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1857 के विद्रोह को ‘आजादी की पहली जंग के रूप’ में जाना जाता है. स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले इतिहास की किताबों में जमकर इसका गुणगान किया जाता है, और ये संदेश दिया जाता है कि फिरंगियों को देश से निकाल बाहर करने के लिए सब कुछ मुमकिन था.
एक सिपाही विद्रोह के रूप में शुरू हुई घटना जल्द ही असंतुष्ट गुटों के विद्रोह में तब्दील हो गई. सभी गुटों की अलग-अलग शिकायतें थीं या उनके अभिमान को चोट पहुंची थी या दोनों ही बातें थीं. विद्रोह के बाद का समय अफरातफरी और अराजक हिंसा से भरपूर था.
कुछ समय के लिए लगा कि अवध प्रांत से ब्रिटिश की पकड़ ढीली हो रही है. विद्रोहियों ने दिल्ली पर भी कब्जा कर लिया था. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि पूरा देश विद्रोह की चपेट में आ गया हो.
भारत के प्रायद्वीपीय इलाके और पंजाब पर विद्रोह का कोई असर नहीं था. दरअसल भरोसेमंद सिख सिपाहियों की बदौलत ही सत्ता की हवा कंपनी बहादुर की ओर फिर से बहने लगी. आप ये भी सवाल कर सकते हैं कि जिन्होंने विदेशी राज के खिलाफ हथियार उठाए, क्या वो भारत की आजादी के लिए लड़ रहे थे?
ये नहीं मानना चाहिए कि ये बातें लिंग और समुदाय से परे सैकड़ों भारतीयों के बलिदान का अपमान हैं.
बेगम हजरत महल, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे और उनके अनगिनत समर्थकों को कैसे भुलाया जा सकता है, जिन्हें निर्ममता से तोप के सामने खड़ा कर उड़ा दिया गया, या दूसरे विभत्स तरीकों से मौत के घाट उतार दिया गया?
लेकिन उस घटना के डेढ़ सौ साल से ज्यादा समय के बाद क्या उस घटना की समीक्षा नहीं की जानी चाहिए, जिसे आम आदमी की भाषा में ‘गदर’ कहते हैं?
साम्राज्यवादी सत्ता के खिलाफ राष्ट्रवादी नैरेटिव में हवा-हवाई बातों का इस्तेमाल आम बात है.
‘एक रानी, जो पुरुषों की तरह वीरता से लड़ी,’ उस रानी की याद में सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता की सदाबहार पंक्तियां रोंगटे खड़े कर देती है – “सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी. चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी.”
और फिर, एक बूढ़े शायर सम्राट के लफ्जों की ये तकलीफ आज भी रुह कंपा देती है – ‘कितना है बदनसीब 'जफर', दफ्न के लिए, दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में।’
इन शब्दों के दर्द में डूबकर ये भूलना आसान है कि बहादुरशाह, मेरठ से आए विद्रोहियों के नेता जरूर थे, लेकिन बेमन से (और लगभग बेकार) नेता बने थे.
दोनों ओर से भयानक अत्याचार हुए, जिन्हें अमूमन बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है. लेकिन किसके पास इतना वक्त है कि आर्काइवल रिकॉर्ड्स के जरिये उस वक्त की अराजकता, विवेकहीन आक्रोश, लूटमार और बदले की निर्मम घटनाओं में अपना सिर खपाए? जो भी जानकारी है, वो प्रचलित कहानियों और मंगल पांडेय जैसी फिल्मों के डायलॉग्स पर आधारित है.
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता, कि इस टकराव की चिनगारी लंबे समय तक सुलगती रही. गदर पार्टी के संस्थापकों को हमेशा उस चिंगारी का अहसास रहा. यही वजह थी कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपने इंडियन नेशनल आर्मी में रानी झांसी रेजिमेंट का गठन किया था.
इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि उस वक्त अलग-अलग समुदायों और जातियों के बीच बनी एकता बेहद अस्थाई साबित हुई.
उनके जागीर छीन लिये गए. कई बेदखल आश्रितों ने महसूस किया कि उनकी तुलना में उनके हिन्दू समकक्षों की स्थिति बेहतर है.
अंग्रेजी शिक्षा में मुस्लिम समुदाय पिछड़ा था. उन्हें समय के साथ इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. मेडिकल, कानून और प्रशासनिक सेवाओं जैसे पेशों में वो हिन्दुओं की तुलना में पीछे रह गए. इस कारण कई लोगों को लगा कि कभी राज करने वालों को अभावों में जीना पड़ रहा है.
1857 को लेकर कार्ल मार्क्स से लेकर वीडी सावरकर तक का नजरिया अलग था. उसे लेकर वर्ग संघर्ष से लेकर आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता पर जोरदार बहस जारी रहेगी. लेकिन जो पीढ़ी 21वीं सदी में पैदा हुई है, उसे इस सोच की कपट भरी भावनाओं से खुद लड़ना होगा.
(पद्मश्री सम्मानित प्रोफेसर पुष्पेश पंत एक मशहूर बुद्धिजीवी, खाद्य विश्लेषक और इतिहासकार हैं. उन्हें @PushpeshPant पर ट्वीट किया जा सकता है. आर्टिकल में दिये गए विचार उनके निजी विचार हैं और क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 09 May 2019,12:56 AM IST