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एक तरफ दुनिया का अधिकांश हिस्सा कोरोना महामारी से ग्रस्त है. खराब अर्थव्यवस्था और सार्वजनिक स्वास्थ्य की चुनौतियां से लड़ रहा है. चीन ने कई जगह और आग लगा ली है, दुनिया भर में.
विश्लेषक चीन के इस तर्कहीन व्यवहार ही थाह लेने की कोशिश कर ही रहे थे कि मई की शुरुआत में एक और घटना घटी. भारत की उत्तरी सीमा पर चीन ने अपनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को लद्दाख में लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) पर तैनात कर दिया. इस कदम से भारत भी हक्का-बक्का रह गया.
नतीजा ये हुआ कि 15 जून 2020 को गलवान नदी के पास दोनों देशों के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हो गई. इसमें दोनों तरफ के बड़ी संख्या में सैनिक मारे गए.
कमर्शियल सैटेलाइट की तस्वीरों से पता चलता है कि चीन ने अपनी ही व्याख्या के अनुसार एलएसी के साथ गलवान नदी पर कब्जा कर लिया है. इसमें पैंगोंग त्सो झील का किनारा और डेपसांग प्लैन का इलाका भी है.
चीन ने अपनी बादशाहत दिखाने के लिए इस गंभीर सीमा संकट को जानबूझकर जन्म दिया. फिलहाल, इसके हल होने की संभावना नहीं दिख रही है.
मान भी लें कि दोनों देश युद्ध नहीं चाहते तो भी हमें लंबे समय तक ऐसे तनावपूर्ण टकराव के लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिए. अगर मसले को सुलझाना है तो गंभीर बातचीत की जरूरत है, जिसका मकसद यही होना चाहिए दोनं देश जिस LAC पर सहमत हैं वो यथास्थिति बहाल हो.
लेकिन बातचीत में हमारा पलड़ा तभी भारी रहेगा जब भारतीय राजनयिक न सिर्फ भारत की व्यापक राष्ट्रीय शक्ति का लाभ उठाएंगे बल्कि वो तमाम चीजें टेबल पर लेकर आएंगे जिनमें हमारी बढ़त है.
तो भारत को ये तमाम दांव चलने होंगे- द्विपक्षीय व्यापार, आर्थिक रिश्ते, तिब्बत का मुद्दा, चीन की दक्षिण चीन सागर में दखल, शिनजियांग में उईगर मुस्लिमों की नजरबंदी और हॉन्गकॉन्ग की ऑटोनॉमी और बाकी भी मुद्दे उठाने चाहिए.
हालांकि ये आर्टिकल दूसरे मुद्दे पर है. भारत ने अपनी समुद्री ताकत को कभी उतनी तरजीह नहीं दी और ना ही उसका फायदा लेने की कोशिश की है. लेकिन ये ऐसी ताकत है, जो भारत को चीन के मुकाबले बातचीत करते समय मजबूती दे सकती है.
इस मुद्दे को समझने के लिए हमें बीती सदी में जाने की जरूरत है. जब डेंग शिआयोपिंग के उग्र आर्थिक सुधारों की बदौलत चीन इंडस्ट्रियल पावर हाउस और बड़े व्यापारिक देश में तब्दील हो गया. चीन की सत्तारूढ़ ताकतों को भी ये बात मालूम थी कि देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से समुद्री व्यापार पर निर्भर है. यही वो समय था, जब 2001 में भारत ने ट्राई सर्विस अंडमान और निकोबार कमांड (एएनसी) का गठन किया. बंगाल की खाड़ी, मलक्का स्ट्रेट और दक्षिण पूर्व एशिया के समुद्री रास्ते पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए एएनसी की तैनाती रणनीतिक लिहाज से एकदम सही थी.
इस स्थिति को चीन की मलक्का डाइलेमा (दुविधा) करार दिया गया. पीएलए के रणनीतिकारों ने तो अंडमान और निकोबार को वो 'लोहे की जंजीर' बता दिया जो साउथ चाइनास समुद्र से हिंद महासागर में चीन की आवाजाही को रोक सकता है.
हू जिन्ताओ को आभास था कि चीन की बढ़ती अर्थव्यवस्था विदेशी व्यापार पर निर्भर है और ये व्यापार अधिकांश समुद्री रास्तों से होता है. फिर चाहे वह तेल, नेचुरल गैस, मिनरल्स और खाने पीने की चीजों का आयात करना हो या फिर मैन्युफेक्चरिंग सामान का निर्यात करना. ये सभी व्यापारी जहाजों के जरिए अंतरराष्ट्रीय समुद्री जलमार्ग (SLOC) से होकर गुजरते हैं.
सालाना सैकड़ों चीनी ऑयल टैंकर्स, गैस-कैरियर, कंटेनर शिप और बल्क कैरियर हिंद महासागर में (SLOC) के रास्ते यानी भारत के दरवाजे से होकर निकलते हैं.
जिस वक्त चीन मलक्का डाइलेमा और जलमार्ग की सुरक्षा पर बात कर रहा था, लगभग उसी समय चीनी नेतृत्व ने एक बात का संकल्प किया कि देश को समुद्री सुपरपावर बनना चाहिए. हैरत की बात है कि सिर्फ दो दशक के छोटे से समय में चीन ने बड़ी समुद्री ताकत का दर्जा भी हासिल कर लिया. पीएलए नेवी (PLAN) दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी नेवी है. इस वजह से चीन का दक्षिण चीन सागर में वर्चस्व है और उसके पास "9 डैश लाइन' और अपने दूसरे मंसूबों को बिना डरे लागू करने की ताकत है.
एक ऑयल टैंकर जो कुवैत से चलता है. उसे शंघाई पहुंचने में तकरीबन तीन हफ्ते का समय लगता है. टैंकर हिंद महासागर पार करते हुए मलक्का से होकर तकरीबन 13000 हजार किलोमीटर का सफर तय करता है. जबकि पीएलए नेवी युद्धपोत को हेनान के नजदीक के बेस से अंडमान की चुनौती को पार करते हुए भारत की समुद्री सीमा में घुसने में 12 दिन लगेंगे.
भारतीय प्रायद्वीप हिंद महासागर में काफी बड़ा है. पीएलए नेवी के लिए यहां के समुद्री मार्ग में हरकत करना बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं होगा. इसके अलावा भारत के एयरक्राफ्ट कैरियर की मदद से मिसाइल, सबमरीन का खतरा भी बना ही रहता है
हिंद महासागर में चीन की इसी कमजोरी के कारण कुछ लोगों का मानना है हिंद महासागर SLOC चीन के ‘गले की नस’ जैसा है, जिसे भारत को दबाना चाहिए ताकि चीन दबाव में आए.
नौसैनिक जंग का कानून दुश्मन देशों को जहाजों को रोकने, उस पर चढ़ने और उसमें सर्चिंग करने की इजाजत देता है. ताकि वो जहाज या उसके सामान की जांच कर सकें.
हालांकि शांतिकाल में दूसरे तरह के नियम लागू होते हैं - विदेशी झंडे वाले व्यापारिक जहाज को रोकने और उस पर सवार होने के लिए संबंधित उस देश की इजाजत लेनी होती है. हालांकि निश्चित मामलों में ये संभव है, जैसे- नौसेना के निर्देशों का पालन ना किया जाए, जहाज का संदिग्ध व्यवहार, गलत झंडा लगाना या झंडा ही न लगाने पर नौसेना कार्रवाई कर सकती है. अगर ये सारी चीजें नाकाम हो जाती हैं तो आवश्यकता के सिद्धांत के मुताबिक, एक युद्धपोत (या पनडुब्बी) व्यापारी जहाज पर चढ़ सकता है और वहां तलाशी ले सकता है.
क्या यह भारतीय नौसेना (या इंडियन कोस्ट गार्ड) के जहाजों के लिए संभव है कि वो चोक प्वाइंट्स या खुले समुद्र में चीनी जहाजों से संपर्क कर सकें और उन्हें चुनौती दे सकें? क्या हम और आगे बढ़कर चीनी जहाजों को रोक सकते हैं और जहाजों पर जाकर उनके सामान की जांच कर सकते हैं?
यह संभव हो सकता है. लेकिन क्या ये अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन नहीं होगा? शायद होगा.
लेकिन चीन भी कानून का पालन करने वाला देश नहीं है. जब वह इसका विरोध करे तो हमारे लिए जरूरी है कि हम उसकी सरकार को दक्षिण चीन सागर पर अंतरराष्ट्रीय कोर्ट के फैसले को ना मानने की बात याद दिला सकते हैं. भारत के पूर्वोत्तर सीमा पर एलएसी के सीमा उल्लंघन और 15 जून 2020 को भारतीय सैनिकों पर बर्बर हमले के मुद्दे को उठा सकते हैं.
(एडमिरल अरुण प्रकाश (रिटा.) पूर्व में भारतीय नौसेना में नेवल स्टाफ के चीफ रह चुके हैं. वह चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी के चेयरमैन भी थे. उनका ट्विटर हैंडल @arunp2810 है. यह एक ओपनियन लेख है. ये लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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