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1990 के दशक की शुरुआत में देश में बदलाव की बयार बह रही थी. राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार सत्ता से बाहर हो गई थी, न सिर्फ केंद्र में, बल्कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रमुख राज्यों में भी.समीकरण बदल गए थे. आजादी के 45 सालों में पहली बार राज्यों के क्षत्रप केंद्रीय स्तर के एक कमजोर गठबंधन का एजेंडा तय कर रहे थे. इनमें एक नया नाम सामने आया था, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh) का. भारत के सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य का मुखिया होने का मतलब था, बेलगाम ताकत. इसलिए राष्ट्रीय मीडिया उनके बारे में जानने के लिए आतुर था. हमने तय किया कि वह हिंदी न्यूजट्रैक के लॉन्च एपिसोड के लिए एकदम सटीक होंगे.
इस स्टोरी की रिसर्च एसोसिएट और को-पायलट सोनल जोशी मेरे पास बैठी थीं और अपने कान मेरे फोन से चिपकाए हुए थीं. वह इस बातचीत को सुन रही थीं. उन्होंने फुसफुसाकर, "अच्छा, बेटा- पत्रकार का इंटरव्यू! उसे बताओ, सवाल हम पूछेंगे- वह नहीं!" हालांकि न्यूजट्रैक परिवार में सोनल अभी बच्ची ही थीं, लेकिन वह किसी को भी धमका सकती थी. यहां तक कि मुख्यमंत्री स्टाफ को भी, अगर उन्होंने इंटरव्यू के रास्ते में रोड़े अटकाए. मैंने सोनल को शांत रहने का इशारा किया और ओएसडी के साथ अपना 'फोनो' जारी रखा.
कुछ देर तक उनके सवालों का जवाब देने के बाद मैंने मिस्टर प्रियदर्शी से पूछा कि मुलायम सिंह का इंटरव्यू लेने के लिए मुझे आखिर करना क्या होगा. उन्होंने जवाब दिया, "असल में, मुख्यमंत्री से मिलने से पहले आपको उनके जन्मस्थान इटावा जाना होगा, उनके घर, उनके स्कूल, उनके परिवार को देखना होगा."
यानी साफ था कि मुख्यमंत्री के इंटरव्यू का रास्ता इटावा जाने वाली लंबी ट्रेन की सवारी के जरिए तय होना था.
उन दिनों इटावा में डकैतों का आतंक था. हर जगह बंदूकों की संगीनों का खौफ महसूस किया जाता था. साइकिल सवारों ही नहीं, पैदल चलने वालों के कंधों पर राइफल लटकी होती थी. इसके बावजूद कि घूंघट ओढ़े औरतें खेतों और अपने मिट्टी के घरों के आंगन में काम कर रही होतीं लेकिन दूसरी तरफ दुबके पतले, खुरदुरे चेहरे वाले खूंखार मर्द अपनी लंबी घनी मूंछों पर ताव देते घूमा करते थे.
मुलायम सिंह के घर में एक तरफ मवेशियों के लिए एक छोटा सा टिन शेड था और दूसरी तरफ मिट्टी का घर था.. उनकी पत्नी कैमरे के सामने आने से भी कतराती थीं. कुछ बच्चे चारा काटने की मशीन के आसपास खेल रहे थे. मुझे बताया गया कि उनमें से एक उनका बेटा अखिलेश था, जबकि दूसरा उसके भाई का बच्चा था. मैंने जो देखा उससे मैं चकित रह गई. करियर की शुरुआत में मुलायम सिंह यादव सही मायने में धरती पुत्र थे. यह अविश्वसनीय था कि एक ऐसा व्यक्ति सभी बाधाओं को तोड़कर देश के सबसे बड़े राज्य की बागडोर संभाल रहा है.
घने लंबे बालों और चमकती आंखों से साथ उसकी खिलखिलाहट न्यूज फ्लोर पर गूंजा करती थी. उसने ओएसडी पर ही सवाल दागा, "वैसे, नेशनल मीडिया में आए हैं नेता जी पहले कभी?"
हालांकि मुझे मुंहफट पत्रकारों की इस नई पीढ़ी को ताकने में बहुत मजा आता था जो तीखे सवाल करते थे, लेकिन मुझे ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे मेरी स्टोरी कहीं इस बेबाक खबरनवीस और हठी नौकरशाह के बीच फंस न जाए. सोनल ने ओएसडी को बताया, 'यानी न्यूजट्रैक यानी हेडलाइन न्यूज. हम रजामंदी के लिए सिर्फ एक दिन और इंतजार करेंगे." फोन रखने के बाद सोनल मुस्कुरारकर बोली, "फट गई ओएसडी की".हां, और मेरी भी! मैंने सिर पकड़कर कहा, और सोचा, मेरी लीड स्टोरी तो गई.
लेकिन मेरी आशंका सही साबित नहीं हुई. मैंने लखनऊ उड़ान भरी और सीधा सचिवालय पहुंच गई, जहां मेरी मुलाकात मुख्यमंत्री के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी अशोक प्रियदर्शी से हुई. वह नीला ब्लेजर, ग्रे ट्राउजर्स और टाई पहने थे- सिविल सर्विस के स्पेसिमन सरीखे. स्पष्टवादी, जानकार और चतुर, अशोक प्रियदर्शी अपने बॉस के लिए एक एसेट थे और उनके राजनीतिक सहयोगी भी.
मैं कार्लटन होटल पहुंची. उसकी इमारत सुंदर थी. लकड़ी की लंबी खिड़कियां, बडे कमरे और पीतल के नलों वाला बड़ा सा बाथरूम. कुल मिलाकर आरामदेह रिहाइश. सबसे अच्छा थी, होटल की हाई टी. यह होटल के लॉन में परोसी जाती थी जहां पत्रकार, नेता और नौकरशाह चाय और समोसों के साथ मजेदार गपशप करते थे.
पहले ही दिन शाम को मेरी मुलाकात राजीव शुक्ला से हुई जो मुलायम सिंह के साथ इंटरव्यू का समय लेने की जुगत में लगे थे. बहुत कम लोग जानते हैं कि मनमोहन सिंह की सरकार में कैबिनेट मंत्री और बीसीसीआई क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख सदस्य रहे. राजीव शुक्ला पहले पत्रकार थे और उन्होंने जनसत्ता और रविवार में काम किया था.
राजीव को सबसे सहज ज्ञानी पत्रकारों में से एक माना जाता था जो अपनी बिरादरी के पत्रकारों को खूब सारे टिप्स देते रहते थे. मैंने उन्हें बताया कि मैं इटावा गई थी और यह देखा था कि कैसे इतने साधारण पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति ने शिखर तक का सफर तय किया, वह भी किसी गॉडफादर या गुरु के बिना.
अपने कमरे में लौटकर मैंने फिर से अपना शेड्यूल बनाया और विपक्षी नेताओं, पत्रकारों और एक्टिविस्ट्स से बात करने का समय लिया. गहराई में जाने पर पुष्ट सूत्रों से खबरें मिलीं और इस अफवाह के बारे में भी पता चला कि मुलायम सिंह यादव बाहुबलियों पर खास मेहरबान हैं. यह खबर भी मिली कि समाजवादी पार्टी की कैबिनेट के लगभग आधे सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे.
दो दिन बाद मुख्यमंत्री ने हमें अपने सरकारी निवास पर रात के खाने से पहले वाला स्लॉट इंटरव्यू के लिए दे दिया. अभी मैं रोल करती कि मैंने देखा, मुलायम सिंह थोड़े बेचैन हैं. मुझे पता चला कि यह उनका अब तक का पहला टीवी इंटरव्यू था! वह बहुत असहज थे, इसलिए उन्हें आश्वस्त करने के लिए हमने एक प्रैक्टिस रोल किया और उन्हें ऑडियो वगैरह के बारे में सब बताया. इंटरव्यू अच्छी तरह से हुआ और मुलायम सिंह एक सीधे, ईमानदार व्यक्ति के रूप में सामने आए.
इंटरव्यू के आखिर में मैंने अपना सिर पीछे घुमाया और देखा कि तीन मशहूर हिस्ट्री शीटर्स, मुख्यमंत्री के घर पर आराम फरमा रहे हैं. लग रहा था कि वे यहां आते ही रहते हैं. खास तौर से मुन्ना यादव, जो उत्तर प्रदेश में अपराध की खबरों में छाया रहता था.
अपनी बातचीत को राजनीति से मोड़ते हुए मैं कुश्ती के अखाड़े में ले गई. मैं जानती थी कि यह मुलायम सिंह का पसंदीदा विषय है. मैंने उनसे पूछा कि गांव में वह अपने खाली वक्त में क्या करते थे. उनके चेहरे पर मुस्कान तैर आई और उन्होंने भावावेश में अपने गांव के अखाड़े के बारे में बातचीत करनी शुरू की. उसे और आगे बढ़ाते हुए मैंने पूछा कि उसकी पसंदीदा दांव क्या है. "चरखा," उनकी आंखें चमक रही थीं. "और चरखा कैसे चलते हैं?" मैंने उनसे कैमरे पर इसे दिखाने का अनुरोध किया. मैं हैरत में पड़ गई, जब उन्होंने मुन्ना यादव को बुलाया और उनकी मदद से यह दांव दिखाने के तैयार हो गए.
इससे पहले कि चतुर ओएसडी अशोक प्रियदर्शी उन्हें रोक पाते, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और कुख्यात हिस्ट्रीशीटर मुन्ना यादव मुख्यमंत्री आवास की कालीन पर गुत्थम गुत्था होने लगे. दोनों के बीच चरखा दांव इस बात की तरफ भी इशारा करता था कि उनका आपसी गठजोड़ कैसा है. कैमरा घूमता गया और मुख्यमंत्री और मुन्ना यादव भी- जैसे मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल का एक ट्रेलर चल रहा हो.
अशोक प्रियदर्शी ने पूरी चतुराई से सारी योजना बनाई थी- मुलायम सिंह यादव के गांव में जाने पर कैमरा सिर्फ उनके साधारण जीवन, मामूली शुरुआत और समाजवादी नजरिये को पेश करे. उन्होंने यह कोशिश भी की कि हम ढेर सारा शूट करें ताकि बाद में हम स्टोरी को छोड़ने न पाएं. उन्होंने हमें यह भी बताया कि कैसे मुलायम सिंह को सारी टेक्निकल चीजें सिखाएं ताकि वह कैमरे पर अच्छे नजर आएं. लेकिन वह भी मुलायम को उनकी संदिग्ध मित्र मंडली से दूर नहीं कर पाए!
यह स्टोरी उत्तर प्रदेश में खूब हिट रही और इसकी मदद से हम धूमधाम से हिंदी न्यूजट्रैक को शुरू करने में कामयाब रहे.
इससे क्या सीख मिलती है: अगर कोई रिपोर्टर किसी राजनेता के आस-पास के इशारों पर गौर करता है तो अच्छा ही होता है. समाजवादी साइकिल के पहिए डगमगा रहे थे और जंग खा रहे थे. तब से उत्तर प्रदेश पर अपराध का घना साया है. जैसा कि हिंदी में कहावत है, 'पूत के पांव पालने में नजर आ जाते हैं.'
(नूतन मनमोहन दिल्ली में रहने वाली लेखक और फिल्ममेकर हैं.यह एक ओपनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के हैं. द क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं, न ही वह इसके लिए जिम्मेदार है.)
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