मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019भारत चीन को मात दे सकता है?अर्थशास्त्रियों के वॉट्सऐप ग्रुप पर बहस

भारत चीन को मात दे सकता है?अर्थशास्त्रियों के वॉट्सऐप ग्रुप पर बहस

जब हम कॉलेज में थे तब भी यही बहस चलती थी, तब और अब की दलीलों में नहीं खास फर्क

राघव बहल
नजरिया
Updated:
(फोटो: क्विंट हिंदी)
i
null
(फोटो: क्विंट हिंदी)

advertisement

क्या भारत नया चीन बन गया है?

सेंट स्टीफेंस के अर्थशास्त्र के 1982 बैच के मेरे व्हाट्सऐप ग्रुप में ये सवाल देखकर मैं हैरान रह गया. शायद एक प्यारा मित्र ताने मार रहा था या फिर मजाक कर रहा था, क्योंकि पिछले एक दशक में सामान्य ज्ञान के इस तरह के सवालों की चिंता किसी को नहीं रही है. हां, मैं मानता हूं कि 2008 के आसपास ये सबसे बड़ा सवाल बन चुका था, जब अमेरिका नीचे गिर रहा था, चीन कर्ज से कराह रहा था, और भारत लगातार तीन साल के 9 फीसदी GDP विकास दर से खुशहाल था. लेकिन फिर अमेरिका वापस पटरी पर आ गया, चीन आगे बढ़ता चला, और हम महंगाई/भ्रष्टाचार के झंझटों में रास्ता भटक गए – फिर भारत/चीन सवाल ने दम तोड़ दिया.

इसके बावजूद मैंने उत्सुकतावश ग्रुप में दिए गए लिंक पर क्लिक कर दिया और UBS की ताजा ‘Shifting Asia’ रिपोर्ट पर पहुंच गया, जिसमें इस पुरानी पड़ताल को फिर से जिंदा करने की कोशिश की गई है. मेरे मन में आया कि उस रिपोर्ट के विदेशी लेखक के साथ गालिब की वो अमर पंक्तियां साझा कर दूं:

‘हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,

दिल के खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है.’

सच कहूं तो, मैंने रिपोर्ट में उन नए सुरागों/दृष्टिकोणों को खंगालने की कोशिश की जो हो सकता है लेखक को पता चली हो. आह, बेहद रहस्यमयी तरीके से, भारत की ‘ताकत’ को लेकर वही घिसी पिटी बातें उसमें दोहराई गई थी जो 2007/8 में कही जाती थी:

  • युवा आबादी, डेमोग्राफिक आकार
  • इनफॉर्मेशन टेक्नॉलोजी की अगुवाई में सर्विस सेक्टर
  • बेहद-कमजोर प्रदर्शन वाला-इसलिए-उच्च-बेहतरीन-संभावनाओं से भरा मैन्युफैक्चरिंग;
  • दयनीय-इसलिए-सुधार-योग्य इन्फ्रास्ट्रक्चर;
  • बेहद बेकार-इसलिए-बेहतर होने योग्य स्वास्थ्य/शिक्षा/सामाजिक सूचक;
  • सरकारी बैंकों और पब्लिक सेक्टर कंपनियों के निजीकरण के जरिए मूल्य में उछाल की शानदार संभावना, लेकिन इस पर राजनीतिक सहमति नहीं, इसलिए लगभग नामुमकिन;
  • बड़ा मध्यम वर्ग और घरेलू बाजार; इत्यादि

इसके अलावा हाल में हासिल किए गए मील के पत्थरों की भी बात थी – जैसे कि डिजिटल इकॉनोमी में उछाल, इनसॉल्वेंसी/दिवालियापन कानून का बनना – भारत की ‘सुधार प्रक्रिया’ ऐसी लगती है जैसे 2008 के समय जाल में फंस गई हो. तो क्या फिर से भारत/चीन समीकरण की यह बात छेड़ना कल्पना की एक और उड़ान भर है?

अब, आप मुझे कोई चिड़चिड़ा आलोचक मत समझ लीजिए – क्योंकि मैं बड़े उत्साह से इस विषय पर एक किताब भी लिख चुका हूं, सुपरपावर? द अमेजिंग रेस बिटवीन चाइनाज हेयर एंड इंडियाज टॉरटस (पेंगुईन एलेन लेन, 2010). शायद मुझे उन नोट्स से ऐसे तथ्य निकालने होंगे जिनका यहां इस्तेमाल किया जा सके. ऐसे तथ्य जो फिर से शुरु हुई भारत/चीन बहस के बीच बेहतर जानकारी सामने रख सकें.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

भारत चीन से करीब आधा-दशक और पीछे चला गया है

मैंने जो अहम बातें सामने रखी थी उनमें से एक यह था कि भारत चीन से ‘केवल एक दशक पीछे’ चल रहा है. ठीक से कहें तो, चीन 1998 में ही ट्रिलियन-डॉलर की अर्थव्यवस्था बन गया था, जबकि भारत ने इस मुकाम को 2007 में हासिल किया. इससे भी बड़ी बात ये कि भारत एक अहम पैमाने पर चीन से तेज रफ्तार में आगे बढ़ रहा था – आपको याद होगा, ऊंची महंगाई और तेज विकास दर के उन सालों में, सांकेतिक तौर पर हमारी GDP 13-15 फीसदी होती थी, जबकि कर्ज के बोझ में दबा चीन एक अंक पर खड़ा था. मेरी धारणा सरल थी (बल्कि उन दिनों के हिसाब से कहें तो ‘बेहद ही सरल’): भारत उत्पादक बनने के लिए आक्रामक रूप से सुधार करेगा, मुद्रास्फीति को वश में करेगा, और वास्तविक रूप में चीन से आगे निकल जाएगा. हालांकि ऐसा हुआ नहीं. हमने खराब लोन से पस्त बैंकों की बैलेंस शीट की कभी मरम्मत नहीं की, उत्पादकता में सुधार के लिए शायद ही कुछ किया, और किराए-लेने वाली सरकारी नीतियों में फंसे रहे.

अब, अगर हम दोनों देशों के बीच के इस फर्क को फिर से मापते हैं, तो 2006 में चीनी अर्थव्यवस्था ने 3 ट्रिलियन डॉलर को पार कर लिया, जबकि हम (अगर कोविड-19 ना होता तो) इस साल इसे हासिल कर लेते - दुर्भाग्य से, चीन से ‘केवल एक दशक का फर्क’ अब ‘पंद्रह साल के फर्क’ में तब्दील हो चुका है. जाहिर है, वो हमसे डेढ़ दशक आगे निकल चुके हैं, जबकि हम वहीं खड़े हैं (तुलनात्मक तौर पर).

इससे भी गंभीर बात यह है कि चीन की बढ़त तेज होती जा रही है, क्योंकि हम अब सांकेतिक और वास्तविक दोनों GDP विकास दर में पीछे चल रहे हैं.

क्या भारत मध्यम-वर्गीय इनकम ट्रैप में फंस गया है?

इसलिए जब कॉलेज में साथ स्क्वैश खेलने वाला मेरे दोस्त, अरूप राहा, जो किसी चमत्कार की तरह (मजाक कर रहा हूं!) यूबीएस, सिटी और बीएनपी पारिबा (जहां अभी काम कर रहे हैं) में एक बेहतरीन अर्थशास्त्री बन गए, ने मुझसे व्हाट्सऐप ग्रुप पर जवाब देने के लिए कहा, तो मैंने भी उड़ान ले ली (कितनी हैरानी होती है कि चार दशकों के बाद भी लोग कॉलेज के साथियों के सामने दिखावा करना पसंद करते हैं).

अरूप राहा, एक जाने-माने अर्थशास्त्री और मेरे कॉलेज के दोस्त (फोटो: BNP Paribas)

मैंने लिखा:

मुझे दुर्भाग्य से यह यकीन हो गया है कि भारत मध्यम-वर्गीय इनकम ट्रैप में फंसा रहेगा - इसलिए मुझे बिलकुल ऐसा नहीं लगता कि हमारे पास ‘चीन का आधा’ भी बनने का कोई मौका है. उससे भी ज्यादा दुर्भाग्य की बात ये है कि इसके कारण राजनीतिक/सामाजिक ज्यादा हैं, आर्थिक कम.

राजनीतिक रूप से, हमारे पास कमजोर और कारोबार का गला घोंटने वाली सरकार है, जो ना तो चीन जैसा आक्रामक पूंजीवादी है, और ना ही यूरोप जैसा प्रबुद्ध लोकतांत्रिक समाजवादी. यह ‘प्रतिस्पर्धी बाजार पर गहरा संदेह रखने और उसे काबू करने की मंशा रखने वाली’ शुद्ध भारतीय सरकार है.

सामाजिक तौर पर, मैं इससे भी एक गंभीर निष्कर्ष पर पहुंचा हूं – जरा अंदाजा लगाइए सरकार से भी ज्यादा आर्थिक और सामाजिक नियंत्रण का हिमायती कौन है? यह आम भारतीय है, जिसकी कोई आकांक्षा नहीं है (जो बेहतर हालात में हैं या अंग्रेजी में सोचते हैं उनको छोड़ दीजिए). मुझे लगता है कि दशकों की गरीबी और सरकारी नियंत्रण ने एक राष्ट्रव्यापी स्टॉकहोम सिंड्रोम पैदा कर दिया है, जहां हमेशा से गरीब रहने वाले भारतीयों ने अकर्मक सत्ता पर भरोसा करना शुरू कर दिया है, जिससे सत्ता को और ज्यादा अकर्मक बनने की ताकत मिलती है. बाकी सभी संस्थानों - न्यायपालिका से लेकर मीडिया तक - ने पहले ही ऐसी सत्ता से समझौता कर लिया है. इसमें धार्मिक/बहुसंख्यक अंधभक्ति जोड़ दीजिए तो पूरी तस्वीर ही धुंधली हो जाती है.

तो हम जहां है वहीं हैं. और दुर्भाग्य से आने वाले दशकों में भी उसी दायरे में बंधे रहेंगे.. धीमा, मंद गति वाला विकास, लेकिन मध्यम-वर्गीय इनकम ट्रैप में फंसा हुआ.

मुझे यकीन है आप में से कई लोग इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखेंगे; और मैं प्रार्थना और उम्मीद करता हूं कि मैं यहां पूरी तरह गलत साबित हो जाऊं.

मेरी इन बातों पर ग्रुप में ज्यादा लोगों ने जवाब नहीं दिया. कुछ ने थोड़ा मुझे पीछे धकेलने की कोशिश जरूर की, ये कहते हुए कि हमें पुरानी बातों को आधार बनाने की गलती नहीं करनी चाहिए; शायद हम एक नए मोड़ पर पहुंच चुके हैं. वो स्पष्ट रूप से मुझसे ज्यादा आशावादी लग रहे थे.

क्योंकि अरूप ने पूरे मामले को उकसाया था, इसलिए ग्रुप के लिए पूरी बहस को खत्म करने की बारी उसकी थी, जो कि उसने अप्रत्याशित तौर पर (फिर मजाक कर रहा हूं!) परिपक्व बातों से किया:

शुक्रिया राघव. हमेशा की शानदार बातें. वास्तव में चीन और भारत की तुलना करना ठीक नहीं है. चीन की प्रति व्यक्ति आय भारत से करीब 5 गुना ज्यादा है और वह विकास के एक अलग दौर में है.

भारत के संदर्भ में मध्यम-वर्गीय इनकम ट्रैप की चर्चा करना भी अभी जल्दीबाजी होगी. अगर आप विश्व बैंक की आय श्रेणी पर गौर करें, तो भारत अभी भी निम्न मध्यम-आय वाला देश है. उच्च मध्यम-आय वाला देशों में शामिल किए जाने के लिए इसे अपनी प्रति व्यक्ति आय को लगभग दोगुना करना होगा.

भारत में मजबूत विकास के लिए सभी जरूरी चीजें मौजूद हैं – अच्छी डेमोग्राफी, महत्वाकांक्षी युवा, उच्च बचत, मजबूत संस्थान और बेहतर माइक्रोइकोनॉमिक स्थिरता. बुनियादी ढांचे का निर्माण और स्किल डेवलपमेंट बेहद जरूरी है. लेकिन बहुत कुछ सरकार पर निर्भर करता है.

मैं यहां एक छोटे से रहस्य के साथ अपनी बात खत्म करना चाहूंगा जिस पर मुझे बिल्कुल भी गर्व नहीं है. स्क्वैश कोर्ट पर अरूप 6 में से 5 बार मुझे बहुत बुरी तरह हराता था. अब मुझे उम्मीद है कि उसकी आर्थिक भविष्यवाणी भी बड़ी निर्ममता से मेरी भविष्यवाणी का गला घोंट देगी.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 23 Jul 2020,04:10 PM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT