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बाबरी केस : ‘मुसलमान वोट बैंक की खातिर साजिश की थ्योरी दी गई’

इस दावे में कोई सच्चाई नहीं है कि षडयंत्रपूर्वक मस्जिद ढहायी गयी

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(30 सितंबर 2020 को बाबरी विध्वंस पर फैसले पर टिप्पणी की सीरीज का यह दूसरा हिस्सा है. क्विंट ने इस विषय पर आकलन के लिए विशेषज्ञों को निमंत्रित किया है. पार्ट-1 को यहां देखा जा सकता है.)

सत्यमेव जयते

सच्चाई की जीत हुई है. बाबरी मस्जिद विध्वंस के षडयंत्र मामले में केवल एक ‘षडयंत्र’ हुआ था और वह था राजनीतिक षडयंत्र. बाबरी विध्वंस पूर्व नियोजित कार्रवाई नहीं थी. उस घटना पर श्री आडवाणी प्रतिक्रिया को याद कीजिए. वे निराश थे और उन्होंने कहा था, “मेरा राजनीतिक आंदोलन अब चरमरा गया है.” यह विध्वंस उस राजनीति का प्रतीक था जो समूचे भारत में जारी थी. अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण की राजनीति और छद्म धर्मनिरपेक्षता.

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जीवन में कई बार घटनाएं लोगों से आगे निकल जाती हैं. पहली बार ऐसा नहीं हुआ था कि अयोध्या में मस्जिद के पास जमावड़ा लगा हो. जो लोग मस्जिद को ‘बचाने’ की कोशिश में थे उनकी आक्रामकता ने लोगों के एक हिस्से को उकसाया जिसके बाद वे आगे बढ़े और इसे ढाह दिया. लेकिन यह दावा करना निरर्थक है कि यह पूर्व नियोजित षडयंत्र था.

ऐसा इसलिए किया गया ताकि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल मुस्लिम समुदाय की आहत भावना को तुष्ट कर सकें. इस दावे में कोई सच्चाई नहीं है कि षडयंत्रपूर्वक मस्जिद ढहायी गयी.

आडवाणी और अन्य बीजेपी/आरएसएस नेताओं की भूमिका

श्री आडवाणी ने 25 सितंबर 1990 को रथयात्रा निकाली और 23 अक्टूबर को वे गिरफ्तार हुए. उस समय मुलायम सिंह यादव की ओर से चलाए गये दमन के कारण कोई मस्जिद तक नहीं जा सका था. उन्होंने कहा था, “कोई परिंदा भी यहां पर नहीं मार सकता”. कोठारी भाइयों को कारसेवा की कोशिश करते समय पुलिस ने मार डाला. इससे लोग भड़क गये, लेकिन कोई हिंसा नहीं हुई.

फरवरी 2002 में वीएचपी के आह्वान पर अयोध्या स्थल पर लाखों कारसेवक पहुंच गये. वे तभी वापस लौटे जब उन्हें भरोसा मिला कि सरकार ने मंदिर निर्माण के लिए जमीन का अधिग्रहण कर लिया है. हालांकि उन लोगों ने मंदिर निर्माण में हो रही देरी पर नाराजगी का इजहार किया, लेकिन वे किसी हिंसक गतिविधि में शामिल नहीं हुए. वास्तव में लौटते समय उनकी ट्रेन में आग लगा दी गयी जिससे गुजरात में दंगे हुए.

रथयात्रा की शुरुआत करते हुए श्री आडवाणी ने दो एजेंडे को आगे बढ़ाया. पहला छद्म धर्मनिरपेक्षता का था. उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जो कुछ हो रहा है वह वास्तव में अल्पसंख्यकवादी राजनीति है क्योंकि अल्पसंख्यक वोट बैंक हैं. और, यह सब बहुसंख्यकों के हितों की कीमत पर हो रहा है.

बीजेपी इस बात को लेकर उठ खड़ी हुई कि सबके लिए न्याय और किसी का तुष्टीकरण नहीं. पार्टी के राममंदिर आंदोलन के लिए वह मार्गदर्शक सिद्धांत था जिस पर हिन्दुओं के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मुहर लगी.

अटल बिहारी वाजपेयी और यूपी सरकार

कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने इसकी सारी व्यवस्था कर रखी थी कि सभी चीजें सही तरीके से हों. लेकिन, जब माहौल बहुत गरम हो गया तो निर्णायक फैसले का वक्त आ गया : क्या खून-खराबे की राह पर चला जाए या जो हो रहा है उसके साथ रहकर देखा जाए कि क्या होता है.

श्री कल्याण सिंह ने निर्णय लिया कि वे खून-खराबे की राह पर नहीं चलेंगे. और उन्होंने बाद में अफसोस जताया. जब उन्हें सुप्रीम कोर्ट की ओर से अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया तो उन्होंने अपना दोष स्वीकार किया और अदालत ने जो कुछ सजा दी उसे माना. उन्हें कैद हुई.

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बयान को आप किस तरह से देखते हैं, “जमीन को समतल करना होगा”?

बयान का एक हिस्सा उठाकर कई तरह से व्याखा की जा सकती है. लेकिन जब आप इसे खुद उस बयान के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो मतलब साफ हो जाता है. उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि मस्जिद को गिराने की आवश्यकता है. उन्होंने केवल इतना कहा कि तुष्टिकरण की नीति को रोकना होगा. और, विध्वंस के समय अटल बिहारी वाजपेयी यहां तक कि अयोध्या में भी नहीं थे.

एक तरह की समानता दिखलाने और उनके बयान से मतलब निकालने का नतीजा ये होता कि श्री वाजपेयी पर भी षडयंत्र करने के आरोप लगाए गये होते. वे कभी इसमें शामिल नहीं रहे.

ऐसे सबूत नहीं के बराबर हैं जिससे साबित होता हो कि विध्वंस पूर्व नियोजित कार्रवाई थी. यह ऐसी घटना थी जो वहीं की वहीं हो गयी.

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किसने बाबरी मस्जिद ढहाई?

इस विध्वंस के दो पहलू हैं. एक खुद ढहाने की कार्रवाई और दूसरा मस्जिद ढहाने का षडयंत्र. जो दल उस समय केंद्र में सत्ता में थे उन्होंने कोशिश की कि बीजेपी को मस्जिद ढहाने के षडयंत्र में फंसाया जाए जबकि पार्टी का इससे कोई लेना-देना नहीं था.

बीजेपी 1998 में ही सत्ता में आ सकी. इससे पहले या तो कांग्रेस की सरकार रही या फिर कांग्रेस के समर्थन वाली सरकार. उन्हें जांच करनी चाहिए थी और उन लोगों पर मुकदमे चलाने चाहिए थे जिन्होंने मस्जिद गिरायी.

वे कौन लोग थे जिन्होंने बाबरी विध्वंस किया उनकी जांच सीबीआई और दूसरी जांच एजेंसियों द्वारा की जानी चाहिए थी. यह जवाब कांग्रेस और उनके सहयोगियों को देना होगा कि क्यों उन्होंने अपराधियों की पहचान नहीं की.

रिहा हुए 32 लोगों में किसी पर भी कभी यह आरोप नहीं लगा कि वे ऊपर चढ़े और ढांचे को ढाह दिया. यह तत्कालीन सरकार की शरारतपूर्ण कार्रवाई थी. खुद का दामन बचाने और मुस्लिम वोट बैंक की खातिर उन्होंने इस षडयंत्र की थ्योरी को आगे बढाया जो अब धराशायी हो गया है.

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क्या इसे 2019 के अयोध्या के फैसले की अगली कड़ी कहा जा सकता है?

2019 का अयोध्या जमीन विवाद पर फैसला और इस फैसले को एक-दूसरे से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. तेजी से जो फैसला हुआ है उसका कारण यह है कि सांसदों और विधायकों से जुड़े मामलों में फास्ट ट्रैक न्याय का निर्णय लिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने खासतौर पर इसी बात का ध्यान रखते हुए इस मामले में तेजी से फैसले का निर्देश दिया. और, यही कारण है कि फैसला सामने है.

2019 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने हिन्दुओं के दावे की सच्चाई और इस विषय पर होती रही संकीर्ण राजनीति को स्थापित किया है. तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों द्वारा वोट बैंक की राजनीति के कारण हिन्दुओं के न्यायसंगत दावे को नकारा जाता रहा. एक तरीके से यह तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों की गाल पर करारा तमाचा था.

नये षडयंत्र, नये एजेंडे?

ऐसा है कि जो आप कहते हैं या करते हैं वही दोषी या निर्दोष के तौर पर आपके आंकलन का आधार बन जाता है. उन दिनों ऐसा कोई भाषण किसी ने रिकॉर्ड नहीं किया है जिसमें कुछ ऐसा कहा गया हो, “जाओ और बाबरी मस्जिद गिरा दो.” क्या आडवाणी ने कहा? क्या उमा भारती ऐसा कुछ कहा? या फिर चम्पत राय ने? जवाब है नहीं. किसी ने भी ऐसा नहीं कहा.

बाबरी मस्जिद विध्वंस दिल्ली दंगे की तरह पूर्व नियोजित कार्रवाई नहीं थी.

ऐसे कई सबूत पेश किए गये हैं जो बताते हैं कि दंगे को अंजाम दिया गया. पेश किए गये तथ्य कितने आपराधिक हैं उसी आधार पर दोष का मूल्यांकन होगा.

हर जगह ऐसे तत्व होते हैं और कुछ लोग काशी और मथुरा के लिए नारे लगा रहे हैं. अयोध्या एक आंदोलन था जिसके लिए खुद बीजेपी प्रतिबद्ध थी. यह कोई छिपछिपाकर आंदोलन नहीं था जिसमें बीजेपी शामिल थी. पालमपुर प्रस्ताव के जरिए बीजेपी ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का वादा किया था और हमने अपने राजनीतिक विश्वास को आगे बढ़ाया.

बीजेपी और आरएसएस को किसी एजेंडे के प्रति प्रतिबद्धता दिखलानी होगी कि यह उनका है अन्यथा यह कुछ लोगों के छोटे समूह की मांग भर बनकर रह जाएगा. पालमपुर का संकल्प पूरा हो गया है. हमारा एजेंडा केवल राम जन्मभूमि को लेकर था और वह पूरा हो गया है. अब की स्थिति मे बीजेपी किसी और प्रतिबद्धता से नहीं बंधी है.

(सुधांशु मित्तल बीजेपी नेता हैं. वो इंडियन ओलिंपिक एसोसिएशन के उपाध्यक्ष हैं, खो-खो फेडरेशन के अध्यक्ष हैं. उन्होंने ‘RSS:Building India Through Sewa’ नाम की किताब लिखी है. ये एक ओपिनियन लेख है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के हैं. क्विंट का उससे इत्तेफाक रखना जरूरी नहीं है.)

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