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गुरुग्राम नमाज मामला: नई मस्जिदों की इजाजत से क्या सुलझ सकता है विवाद?

गुरुग्राम में हिंदू संगठन लगातार कर रहे खुले में नमाज का विरोध, मुख्यमंत्री ने भी बताया गलत

डॉ एनसी अस्थाना
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>गुरुग्राम के सेक्टर 47 मोहल्ले में अदा की जा रही शुक्रवार की नमाज की फाइल फोटो। प्रतीकात्मक तस्वीर</p></div>
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गुरुग्राम के सेक्टर 47 मोहल्ले में अदा की जा रही शुक्रवार की नमाज की फाइल फोटो। प्रतीकात्मक तस्वीर

(फोटो: ईश्वर/द क्विंट)

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हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर (Haryana Chief Minister Manohar Lal Khattar) ने शुक्रवार, 10 दिसंबर को गुरुग्राम में मीडिया से कहा, "खुले में नमाज अदा करने की परंपरा को कतई सहन नहीं किया जा सकता है, लेकिन एक सौहार्दपूर्ण समाधान निकाला जाएगा. देखेंगे कि हम वक्फ बोर्ड की अतिक्रमित भूमि को पुनः प्राप्त करने या उनके घरों में नमाज अदा करने में उनकी मदद करने के लिए हम क्या कर सकते हैं. हम किसी तरह का टकराव नहीं होने देंगे. बातचीत के बाद फैसला तो हुआ, लेकिन आवंटित जगहों को वापस ले लिया गया. हम इस मामले पर नए सिरे से विचार करेंगे." मुख्यमंत्री ने ये भी कहा कि सभी धार्मिक गतिविधियां केवल धार्मिक स्थलों तक सीमित होनी चाहिए.

सोशल मीडिया पर 4 दिसंबर को एक वीडियो व्यापक रूप से प्रसारित हुआ. जिसमें प्रदर्शनकारियों को गुंडागर्दी करते हुए नमाज को बाधित करने का प्रयास करते हुए दिखाया गया.

वो अकड़ कर नमाज करने रोक रहे थे साथ ही ये कह रहे थे कि "यहां कोई नमाज नहीं होगी." मुसलमानों ने संयम दिखाया, जबकि पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए बल का प्रयोग किए बिना ही गुंडों को नियंत्रण में रखा. इस दौरान हंगामे के बीच नमाज अदा की गई.

असली गलती प्रशासन की है

जिला प्रशासन द्वारा मई 2018 में मुसलमानों को 37 स्थानों पर नमाज अदा करने की अनुमति दी गई थी. जबकि गुरुग्राम के कई सेक्टरों के स्थानीय निवासी और कुछ संगठन पिछले कई हफ्तों से इन सार्वजनिक स्थानों पर नमाज अदा करने का विरोध कर रहे हैं. ये इस बात कर तर्क दे रहे हैं कि जो अनुमति दी गई थीं वो या तो औपचारिक अनुमति नहीं थी या वो केवल एक सीमित समय (या सिर्फ एक दिन) के लिए थी, वहीं किसी मामले में स्थानीय निवासियों से परामर्श किए बिना वे अनुमतियां एकतरफा दी गईं थीं.

तब प्रशासन ने उनके तर्क को स्वीकार करते हुए और अपनी 'गलती' को मानते हुए बाद में आठ स्थानों की अनुमति वापस ले ली. अब, मुख्यमंत्री के बयान से ऐसा प्रतीत होता है कि सभी जगहों के संबंध में अनुमति वापस ले ली गई है.

इस संबंध में सही कानूनी स्थिति को जानना जानकारीपूर्ण या शिक्षाप्रद होगा. जहां अधिकारियों द्वारा नमाज पढ़ने की अनुमति दी गई थी, उस जगह पर नमाज अदा करने के लिए जाकर मुसलमानों ने कोई गलती नहीं की. बल्कि नमाज के स्थान पर विरोध करके प्रदर्शनकारियों ने गलती की, उन्हें विरोध करने के बजाय प्रशासन से संपर्क करना चाहिए था. ऐसे में देखें तो जो मूल गलती थी वो प्रशासन की थी.

प्रशासन के पास किसी भी सार्वजनिक स्थान पर नमाज की स्थायी अनुमति देने का अधिकार नहीं था. भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 (या बाद में उन राज्यों के पुलिस अधिनियम जिन्होंने उन्हें पारित किया है) बहुत कम अवसरों पर ही निजी उद्देश्यों चाहे वह धार्मिक, राजनीतिक या अन्य कारणों से हो, की अनुमति देते हैं. रेगुलर या बार-बार निजी उद्देश्यों के लिए अनुमति नहीं दी जा सकती है.

उदाहरण के लिए चूंकि 'कांवड़ यात्रा' साल में केवल एक बार होती है, इस वजह से इसके लिए अनुमति दी जाती है. लेकिन किसी सार्वजनिक पार्क में एक महीने तक चलने वाली 'कथा' के लिए मंजूरी नहीं दी जा सकती है. नोएडा प्रशासन ने दिसंबर 2018 में एक नगर पालिका पार्क में नमाज और भागवत कथा दोनों के लिए अनुमति देने से इनकार दिया था.

अतीत में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले

बहरहाल, मुख्यमंत्री ने आखिरकार प्रशासन की गलती को सुधार लिया है. यहां तक ​​कि उनकी आलोचना (एक टीवी कार्यक्रम ने उनके फैसले के लिए एक प्रश्न चिह्न के साथ अल्पसंख्यक विरोधी शब्द का इस्तेमाल किया) की गई है. तथ्य तो ये है कि वो कानूनी दृष्टिकोण से ठीक है.

सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने डॉ एम इस्माइल फारुकी (1994) के मामले में माना था कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत प्रदान किया गए अधिकार के अनुसार किसी को कहीं पर भी पूजा करने के अधिकार का नहीं दिया गया है.

जुलाई 2018 में ज्योति जागरण मंडल दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के एक पार्क में "जागरण" और "माता की चौकी" आयोजित करना चाहता था. उन्होंने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) के उस आदेश को चुनौती दी थी जिस आदेश में अनुमति देने से इनकार किया गया था. सुप्रीम कोर्ट की डिवीजन बेंच ने कहा कि सार्वजनिक स्थानों पर "ऐसी धार्मिक गतिविधि" आयोजित नहीं की जा सकती.

इससे पहले बॉम्बे हाईकोर्ट की एक डिवीजन बेंच ने 2017 में डॉ महेश विजय बेडेकर के मामले में फैसला सुनाया था कि "किसी को भी यातायात के मुक्त प्रवाह में बाधा डालकर सड़क या फुटपाथ पर प्रार्थना या पूजा करने का मौलिक अधिकार नहीं है. क्योंकि यह किसी भी धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं है.

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सोशल मीडिया पर मौजूद भ्रामक टिप्पणियां

सोशल मीडिया पर अधिकांश लिबरल यानी उदारवादी वर्गाें ने इन घटनाक्रमों पर अपेक्षित तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त की है. हालांकि वे इस तथ्य से बेखबर थे कि उनकी टिप्पणियां कानूनी रूप से गलत और आपत्तिजनक दोनों थीं. वहीं इस पर संबंधित पक्ष कानूनी कार्रवाई के लिए आगे बढ़ सकते थे.

4 दिसंबर को ट्विटर पर नमाज बाधित होने के एक वीडियो के कैप्शन में लिखा है, ''हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी या चरमपंथी मुसलमानों को नमाज पढ़ने से रोकने की कोशिश करते हैं.'' ट्वीट करने वाले ने अपने इस ट्वीट में अमेरिकी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को भी टैग किया था, ऐसा उसने ये सोच के किया होगा कि शायद उसके इस ट्वीट पर 'लोकतंत्र के शिखर सम्मेलन' (Summit for Democracy) में चर्चा की जाएगी. उसके ट्वीट में आपत्तिजनक शब्द 'चरमपंथी' या 'कट्‌टरपंथी' था. मेरी जानकारी के अनुसार चरमपंथी शब्द को सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी फैसले में परिभाषित नहीं किया गया है, हालांकि इसका सामान्य अर्थ अपमानजनक है और मानहानि के अधीन है.

उसके बाद वो कहता है कि "मुसलमानों को प्रार्थना करने से रोकने का प्रयास" जिससे यह धारणा बनती है कि क्रूरतापूर्वक मुसलमानों को मौलिक अधिकार का प्रयोग करने से रोक दिया गया था. यह भारतीय दंड संहिता की धारा 505 (2) को लागू करता है, जिसके अंदर डर पैदा करने का इरादा, या कुछ लोगों को जानबूझकर और गलत तरीके से तथ्यों को गलत तरीके से प्रस्तुत करके अपराध करने के लिए उकसाने का मामला आता है.

एक अन्य ट्वीट में कहा गया, "सार्वजनिक अपमान और मुसलमानों की अधीनता". संवैधानिक रूप से संरक्षित अपनी धार्मिक स्वतंत्रता का प्रयोग करने के लिए संघर्ष करें. हालांकि वहां गुंडागर्दी थी, मुसलमानों की कोई वास्तविक "अधीनता" नहीं थी. यदि इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाता, तो दोनों पक्षों द्वारा किसी भी सांप्रदायिक विवाद को एक-दूसरे को "अधीन" करने का प्रयास माना जा सकता था. जैसा कि हमने ऊपर दिए गए फैसलों में देखा है, भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) के तहत प्राप्त अधिकार सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक गतिविधि करने का अधिकार नहीं देता है. ट्वीट में आगे कहा गया है कि 'मुसलमान विरोध कर रहे हैं.' तथ्यों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने और "विरोध" करने के ये सभी तीन पहलू धारा 505 (2) के तहत कार्रवाई का आधार बन सकते हैं.

कुछ सवाल जिन्हें पूछे जाने की जरूरत है

एक अन्य ट्वीट में कहा गया "भारत के 'धर्मनिरपेक्ष' गणराज्य में सामूहिक प्रार्थना, जोकि इस्लाम का हिस्सा है, इसको BJP शासित हरियाणा में मना किया जा रहा या इसको करने से रोका जा है." इस बारे में कोई विवाद नहीं है कि सामूहिक प्रार्थना इस्लाम का हिस्सा है. मामला सार्वजनिक स्थान पर नमाज अदा करने का है, जोकि कानून के खिलाफ है.

बीजेपी शासित हरियाणा सरकार ने इसे 'गैरकानूनी' या कानून के खिलाफ नहीं बताया है बल्कि देश के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसे गैर कानूनी कहा है. एक राज्य सरकार के खिलाफ तथ्यात्मक और कानूनी रूप से गलत आरोप भड़काऊ हैं. इसके लिए धारा 505 कार्रवाई (2) के तहत कार्रवाई भी की जा सकती है.

एक ट्वीट में दावा किया गया कि राज्य सरकार ने 42 मंदिरों, 18 गुरुद्वारों अनुमति दी है लेकिन वहीं उनकी ओर से सिर्फ एक मस्जिद को मंजूरी दी गई है. यह सरकारी भेदभाव को इंगित करता है लेकिन इसमें विवरण न होने के कारण या जानकारी की कमी के चलते यह भ्रामक है.

एक बार को भले ही हम यह मान लें कि तथ्य वास्तविक हैं लेकिन हमें उन परिस्थितियों के बारे में अधिक जानकारी की आवश्यकता है जिनके तहत उपरोक्त मंदिरों और गुरुद्वारों की अनुमति दी गई थी. मसलन अनुमति कब प्रदान की गई थी? उस समय क्षेत्र की जनसंख्या कितनी थी? हाल के वर्षों की बात करें तो गुरुग्राम के साथ ही साथ वहां की अचल संपत्ति यानी रियल स्टेट में काफी तेजी से बदलाव आया है और यह दिन-ब-दिन बदलता ही जा रहा है. जिन जमीन को आवंटित किया गया था या जिनकी अनुमति दी गई थी क्या वे जमीन पहले से ही सीमित व महंगी थीं या अनुमति के बाद वे काफी महंगी हो गई हैं?

'वक्फ संपत्तियों को वापस पाने में असमर्थ'

कुछ नई मस्जिदों के निर्माण की अनुमति देकर मुख्यमंत्री इस समस्या को सुलझा सकते हैं. समुदायों के बीच अनावश्यक तनाव और संघर्ष से बचने का यही एकमात्र कानूनी या वैध तरीका है. उन्होंने (सीएम ने) कहा है कि "हम यह पता लगाने की कोशिश करेंगे कि वक्फ बोर्ड की अतिक्रमित जमीन को कैसे वापस ले सकते हैं."

अगर खट्टर लाल फीताशाही को खत्म कर देते और वास्तव में इस प्रक्रिया में तेजी लाते, तो वो मुस्लिम समुदाय का विश्वास हासिल कर सकते हैं. लेकिन अविश्वास के मौजूदा माहौल में साधारण आश्वासनों का कोई महत्व नहीं है.

गुड़गांव मुस्लिम काउंसिल ने मीडिया को बताया कि "वक्फ बोर्ड और प्रशासन लंबे समय से अतिक्रमणकारियों से वक्फ की संपत्ति वापस नहीं ले पाए हैं."...हम उनसे [मुख्यमंत्री] HSVP [हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण] को इस बात का निर्देश देने के लिए अनुरोध करते हैं कि प्राधिकरण हमें अलग-अलग सेक्टर्स में जमीन आवंटित करे ताकि हम बहुमंजिला मस्जिदों का निर्माण कर सकें और फिर इससे जुमा की नमाज का विवाद समाप्त हो जाएगा.

मेरे विचार में यह मांग काफी जायज है, लेकिन एक चेतावनी के साथ. भले ही सरकार मांग किए गए सभी क्षेत्रों या सेक्टर्स में जमीन उपलब्ध कराने में असमर्थ हो, लेकिन कम क्षेत्रों में भूमि उपलब्ध कराकर एक व्यावहारिक समाधान निकाला जा सकता है. मुस्लिम समुदाय की बात करें तो यदि उनकी आबादी लगभग 5 लाख है तो तो वे आसानी से सार्वजनिक योगदान के जरिए प्रति सप्ताह एक दिन के लिए निजी 'नमाज स्पेशल' बसों की व्यवस्था कर सकते हैं, ताकि मुसलमानों को विभिन्न इलाकों से मस्जिदों तक पहुंचाया जा सके. ये दोनों पक्षों के लिए तर्कसंगत या उचित हो सकता है.

(डॉ एनसी अस्थाना, केरल के पूर्व डीजीपी हैं. आप 46 पुस्तकों और 76 शोध पत्रों के लेखक हैं. उनकी हालिया पुस्तक 'स्टेट परसेक्यूशन ऑफ माइनॉरिटीज एंड अंडरप्राइवेटेड इन इंडिया' है, जिसकी समीक्षा सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जे. चेलमेश्वर (सेवानिवृत्त) ने की है. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के खुद के हैं, क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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Published: 14 Dec 2021,09:50 PM IST

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