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बाबरी में बरी: हमारी अदालतें भारतीय मुसलमानों की परवाह करती हैं?

मुस्लिम समुदाय पर ये दबाव बनेगा कि उन्हें एक ‘नए भारत’ में चुपचाप सब कुछ सहना होगा. 

नीलांजन मुखोपाध्याय
नजरिया
Updated:
बाबरी में बरी: हमारी अदालतें भारतीय मुसलमानों की परवाह करती हैं?
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बाबरी में बरी: हमारी अदालतें भारतीय मुसलमानों की परवाह करती हैं?
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(द क्विंट ने 30 सितंबर 2020 के बाबरी फैसले पर एक्सपर्ट्स को अपनी राय रखने का न्यौता दिया है. इस सीरीज का यह भाग 1 है. भाग 2 को यहां पढ़ा जा सकता है)

वो अच्छी फिल्म थी या नहीं, यह अलग बहस है लेकिन इस मौके पर 2011 की बॉलीवुड थ्रिलर नो वन किल्ड जेसिका की याद आती है. 30 सितंबर 2020 को स्पेशल सीबीआई जज सुरेंद्र कुमार यादव ने बाबरी मस्जिद मामले में इसी टाइटिल को दोहराया है. यह बात और है कि जिस घटना पर वह फिल्म आधारित थी, उस पर असल में लोगों ने काफी बवाल मचाया था (वह विषय हाल की घटना से एकदम जुदा है), लेकिन बाबरी के मामले में सिविल सोसायटी शांत बैठी है. किसी ने कोई गुस्सा जाहिर नहीं किया. इस दिन बाबरी मस्जिद तोड़फोड़ मामले पर परदा गिर गया, और उसके साथ कितनी ही दूसरी सच्चाइयों पर भी.

पिछले साल नवंबर में अयोध्या दीवानी मामले में अंतिम फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि ‘(बाबरी) मस्जिद को गिराना और इस्लामिक ढांचे का विनाश’ ‘कानून के शासन का जबरदस्त उल्लंघन’ था. उसने यह भी कहा था कि यह उल्लंघन ‘इस अदालत के यथास्थिति के आदेश और आश्वासन का भी उल्लंघन’ था.

जस्टिस यादव के दावे की जांच जरूरी है

2010 में अयोध्या से जुड़े एक दूसरे मामले में सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों जस्टिस पीसी घोष और आरएफ नरीमन ने बाबरी विध्वंस को ‘ऐसा अपराध’ बताया था जिसने ‘भारत के सेक्यूलर फैबिक्र को हिलाकर रख दिया था’. यहां तक कि जस्टिस मनमोहन सिंह लिब्राहन ने अपनी भारी भरकम रिपोर्ट में साफ तौर से लिखा था कि ‘यह एक क्षण को भी माना नहीं जा सकता कि वाजपेयी, आडवाणी और जोशी को ‘संघ परिवार’ के ढांचे के बारे में कुछ पता नहीं था’.

इससे ठीक उलट, सीबीआई अदालत ने कह दिया है कि यह विध्वंस एक ‘स्वाभाविक’ कृत्य था. यह भी कहा जा सकता है, जैसा कि राम जन्मभूमि के तरफदार भी कहते हैं, 1949 में बाबरी मस्जिद में मूर्ति की जबरन स्थापना एक ‘दैवीय हस्तक्षेप’ था.

अगर सर्वोच्च न्यायालय, जिसकी राय निश्चित रूप से ज्यादा महत्वपूर्ण है, ने इस अपराध को गंभीर माना था, तो किसी भी व्यक्ति को आरोपों के लिए दोषी क्यों नहीं ठहराया गया?

यूं जस्टिस यादव ने इसके कई कारण गिनाए हैं, इनमें से सबसे पहला यह है कि वह इस बात से संतुष्ट हैं कि विध्वंस ‘अनियोजित’ यानी अनप्लान्ड था.

अन्य वजहों में दो ऐसी वजहें शामिल हैं जो सीबीआई की पहले से कमजोर छवि को और शक्तिहीन बनाती है. जस्टिस यादव ने कहा है कि इस संबंध में ‘अपर्याप्त सबूत’ मिले हैं और सीबीआई ने जो ‘ऑडियो और वीडियो फुटेज’ दिया है, ‘उसकी सच्चाई साबित करने का कोई जरिया नहीं है’. और वह भी, इस अपराध को अंजाम देने के करीब सत्ताइस साल बाद.

साफ है, किसी सरकार का यह इरादा नहीं था कि अपराधियों को सजा मिले.

शुरुआत से ही न तो योजना बनाकर मामलों को दायर किया गया, और न ही उनमें कोई दिलचस्पी दिखाई गई. मामले को एक शहर से दूसरे शहर ले जाया गया- ललितपुर से रायबरेली और फिर लखनऊ, और वह भी सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर.

तो, जस्टिस यादव के इस दावे की जांच जरूरी है- कि बाबरी का विध्वंस ‘अनियोजित’ था. क्या मस्जिद को तोड़ने का इरादा किसी को भी ‘ज्ञात नहीं’ था?

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क्या सचमुच किसी को पता नहीं था कि उस दिन लोगों का क्या इरादा था?

विध्वंस के बाद पत्रकार-रिपोर्टर्स की रिपोर्ट्स और फोटोग्राफरों की खींची गई तस्वीरों से साफ पता चलता था कि कैसे विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं, जिन्हें बड़ी शान से कार सेवक कहा गया था, ने तोड़फोड़ की रिहर्सल की थी. रिपोर्ट्स बताती हैं कि किस तरह अयोध्या में अलग-अलग जगहों पर अंतिम क्षणों में बैठकें की गईं और इन बैठकों में कई आरोपी शामिल हुए. इनमें से कई आरोपी जीवित हैं और कई के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं.

खुद आडवाणी का एक भाषण इसकी ताईद करता है. 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में इस हमले के समर्थन में उन्होंने वाराणसी से अयोध्या तक की यात्री की थी. इस यात्रा के दौरान उन्होंने एक जनसभा में कहा था कि इस कार्यक्रम में ‘सिर्फ भजन नहीं गाए जाएंगे, बल्कि ईंटों और फावड़ों से इसे अंजाम दिया जाएगा’.

वैसे आरोपियों से यह पूछना मुनासिब होगा कि मस्जिद को तोड़ते समय कई नेताओं के चेहरे पर जो गर्वीली मुसकान थी, उसे दर्शाने वाली तस्वीरों को कैसे छिपाया जा सकता है. उनमें से कितने ही- एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो- का भड़काऊ नारा लगा रहे थे. यह भी याद किया जा सकता है कि कैसे संघ परिवार रामलला विराजमान की ओर से प्रमुख याचिकाकर्ता बनने से पहले ही विवाद का एक पक्ष बन गया था.

अदालत वीएचपी के इरादे को क्यों नहीं समझ पाई?

जनवरी 1950 में जब अयोध्या के एक साधु ने तालाबंद मंदिर में पूजा की मांग के साथ पहला मामला दायर किया था तब वीएचपी का जन्म भी नहीं हुआ था. उस दौर में आरएसएस भी इस मामले से नहीं जुड़ी थी, यह सारा जिम्मा हिंदू महासभा के नेताओं का था. उन्होंने इस मामले को गर्माया था और फिर उसे जमीन पर उतारा था.

अस्सी के दशक के बीच वीएचपी ने राजनैतिक आंदोलन चलाया और इस दीवानी मामले का एक पक्ष बनाने का फैसला किया. हाई कोर्ट के पूर्व जज और वीएचपी के वाइस प्रेज़िडेंट देवकीनंदन अग्रवाल ने जुलाई 1989 में यह रास्ता दिखाया. उन्होंने मूर्ति को ‘अपना अभिन्न सखा’ बताते हुए उसकी तरफ से इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की जिसे मंजूर किया गया और वीएचपी इसका एक मुख्य पक्ष बन गई. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है कि अग्रवाल ने स्पष्ट रूप से ‘मौजूदा इमारत के विध्वंस (सिक) के बाद एक नए मंदिर के निर्माण में हस्तक्षेप के खिलाफ निषेधाज्ञा की’ मांग की थी.

सवाल यह है कि अदालत ने वीएचपी और उससे संबंधित संगठनों के इस इरादे को क्यों नहीं समझा. चूंकि वह तो हमले के साढ़े तीन साल पहले ही कानून की अदालत में इस इरादे का ऐलान कर चुके थे? क्या प्रॉसीक्यूशन ने उसे यह जानकारी नहीं दी थी या क्या किसी उद्देश्य को खुद कबूल करना, उसे स्वीकार करना नहीं माना जाता?

आखिरकार, सभी आरोपी अलग-अलग भूमिकाओं के साथ एक राजनैतिक आंदोलन का हिस्सा थे. वे एक दूसरे के फैसलों का समर्थन करते थे इसीलिए अपने साथियों के किए-धरे से पल्ला नहीं झाड़ सकते. अग्रवाल लंबे समय तक वीएचपी के सक्रिय सदस्य रहे और संघ परिवार के सभी संगठनों को अपना सहयोग समर्थन देते थे. 2002 में अपनी मृत्यु तक वह इस दीवानी मुकदमे के पक्षकार थे.

भारतीय मुसलमानों के भरोसे को धक्का लगा है

इस मामले को इस तर्क के आधार पर तैयार किया गया था कि इसके पीछे कोई षडयंत्र नहीं था और यह विध्वंस उस जनांदोलन के कारण उत्पन्न हुई सामूहिक लहर का नतीजा था, जो ‘राष्ट्रीय गौरव को बरकरार रखना’ चाहता था. बाबरी मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह दूसरा फैसला है जो यह साबित करता है कि न्यायपालिका समाज की प्रभुत्वशाली बहुसंख्यक संवेदना को ही ध्यान में रखती है.

यूं यह चिंता की बात है क्योंकि न्यायपालिका से ही हम आखिरी उम्मीद रखते हैं. सुप्रीम कोर्ट के जजों ने नवंबर में एक संतुलित फैसला दिया था. मस्जिद तोड़ने के अपराधिक कृत्य पर यह राजनैतिक और कानूनी रूप से दुरुस्त फैसला था. उसमें इस मामले पर कोई फैसला नहीं दिया गया था. उनके सामने जो मसला था, उस पर पांचों जजों ने अतीत में कब्जे, वास्तविक और उसके सबूत, को ध्यान में रखा था.

अदालत के बाहर 30 सितंबर के फैसले पर जश्न मनाया गया. राम मंदिर का सपने देखने वालों ने एक दूसरे को बधाई भरे संदेश भेजे. लेकिन फैसले के बाद भारतीय मुसलमानों के भरोसे को फिर से धक्का लगा है. चूंकि उनके पूर्वजों ने 1947 में पाकिस्तान की जगह भारत को इसीलिए चुना था क्योंकि उन्हें इस देश पर भरोसा था. यह इसके बावजूद है कि उनमें से ज्यादातर ने 1992 के बाद बाबरी मस्जिद में दिलचस्पी लेनी बंद कर दी थी. लेकिन बहुसंख्यकों ने उनके जख्मों पर नमक छिड़का है और उन्हें बार-बार इन प्रतीकों को याद रखने को मजबूर किया है. बाबरी विध्वंस मामले में आरोपियों के बरी होने से उनका अस्तित्व का संकट और गहरा होगा.

उन पर यह दबाव बनेगा कि उन्हें एक ‘नए भारत’ में चुपचाप सब कुछ सहना होगा. एक ऐसा नया भारत जहां हिंदुत्व की विचारधारा का बोलबाला है.

कांग्रेस ने केंद्र और राज्य सरकारों से कहा है कि उन्हें इस फैसले के खिलाफ अपील करनी चाहिए. इस पर आधिकारिक बयान बताएगा कि क्या कानूनी प्रक्रियाओं का अब भी पालन होता है या सब कुछ पहले ही त्याग दिया गया है.

(लेखक की पहली किताब ‘द डेमोलिशन: इंडिया एट द क्रॉसरोड्स’ थी. वह इस समय इसी विषय पर एक और किताब लिख रहे हैं. वह @NilanjanUdwin पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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Published: 01 Oct 2020,07:04 PM IST

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