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Jharkhand: खूंटी में आदिवासियों के बहुतेरे सवाल, अर्जुन मुंडा के लिए जीत मुश्किल या आसान?

Khunti Lok Sabha Seat: आदिवासियों के लिए रिजर्व खूंटी सीट पर अर्जुन मुंडा का मुकाबला कांग्रेस के कालीचरण मुंडा से है.

नीरज सिन्हा
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>झारखंड के खूंटी में आदिवासियों के बहुतेरे सवाल, अर्जुन मुंडा के लिए मैदान कितना आसान? </p></div>
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झारखंड के खूंटी में आदिवासियों के बहुतेरे सवाल, अर्जुन मुंडा के लिए मैदान कितना आसान?

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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झारखंड (Jharkhand) की राजधानी रांची (Ranchi) से 40 किलोमीटर दूर खूंटी (Khunti) पहुंचने से ठीक पहले हाईवे के किनारे भारतीय जनता पार्टी (BJP) के एक होर्डिंग पर नजर पड़ी. इसमें बायीं तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) और दाहिनी ओर जनजातीय मामलों के केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा (Arjun Munda) की हाथ जोड़े तस्वीर के साथ एक अपील थी- ‘अपने खूंटी के लिए भाजपा को जिताएं.’ इस अपील के ऊपर बिरसा मुंडा की भी एक तस्वीर थी.

अर्जुन मुंडा बनाम कालीचरण मुंडा

खूंटी पहुंचे तो रामनवमी को लेकर महावीरी पताकाओं से शहर कहीं ज्यादा अटा पड़ा था. मालूम हुआ प्रशासनिक अनुमति के साथ एक निर्धारित तिथि तक के लिए शहर में कुछ और भी जगहों पर बीजेपी ने ये होर्डिंग लगाए हैं. चुनावी नजरिए से इन होर्डिंग के मायने भी निकाले जाते रहे हैं.

आदिवासियों के लिए रिजर्व खूंटी सीट पर बीजेपी ने अर्जुन मुंडा को एक बार फिर उम्मीदवार बनाया है. उनका मुकाबला कांग्रेस के कालीचरण मुंडा से है. यहां 13 मई को चुनाव है.

कांग्रेस प्रत्याशी कालीचरण मुंडा

(फोटो: नीरज सिन्हा)

अर्जुन मुंडा झारखंड में तीन बार मुख्यमंत्री रहे हैं और बीजेपी में आदिवासी नेताओं का बड़ा चेहरा भी हैं. पिछले साल उन्हें नरेंद्र मोदी की सरकार में कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय की अतिरिक्त जिम्मेदारी दी गई है.

2019 के चुनाव में अर्जुन मुंडा ने खूंटी में कांग्रेस के कालीचरण मुंडा को महज 1,445 वोटों के अंतर से हराया था. अर्जुन मुंडा को 3 लाख 82 हजार 638 वोट मिले और कालीचरण मुंडा को 3 लाख 81 हजार 191 वोट मिले थे.

वोटों के इस मामूली अंतर की वजह से भी इस बार सबकी निगाहें खूंटी सीट पर है. वोटों के इसी महीन फासले के चलते इस बार अर्जुन मुंडा रणनीतिक मोर्चे पर सतर्क और सजग नजर आ रहे हैं.

उधर, इंडिया गठबंधन समर्थित कालीचरण मुंडा समीकरणों को अपने पक्ष में करने की कवायद में कोई प्रयास खाली जाने नहीं देना चाहते.

राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखने वाले कालीचरण मुंडा तमाड़ से पूर्व विधायक हैं. क्षेत्रवार वे सभी समीकरणों और स्थानीय लोगों की भावना, उम्मीदों से वाकिफ रहे हैं.

बिरसा मुंडा की धरती पर क्या फिर खिलेगा कमल?

खूंटी, उलगुलान के महानायक बिरसा मुंडा की धरती है. करोड़ों आदिवासियों के लिए गौरव और गुमान के प्रतीक बिरसा मुंडा के सपने झारखंड राज्य की बुनियाद है और यहां की सियासत की धुरी भी.

मुंडा आदिवासी बहुल इस इलाके में अंग्रेजों के खिलाफ बिरसा मुंडा ने उलगुलान किया था. बिरसा मुंडा को ‘धरती आबा’ (धरती का भगवान) भी कहा जाता है.

लोकसभा चुनावों को लेकर बीजेपी ने जो संकल्प पत्र जारी किया है उसमें यह शामिल किया गया है कि बिरसा मुंडा की 150वीं जन्म जयंती को वर्ष 2025 में ‘जनजातीय गौरव वर्ष’ के रूप में मनाया जाएगा.

17 अप्रैल को अर्जुन मुंडा ने खूंटी में केंद्रीय चुनाव कार्यालय का उद्घाटन करने के बाद मीडिया से रूबरू में बीजेपी के इस संकल्प को खूंटी की धरती और आदिवासियों के लिए मान बढ़ाने वाला बता चुके हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले साल 15 नवंबर को बिरसा मुंडा की जयंती पर उनकी जन्मस्थली उलिहातू आए थे. बिरसा मुंडा की जन्मस्थली का दौरा करने वाले वो पहले प्रधानमंत्री बने. यहां से उन्होंने प्रधानमंत्री-विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) की सामाजिक- आर्थिक सुधार के उद्देश्य से 24000 करोड़ की परियोजना की शुरुआत की थी. इस समारोह में पीएम के साथ झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा और झारखंड के राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन भी मौजूद रहे.

बीजेपी प्रत्याशी अर्जुन मुंडा

(फोटो: नीरज सिन्हा)

बहुतेरे सवाल, जज्बात और मुश्किलें

बिरसा मुंडा की धरती में जनजातीय समुदाय का हाल और मिजाज जानने-समझने के लिए शहर की भीड़ से दूर जंगलों-पठारों की ओर निकल पड़ा. इन इलाकों मे फिलहाल चुनावों का शोर नहीं है. अलबत्ता झुलसाती गर्म हवाओं में दूर-दूर तक आदिवासियों को जिंदगी की जद्दोजहद करते देखा. पानी की तलाश में पहाड़ों पर चढ़ती- उतरती महिलाएं नजर आती रहीं.

रास्ते में कुछ जगहों पर युवकों से बातचीत हुई. उनके चेहरे पर हताशा और निराशा के भाव और एक चुभता सा सवाल- आदिवासी इलाके में ‘रोजगार’ कहां है? गांवों में पलायन का दर्द जरूर है.

निएल टूटी इंटर पास हैं. उन्हें इसका गम है कि खूंटी को बड़े-बड़े आदिवासी नेता मिले, लेकिन आदिवासियों के विकास और कल्याण से जुड़े जितने काम होने चाहिए थे, वे नहीं हुए. हमारे सवाल हाशिए पर छूटते रहे.

आदिवासी इलाके में युवा रोजगार को लेकर परेशान हैं.

(फोटो: नीरज सिन्हा)

पश्चिमी सिंहभूम की सीमा से सटे पंचायत राजस्व ग्राम इंदीपीड़ी का टोला है उड़ीकेल. हाथीराम हुन्नी पूर्ति बता रहे थे कि चुनावों का वक्त नजदीक आएगा, तो शायद कोई नेता आ जाएं. वैसे फिर कभी कोई नहीं आता. गोंडा हुन्ना पूर्ति बता रहे थे कि अभी तक पता नहीं कि लोकसभा का चुनाव कौन लड़ रहा है?

खूंटी जिला मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूर पड़ासू के पास कुछ युवा जंगलों से साल के फूल-पत्ते लेकर गांव लौट रहे हैं. चुनाव के बारे में पूछे जाने पर जिंगा मुंडा कहते हैं, "सुना है वोट है, पर राजनीतिक दल वाला कोई इधर आया नहीं है."

इसके साथ ही जिंगा मुंडा आगाह कराते हैं कि कुटुम्बा गांव से आगे बढ़ने के लिए गाड़ी रोक देनी पड़ेगी. उधर रास्ता नहीं है.

खूंटी के जंगली इलाके में पानी लाती एक महिला.

(फोटो: नीरज सिन्हा)

बीरबांकी पंचायत के कुटुम्बा में गाड़ी रोक देने के बाद जंगलों के बीच से चार किलोमीटर पैदल चलकर हम जटुआ टोला पहुंचे थे.

इस टोले में रहने वाले 21 आदिवासी परिवारों की जिंदगी की मुश्किलें देख काफी देर तक हैरान होता रहा.

सभी आदिवासी परिवार पेड़ों और चट्टानों से रिसकर आने वाले पानी का इस्तेमाल करते हैं. उनके घर मिट्टी और लकड़ी के तथा जीर्ण-शीर्ण हालत में दिखे. गांव के सभी लोग जनजातीय मुंडारी भाषा में बातचीत कर रहे थे.

साऊ हासा नन मैट्रिक हैं. वे हिंदी में कुछ बात कर लेते हैं. साऊ बताने लगे,

"इस टोले के लोगों ने कभी किसी बड़े नेता, अधिकारी और सरकारी बाबू को नहीं देखा है. सरकारी योजना में राशन मिलता है. बाकी बिजली, पानी, रास्ते, इलाज, घर, पोषण, शिक्षा, काम, कपड़े सब सपने जैसे हैं. ये जंगल, पहाड़ नहीं होते, तो हम सब भी शायद नहीं होते."

साऊ के सवाल भी हैं, "नेता, अफसर सरकारी बाबू यहां तक आते क्यों नहीं ?" वाकई उस वक्त इस सवाल का जवाब देना बहुत आसान नहीं था.

चुनावों के बारे में पूछने पर युवा जोटो नाग कहते हैं, "कब वोट है मालूम नहीं, गांव में जब बैठकी होगी, तो निर्णय लिया जाएगा. वोट देने सब जाएंगे जरूर, लेकिन इससे क्या, जिंदगी तो वैसी ही कठिन रहेगी."

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तस्वीर क्यों नहीं बदलती?

तपती दुपहरी में उबड़-खाबड़ रास्तों पर पैदल चलते हम पहाड़ों पर बसे कई गांव गए. आदिवासियों को देखा-सुना, तो लगा बिरसा की इस धरती पर आदिवासियों के बहुतेरे सवाल हैं. जज्बात हैं. जिंदगी की तमाम मुश्किलें हैं, पर लोकतंत्र के इस महापर्व में भी उनकी पीड़ा उन्हीं पहाड़ों, जंगलों में दबकर रह जाती है.

(फोटो: नीरज सिन्हा)

हमारे साथ बीरबांकी पंचायत के पूर्व मुखिया जवरा पाहन चल रहे थे. वे बता रहे थे, बहुत कोशिशें की, लेकिन जटुआ में एक भी कारगर सरकारी योजना नहीं पहुंची. कुछ साल पहले ग्रामाणों को सोलर लाइट दिए थे. इस गांव में सड़क, घर और रोजगार से जुड़ी योजनाएं जरूरी हैं.

जवरा पाहन को मालूम है कि बिरसा मुंडा की जन्म स्थली उलिहातू में बड़ी- बड़ी राजनीतिक हस्तियां आती रही हैं. वे इस बात पर जोर देते हैं कि सरकारों के तमाम दावे के बाद भी बिरसा मुंडा की धरती पर रहने वाले आदिवासियों की तकदीर और तस्वीर नहीं बदलती.

जवरा यह सब कह रहे थे, तो आंखों के सामने से बिरसा मुंडा के गृह पंचायत बाड़ीनिजकेल के कुइल गांव की तस्वीर सामने आती रही.

पहाड़ की चोटी पर बसे इस गांव में 32 आदिवासी परिवार रहते हैं. फरवरी महीने से ही पानी की समस्या से सब जूझ रहे.

(फोटो: नीरज सिन्हा)

इस गांव की रामदी सरूकूद की शिकायत है कि राष्ट्रपति, पीएम, सीएम, मंत्री सब बिरसा मुंडा की जन्म स्थली उलिहातू आते हैं, लेकिन उलिहातू से सात किलोमीटर दूर हमारा गांव कोई नहीं आता.

मगदली पूर्ति को फिलहाल चुनाव के बारे में जानकारी नहीं है. वो बता रही थीं कि लड़के लोग मोटरसाइकिल से पर्चा देने आएंगे, तभी पता चलेगा कि कौन किस छाप से लड़ रहे हैं.

हालांकि. कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं का कहना था कि खूंटी में जंगलों-पहाड़ों से घिरे कई गावों में नक्सली खौफ का साया रहा है. चुनावों के वक्त एहतियातन भी सुदूर इलाकों में चुनावों का शोर सुनाई नहीं पड़ता.

अब दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं की चुनावी गतिविधियां जोर पकड़ती दिखाई पड़ने लगी हैं. गांवों में नेताओं के लगातार कार्यक्रम हो रहे हैं. अर्जुन मुंडा और काली चरण मुंडा भी लगातार अलग- अलग इलाकों का दौरा और सभा करते देखे जा रहे.

प्रशासनिक स्तर पर मतदाता जागरूकता के कई कार्यक्रम किए जा रहे हैं. 2019 में खूंटी संसदीय सीट में 73. 2 प्रतिशत वोट डाले गए थे.

(फोटो: नीरज सिन्हा)

हेमंत की गिरफ्तारी, समीकरण और दिग्गज

लोकसभा चुनाव की बिसात, दलों और नेताओं के बीच जारी शह-मात के खेल से भले ही आदिवासियों के कई गांव बेखबर हों, लेकिन बहुत लोगों को यह पता है कि झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जेल में बंद हैं. कई ग्राम प्रधान और अगुवा से बातचीत में पता चला कि इस मामले में आदिवासी समाज की बैठकों में चर्चा भी होती रही है. बहुत लोग इसे कथित तौर पर राजनीतिक चाल समझते रहे हैं.

खूंटी ने जयपाल सिंह मुंडा, एनइ होरो, कड़िया मुडा सरीखे दिग्गज आदिवासी नेता और सांसद भी दिए हैं. कड़िया मुंडा के नाम यहां से सात बार चुनाव जीतने का रिकॉर्ड रहा है. 2019 में कड़िया मुंडा का टिकट काटकर अर्जुन मुंडा को मैदान में उतारा गया था. जबकि 2004 में सुशीला केरकेट्टा की जीत के बाद फिर यह सीट कांग्रेस के कब्जे में नहीं आई.

खूंटी संसदीय क्षेत्र में छह विधानसभा क्षेत्र हैं. इनमें खूंटी और तोरपा में बीजेपी का कब्जा है. जबकि तमाड़, खरसावां में झारखंड मुक्ति मोर्चा और कोलेबिरा तथा सिमडेगा में कांग्रेस के विधायक हैं. यहां सत्तारूढ़ दल जेएमएम और कांग्रेस दोनों साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं.

2019 के चुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार अर्जुन मुंडा ने तमाड़ और खरसावां विधानसभा क्षेत्र से प्रभावी बढ़त हासिल की थी. जबकि कालीचरण मुंडा ने कोलेबिरा, सिमडेगा, खूंटी और तोरपा में बढ़त लेकर कड़ी चुनौती पेश की थी.

इस संसदीय क्षेत्र में मुंडा आदिवासियों के अलावा ईसाई समुदाय का खासा प्रभाव रहा है. इनके अलावा शहरी और कस्बाई इलाके में गैर आदिवासियों (सदानों) का फैक्टर भी महत्वपूर्ण माना जाता है.

जाहिर तौर पर एक- दूसरे की रणनीति भेदने समेत शहरी वोटरों को आकर्षित करने की चुनौती इस बार भी दोनों के सामने है. साथ ही खूंटी की पहचान जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों के वजूद से जुड़े सवालों पर कई जन आंदोलनों की वजह से भी रही है. चुनावों में इसके प्रभाव से भी इनकार नहीं किया जाता है.

इस बार चुनाव में 13 लाख, 12 हजार 257 वोटर उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला करेंगे. इनमें महिला वोटरों की संख्या पुरुष वोटरों की तुलना में अधिक है.

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