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Narsinghanand vs Umar Khalid: ये आठ महीने तक चला... चार्जशीट को संगाला गया. गवाहों के बयानों में अहम खुलासे को बाहर रखा गया, जबकि गवाहों के बयान कई खामियों की तरफ इशारा कर रहे थे.
सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने वाले भाषण को सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के तौर पर दिखाया गया क्योंकि एक पार्टी के IT सेल के कार्यकर्ता वीडियो एडिटिंग टूल्स का इस्तेमाल करने में माहिर हैं.
तनाव बहुत ज्यादा बढ़ गया था, इसलिए जिन पर ये मामला नहीं बनता था उन लोगों पर भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (NSA) लगाया गया. आठ महीने तक इसकी सुनवाई चलने के बाद फैसले को सुरक्षित रखा गया. फैसला पहले ही आना था, लेकिन इसे बार-बार टाला गया.
आखिर जब 24 मार्च को कोर्ट ने फैसला दिया तो पता चला कि उमर खालिद को जमानत नहीं मिली. इस बात का अंदाजा पहले से ही लगाया गया था कि गुनहगार नहीं होने के बाद भी उसे जेल में ही रखा जाएगा. 18 महीने पहले जब उमर को गिरफ्तार किया गया था, उस दिन से हमें मालूम था कि उसके साथ ऐसा ही कुछ होगा.
उमर खालिद को लगातार जेल में रखना कोई हैरान करने वाली बात नहीं है. ये भी तथ्य है कि हिंदुत्व कट्टरपंथी यति नरसिंहानंद ने एक मामले में जमानत मिलने के कुछ ही हफ्तों बाद ही दिल्ली में एक मंच पर आकर मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए भड़काऊ भाषण दिया.
नरसिंहानंद को सालों तक मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने की इजाजत दी गई. यहां तक कि फरवरी 2020 में दिल्ली दंगों से ठीक पहले खुले तौर पर उसने मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का आह्वान किया, लेकिन कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई. आखिर में इस साल एक भाषण के मामले में गिरफ्तारी हुई. इस भाषण में नरसिंहानंद ने महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी की थी. हालांकि दिसंबर 2021 में हरिद्वार में 'धर्म संसद' में भड़काऊ भाषण से जुड़े मामले में कस्टडी मांगी गई थी. फिर भी दोनों मामलों में सेशन कोर्ट ने नरसिंहानंद को जमानत दी. जमानत इस शर्त पर दी गई थी कि वो वैसा जुर्म फिर नहीं करेंगे जिसके लिए गिरफ्तारी हुई थी.
इसलिए इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि 3 अप्रैल को दिल्ली हिंदू महापंचायत' में वो फिर से अपनी जमानत की शर्तों को तोड़ेंगे. महापंचायत में मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि अगर कभी भारत में कोई मुसलमान प्रधानमंत्री बन गया तो हिंदुओं को धर्मांतरण के लिए मजबूर किया जाएगा. उन्हें मार दिया जाएगा.
यहां सवाल ये नहीं है कि यति नरसिंहानंद जेल में रहें और उन्हें जमानत नहीं मिलनी चाहिए. जमानत मिलना एक नियम है. जब तक बेल पर रिहा होने वाले व्यक्ति को कोई खतरा ना हो, या फिर अपराध दोबारा करने, या गवाहों को धमकी और सबूतों से छेड़छाड़ करने या फरार होने की आशंका न हो तो किसी को जेल में रखने की जरूरत नहीं है.
समस्या यह भी नहीं है कि खालिद को जमानत नहीं मिली है, भले ही उसने कभी हिंसा के लिए किसी को उकसाया नहीं, लेकिन UAPA लगने के बाद ये सब तो होना तो तय ही था.
यह भारत में ‘कानून के शासन’ के लिए एक गंभीर संकट की ओर इशारा करता है, जिस पर अगर ध्यान नहीं दिया गया तो सभी के मौलिक अधिकारों का नुकसान होगा. यहां तक कि जो लोग इस पर गर्व करते हैं उनका भी नुकसान होगा.
कानून का शासन उन चीजों में से एक है जिसको हम उतना तवज्जो नहीं देते, जबकि ये सभी लोगों की जिंदगी पर प्रबाव डालता है.
इसकी मूल अवधारणा सरल है. सार्वजनिक तौर पर बताया जाता है कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है, यहां तक कि सरकार और विशेषाधिकार रखने वाले लोग भी नहीं. कानून की नजर में सबके साथ समान व्यवहार होना चाहिए और एक स्वतंत्र न्यायपालिका होनी चाहिए जो निष्पक्ष रूप से निर्णय करे.
यह सिद्धांत भारत सहित दुनिया भर में आधुनिक कानूनी और संवैधानिक व्यवस्था का आधार है, जहां संविधान का अनुच्छेद 14 कानून के सामने सबकी बराबरी की गारंटी देता है, वहीं अनुच्छेद 21 जीने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है. इसे सिर्फ कानूनी प्रक्रिया से ही छीना जा सकता है. ऐसे हालात में भी कार्यपालिका और विधायिका की कार्यवाही पर कोर्ट के पास न्यायिक समीक्षा की शक्ति है.
भले ही आजकल इन मूल्यों को अहमियत नहीं दी जा रही, लेकिन ये मूल्य न केवल हमारे संविधान के अभिन्न अंग हैं, बल्कि इस आदर्श के लिए हम जीते भी हैं.
उमर खालिद बनाम नरसिंहानंद की स्थिति कानून के शासन के लिए खतरा जैसा क्यों लगता है?
सबसे पहले, ये ध्यान रखना जरूरी है कि ये जो घटनाएं हैं वो इक्कीदुक्की या अपवाद नहीं हैं. जब भी ऐसे किसी अपराधियों के अपराध की बात आती है जो बहुसंख्यकवादी भावना रखते हैं, या सरकारी नीति का समर्थन करते हैं, तो उनके खिलाफ गंभीर आरोप नहीं लगाने का एक साफ पैटर्न दिखता है.
गौरी लंकेश की हत्या को ही लीजिए. कर्नाटक पुलिस ने तर्क दिया कि हत्या पूर्व नियोजित थी. सबकुछ एक संगठित साजिश का हिस्सा था. नरेंद्र दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी और गोविंद पानसरे जैसे तर्कवादियों की हत्या के लिए जिम्मेदार थी. लेकिन इन मामलों में आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट में यूएपीए की धाराएं नहीं लगी. केसीओसीए के तहत आरोप लगाए गए.
इन प्रतिष्ठित तर्कवादियों (जिन्हें आरोपी अपनी धार्मिक विचारधारा के लिए खतरा मानते थे) पर एक 'संगठित अपराध सिंडिकेट' ने हमला किया. ये हमले यूएपीए की धारा 15 में एक 'आतंकवादी एक्ट' की परिभाषा में फिट हो सकते थे. ये हमले भारत में लोगों या लोगों के किसी भी वर्ग पर हमला कर उन्हें आतंकित करने का मामला था और उसके लिए टेरर एक्शन एक्ट में मामला लगाया जा सकता थ,. फिर भी पुलिस ने इन मामलों में ऐसी धाराएं नहीं लगाने का फैसला किया.
दूसरी ओर, कर्नाटक पुलिस (और बाद में राष्ट्रीय जांच एजेंसी) ने हर्षा हत्या मामले में यूएपीए लागू करने में संकोच नहीं किया, जहां शिवमोगा में एक आरएसएस कार्यकर्ता की हत्या मुस्लिम आरोपियों ने की. इसे सांप्रदायिक हिंसा भड़काने की साजिश करार दिया.
जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय और शाहीन बाग में सीएए के विरोध प्रदर्शन के दौरान, मुस्लिमों को डराने के लिए शूटिंग के साफ मामलों में भी यूएपीए या किसी अन्य विशेष कानूनों के तहत आरोप दायर नहीं हुए और उन्हें आसानी से रिहा होने दिया गया.
दूसरी ओर, सबसे हास्यास्पद मामलों में अमूल्य लियोना या दिशा रवि जैसी युवा कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह के आरोप (जिनमें जमानत मिलना मुश्किल होता है) लगाए गए हैं.
हालांकि, दिशा रवि अपनी दूसरी कोशिश में जमानत पाने में सक्षम रहीं, क्योंकि मामले की सुनवाई एक ऐसे सत्र न्यायाधीश ने की थी, जो कानून को अच्छे से समझती थीं. लेकिन 19 वर्षीय लियोना - जिसका पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाना भी पूरी तरह स्थापित नहीं हो पाया था, उसे सुप्रीम कोर्ट के बलवंत सिंह फैसले के तहत देशद्रोह में 110 दिन जेल में रहना पड़ा.
अब बात नरसिंहानंद और उनके दोस्तों की करते हैं, जिनके धर्मसंसदों के भाषण स्पष्ट रूप से एक विशेष समुदाय के खिलाफ हिंसा भड़काने वाले हैं, वो आतंकवाद को उकसाने या आतंकवाद की साजिश करने वाले बिल में फिट होते हैं, लेकिन उनके खिलाफ दर्ज की गई एफआईआर में ये धाराएं शामिल नहीं है. इन पर यूएपीए या देशद्रोह या एनएसए या जैसे कोई प्रावधान नहीं लगाए जाते हैं.
यह भी नहीं कहा जा सकता है कि उनके खिलाफ मामले में कोई गंभीर एक्शन नहीं लिया जा सकता क्योंकि उनके बयानों से कोई हिंसा नहीं हुई है.
भीमा कोरेगांव मामले के अधिकांश आरोपी माओवादी हमले की साजिश रचने के आरोपी हैं, जबकि असल साजिश क्या थी वो आज तक बताया नहीं गया. 4 साल से ज्यादा गुजरने के बाद भी UAPA लगने की वजह से वो सलाखों के पीछे हैं.
कानून के शासन को मिटाने के लिए जरूरी नहीं है कि पूर्ण अराजकता, या नाखुशों और अल्पसंख्यकों पर खुल्लमखुल्ला हमले किए जाएं. कुछ लोगों को कानूनी मदद लेना मुश्किल बना देना और जो अपराधी सरकारी नीतियों के साथ हैं, उन्हें खुली छूट देना ही कानून के शाशन को खत्म करने के लिए काफी है. जैसा कि पेरू के पूर्व राष्ट्रपति ऑस्कर बेनावाइड्स के बयानों से भी लगता है.
यहां दलील UAPA या विशेष कानून का दायरा बढ़ाने के लिए नहीं है, बल्कि इन कानूनों के खिलाफ कड़े एतराज जताने की है. खासकर राजद्रोह कानून को लेकर. अंग्रेजों के जाने के बाद भी आखिर क्यों उसे IPC में रखा गया है?
इन कानूनों का दुरुपयोग किसी भी सही विरोध को आपराधिक बनाने के लिए किया जा सकता है. इनमें जमानत लेना बहुत मुश्किल होता है और प्री-ट्रायल प्रक्रिया बरसों तक यूं ही चलती रहती है, भले ही विधिवत ट्रायल शुरू भी न हो.
अगर इन्हें बनाए भी रखना है तो फिर बहुत गंभीर मामलों में ही इनका इस्तेमाल होना चाहिए. जहां पर आरोपी के खिलाफ पर्याप्त सबूत हो और भारत की सुरक्षा के लिए सच में कोई खतरा दिखे.
दलील ये है कि पुलिस , NIA या फिर दूसरी जांच एजेंसियां अपनी बुद्धि का इस्तेमाल कर ऐसे प्रावधान सिर्फ उन्हीं मामलों में लगाए जो हकीकत में इन धाराओं में फिट होते हैं और ऐसे मामलों में ना लगाएं जहां ये फिट नहीं होते. ये सबके साथ एक जैसा होना चाहिए.
ये नहीं होना चाहिए कि सिर्फ नरसिंहानंद, कपिल गुर्जर, जॉन सेना , तेजस्वी सूर्या पर UAPA और देशद्रोह का चार्ज न लगे, बल्कि दिशा रवि, अमूल्य लियोना और उमर खालिद के साथ भी ऐसा ही व्यवहार हो.
इसका ये मतलब नहीं है कि जहां जरूरी हो वहां भी कानूनी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए. हो सकता है कि उमर खालिद ने बड़ा धरना प्रदर्शन की तैयारी की हो और फिर हालात हाथ से निकल गए हों और हिंसा भड़क गई हो, लेकिन इन हालातों में कानूनी कार्रवाई के लिए हमारी IPC की धाराएं हैं. दंगे, या फिर इस तरह की हिंसा से निपटने के लिए वो पर्याप्त हैं.
विरोध और चक्का जाम के आयोजन को जिस तरह दिल्ली पुलिस ने बढ़ाचढ़ाकर आतंकवादी अपराध की घटना की तरह पेश किया है उनपर सवाल उठते हैं. अगर पुलिस का नजरिया ऐसा ही है तो फिर इसका इस्तेमाल हर जगह एक समान होना चाहिए, ना कि केवल उन लोगों के खिलाफ जो उनके राजनीतिक आका को पसंद नहीं करते.
एक और महत्वपूर्ण बात, नरसिंहानंद गाथा भारत में एक और समस्या पर रोशनी डालती है. हम उनके जैसे किसी भी शख्स पर UAPA लगाए जाने को प्रोत्साहित नहीं करना चाहते हैं, चाहे वो कितना भी दुष्ट क्यों ना हो. इस मामले से ये भी पता चलता है कि भड़काऊ भाषण पर हमारे कानून की IPC की धारा 153 ए फिट नहीं है, क्योंकि धारा ये नहीं बताती है कि भड़काऊ भाषण आखिर क्या करता है और इससे अपराध की गंभीरता भी पता नहीं चलती.
बेशक, इसके लिए ‘कानून के शासन’ को लेकर प्रतिबद्धता जरूरी होगी जो कि अभी बहुत दूर की कौड़ी हो गई है. लेकिन उम्मीद है मौजूदा सिस्टम का समर्थन करने वाले भी जरूर ऐसा महसूस करते होंगे कि अगर देश में कानून का शासन नहीं रहा तो फिर उनका बचना भी मुश्किल होगा.
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