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रामलीला मैदान (Ramlila Maidan) में इंडिया एलायंस (India Alliance) की रैली 31 मार्च, रविवार को आयोजित की गई थी जिसकी निर्णायक छवि तीन महिलाओं की थी जो एक साथ बैठी थीं. ये तीनों राजनीति में उनके पतियों के कारण आईं.
सोनिया गांधी, सुनीता केजरीवाल और कल्पना सोरेन में आपस की बातचीत देख, दुनिया आश्चर्य में थी कि इनकी बातचीत क्या हुई होगी.
सोनिया गांधी जो एक पीढ़ी वरिष्ठ हैं, क्या उन्हें सलाह दे रही होगी कि अपनी-अपनी पार्टियों को एक साथ कैसे रखा जाए? या फिर, जासूसी करने वाले मीडिया से निपटने के लिए कोई नया समाधान क्या हो सकता है? या फिर एक या दो शब्द इस बारे में कि अपने पतियों की छाया से निकलकर अपने आप में एक नेता के रूप में कैसे उभरें?
अखिरकर, सोनिया ने कुछ राजनीतिक लड़ाइयां देखी और जीती भी हैं, जिसका सामना सुनीता और कल्पना को जल्द ही कुछ समय बाद करना पड़ेगा.
हालांकि उस समय सोनिया गांधी की परिस्थिति अलग थी:
पहला, उनके पति दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की गई थी, उन्हें जेल नहीं भेजा गया था और दूसरा, राजीव एक ऐसे प्रधानमंत्री थे जिनकी मृत्यु का प्रभाव दो मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी से कहीं अधिक था.
जब पहली बार टेलीविजन कैमरों के सामने सुनीता केजरीवाल ने जेल में बंद अपने पति का संदेश पढ़ा तो सिर्फ एक अन्य “राजनेता की पत्नी" के रूप में उनकी तुलना हुई, ना कि सोनिया गांधी या बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी जैसी, किसी के बराबर उन्हें नहीं रखा गया.
जब कल्पना सोरेन ने अपने पति हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद मंच संभाला तो ऐसी ही उनकी तुलना की गई.
राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं रखने वाली एक ईमानदार गृहिणी राबड़ी को 1997 में बिहार का सीएम नामित किया गया था, जब उनके पति, तत्कालीन मौजूदा मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले में जेल जाना पड़ा था.
साल 2000 में अनुभवी पत्रकार शीला भट्ट के साथ इंटरव्यू में, राबड़ी ने जो कहा था, उसके बारे में भी कभी बात नहीं की गई, उन्होंने कहा था, “आज भी, हमारे गांव में एक माध्यमिक विद्यालय नहीं है. जिस स्कूल में, मैं गई वह दो से तीन मील दूर था और गांवों में, माता-पिता अपनी लड़कियों को इतनी दूर नहीं भेजना चाहते. मेरी कोई भी बहन स्कूल नहीं गई लेकिन मेरे भाइयों ने अपनी शिक्षा प्राप्त की क्योंकि वे बाहर जा सकते थे."
किसी के लिए भी राजनीति में दया करना भ्रम है लेकिन तथ्य यह है कि 'राबड़ी देवी' अब अनपढ़, अनुभवहीन राजनेता की पत्नी के लिए एक संज्ञा बन गई है, जिसे सत्ता के गलियारे में धकेल दिया गया है और यह दर्शाता है कि दूसरी कहानी जो एक ओबीसी की, अपने पति के क्षेत्र की रक्षा करने वाली वंचित महिला को, आज तक कभी अधिक महत्व नहीं दिया गया.
लेकिन न तो सुनीता केजरीवाल और न ही कल्पना सोरेन के कंधे पर वह टैग है.
सुनीता एक पूर्व इण्डियन रेवन्यू सर्विस (आईआरएस) ऑफिसर थीं, जिन्होंने 2016 में रिटायरमेंट ले लिया था और साथ ही उनके पास जूलॉजी में मास्टर डिग्री है. दूसरी तरफ, कल्पना के पास इंजीनियरिंग और बिजनेस में डबल मास्टर डिग्री है.
राजनेता की पत्नी की भूमिका भारतीय राजनीति में एक संकोची साथी की भूमिका तक ही सीमित है जो अभियानों के दौरान अपने पति के बगल में खड़ी होती है और विनम्रता से अपना हाथ हिलाती है. वहीं चुनावी इंटरव्यू में कभी-कभार वह उपस्थित होंगी यह बताने के लिए कि उनके व्यस्त पति एक पारिवारिक व्यक्ति भी हैं.
दीवाली, होली, ईद समारोहों या कोई त्योहार में उनकी तस्वीरें खींची जाएंगी लेकिन अपने पति की राजनीतिक विरासत दांव पर हो तो वह इसमें कदम नहीं उठा सकतीं. बेटा या बेटी तो ऐसा कर सकते हैं लेकिन पत्नी नहीं, खासतौर पर तब जब वह कभी राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं रही हों.
राजनीति में राजनेता की पत्नी के रूप में प्रवेश करने और सफल होने के उदाहरण हैं लेकिन पति को पीछे छोड़ने की कीमत पर नहीं है. इसका एक उदाहरण लोकसभा सांसद और समाजवादी पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव हैं.
अपने चुनाव अभियान के दौरान, बहू के रूप में डिंपल की पहचान काफी प्रमुख थी और उन्होंने यह भूमिका बखूबी निभाई लेकिन डिंपल भी अपने पति के साथ ही दिखाई दी, अलग से नहीं.
चुनाव के दिन दूर होने से, बहुत कुछ इन नेताओं की पत्नियों पर निर्भर करेगा. सोनिया गांधी से टिप्स लेते रहना उनके लिए अच्छा होगा.
(इशाद्रिता लाहिड़ी नई दिल्ली में स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. वह मुख्य रूप से राजनीति में रुचि रखती हैं और भारत की विपक्षी पार्टियों को कवर करती हैं. पश्चिम बंगाल उनका विशेष फोकस क्षेत्र है और वह पहले द क्विंट के कोलकाता ब्यूरो का हिस्सा थीं. यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के हैं, इससे लिए क्विंट हिंदी जिम्मेदार नहीं है.)
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