ग्लासगो में सम्पन्न हो गई. इसमें दुनिया भर के 190 से अधिक देशों ने हिस्सा लिया. वैसे इस बैठक को पिछले साल होना था लेकिन कोरोना महामारी के कारण यह आयोजित नहीं हो सकी.
आईपीसीसी – जो कि जलवायु परिवर्तन पर दुनिया भर के वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों का एक्सपर्ट पैनल है – की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि क्लाइमेट चेंज के कारण हो रही तबाही को रोकने के लिये 2030 तक सभी देशों का कुल कार्बन उत्सर्जन (2010 के स्तर पर) 45 प्रतिशत घटाना होगा.
हालांकि सम्मेलन में इसके लिये संकल्प जताया गया फिर भी कोयले, गैस और तेल के इस्तेमाल को रोकने के लिये कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया.
वार्ता के आखिर में जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को ‘फेज़ आउट’ करने के बजाय ‘फेज डाउन’ करने की बात कही गई है जिसकी पर्यवेक्षकों ने कड़ी आलोचना की है और अमीर और विकसित देशों की मनमानी बताया है. दूसरी ओर जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी को पूरी तरह बन्द करने के प्रस्ताव का भारत और चीन समेत कई देशों ने विरोध किया.
ग्लासगो वार्ता में मौजूद भारत के जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने “कार्बन बजट पर विकासशील देशों के न्यायोचित अधिकार” की बात कही. विकासशील देश कहते रहे हैं विकसित देशों द्वारा पिछले 100 साल से किये गये उत्सर्जन के बाद अब गरीब देशों से उनका विकास का अधिकार नहीं छीना जा सकता.
विकासशील देशों से जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी को खत्म करने की उम्मीद जा सकती है?
भारत का सालाना कोयला उत्पादन करीब 70 करोड़ टन है और देश की 60% बिजली कोयला बिजलीघरों से बनती है. सस्टेनेबल डेवलपेंट पर काम कर रही दिल्ली स्थित संस्था आई-फॉरेस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक रोज़गार के लिये देश के 1.5 करोड़ लोग सीधे या परोक्ष रूप से कोयले पर निर्भर हैं.
यादव ने वार्ता में कहा,
“ऐसे हालात में विकासशील देशों से जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी को खत्म करने के वादे की उम्मीद कैसे की जा सकती है? गरीबी उन्मूलन और विकास कार्यों के लिये अभी इन देशों को लम्बा रास्ता तय करना है. सब्सिडी इस काम में जरूरी सामाजिक सुरक्षा और सहयोग देती हैं.”
देश बतायेंगे कि पेरिस डील में तय लक्ष्य में किस तरह आगे बढ़ रहे
ग्लासगो में ये तय हुआ है कि सभी देश अगले साल होने वाले सम्मेलन में बतायेंगे कि उनकी आर्थिक नीतियां किस तरह पेरिस डील में तय लक्ष्य हासिल करने की दिशा में काम कर रही हैं.
इस सम्मेलन में कार्बन क्रेडिट या कार्बन मार्केट के नियम भी तय कर दिये गये हैं लेकिन ‘लॉस एंड डैमेज’ (क्लाइमेट चेंज के कारण होने वाली तबाही) को वार्ता के दस्तावेज में शामिल न कर अमीर देश अपनी जिम्मेदारी से फिर बच निकले.
छोटे-छोटे द्वीप समूह देशों और गरीब देशों ने इसे अपने जीवन मरण का सवाल बताया है. क्रिश्चन एड के मुताबिक अफ्रीकी देशों को अपनी जीडीपी का 10 प्रतिशत तबाही से बचने और नुकसान की भरपाई पर खर्च करना पड़ता है जबकि आने वाले दिनों में उन पर 20 प्रतिशत की चोट पड़ सकती है.
कार्बन उत्सर्जन कम करने के वादे में छाया रहा आलस और पाखंड
ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट में धरती की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित करने के लिये अगले 9 साल में कार्बन इमीशन को कम करने के वांछित लक्ष्य की घोषणा की गई है लेकिन पूरी वार्ता में अमीर देशों का आलस और पाखंड छाया रहा.
2009 में हुये कोपेनहेगेन समिट और 2015 की पेरिस वार्ता में यह तय हुआ था कि क्लाइमेट चेंज की मार झेल रहे विकासशील और गरीब देशों को विकसित देश हर साल 100 बिलियन डालर की मदद करेंगे और साफ ऊर्जा टेक्नोलॉजी ट्रांसफर करेंगे.
इसके लिये ग्रीन क्लाइमेट फंड बनाने की बात कही गई लेकिन विकसित देशों ने ग्लासगो में कहा कि वह यह राशि 2023 से शुरू करेंगे. कई विकासशील और गरीब देश अड़े हैं कि भले ही यह मदद मिलना 2 साल बाद शुरू हो लेकिन इसकी भरपाई 2020 से ही होनी चाहिये.
पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले संगठन क्लाइमेट ट्रेंड कि निदेशक आरती खोसला कहती हैं,
“तापमान को 1.5 डिग्री तक सीमित करने की दिशा में कुछ काम हुआ है जिसके आधार पर आगे कदम उठाये जा सकते हैं लेकिन अमेरिका और यूरोपीय यूनियन द्वारा (विकासशील देशों को) 100 बिलियन डॉलर मदद का वादा तुरंत पूरा होना क्लाइमेट एक्शन के लिये बहुत जरूरी है. इन देशों की जनता भयानक बाढ़, चक्रवात, सूखे और जलवायु परिवर्तन के अन्य प्रभावों का नुकसान झेल रही है और यह फंड इसकी भरपाई के लिये काफी नहीं है फिर भी कुछ हद तक मददगार ज़रूर होता.”
असल में मानव जनित कार्बन इमीशन से धरती का बढ़ता तापमान जो विनाशलीला कर रहा है वह गरीब और विकासशील देशों की जीडीपी पर बड़ा प्रभाव डाल रही है क्योंकि उनकी फसलों के नष्ट होने के साथ रोजगार के अन्य साधनों और अवसरों पर इसकी चोट पर पड़ रही है.
भारत जैसे देश जो 7500 किलोमीटर की विशाल तट रेखा और हज़ारों छोटे बड़े ग्लेशियरों का घर हैं, विशेष रूप से इसकी मार झेल रहे हैं. इन देशों में इससे विस्थापन और भुखमरी का खतरा भी लगातार बढ़ रहा है.
भारत ने अमीर देशों पर दबाव बनाने की प्रभावी रणनीति नहीं बनाई
उधर सम्मेलन में मौजूद जानकार इस बात के लिये भारत की आलोचना कर रहे हैं कि साफ ऊर्जा क्षेत्र में पिछले 5 सालों में अच्छा काम करने के बाद भी भारत ने अमीर देशों पर दबाव बनाने की प्रभावी रणनीति नहीं बनाई.
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क के वरिष्ठ सलाहकार हरजीत सिंह कहते हैं कि जीवाश्म ईंधन को ‘फेज आउट’ करने के बजाय ‘फेज डाउन’ करने की बात कह कर दुनिया के वो सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक सच्चाई से भाग रहे हैं जिन्होंने अब तक ग्लोबल वॉर्मिंग को बढ़ाया है
उनके मुताबिक भारत ने इस मामले में कड़ाई से अपना पक्ष रखना चाहिये था. सिंह कहते हैं कि
जीवाश्म ईंधन की परिभाषा में तेल और गैस को शामिल न करवाना अमीर देशों के शतरंजी बिसात के आगे भारत एक “रणनीतिक” भूल है जिसकी वजह से विकसित और धनी देश तेल और गैस आधारित उत्सर्जन करते रहेंगे जबकि भारत और विकासशील देशों पर कोयला प्रयोग घटाने का दबाव रहेगा.
सिंह कहते हैं “अमीर देश जिनके पास पर्याप्त पैसा और प्रौद्योगिकी है वे बड़ी आसानी से अब कोयला छोड़कर (वार्ता में जिसका जिक्र जीवाश्म ईंधन के तौर पर किया गया है) तेल और गैस निकालते रहेंगे जो कि कोयले जितना ही घातक है. उधर भारत जैसे विकासशील और गरीब देशों की बड़ी आबादी जो कोयले पर निर्भर है वह इसका कुप्रभाव झेलेगी क्योंकि यहां उनके पास ऊर्जा का विकल्प नहीं है.”
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